काफी समय हुआ जब देखा था कि विसर्जित देवी प्रतिमा का एक अंश गंगा नदी के किनारे पड़ा था। विसर्जन में यह धारा में बह नहीं पाया था। और घाट पर मारा मारा फिर रहा था। अनुमान था कि इसका उपयोग जवाहिरलाल कभी न अभी अलाव जलाने में कर लेगा। पर वैसा हुआ नहीं। कछार में खेती करने वाले इसको खींच कर इधर उधर करते रहे।
पुरानी पोस्ट कार्तिक अमावस की सांझ पर टिप्पणी में अभिषेक ओझा ने कहा भी था -
पता नहीं ऐसा क्यों आया मन में कि मैं होता तो जरूर फूंकता विसर्जित प्रतिमा का अंश… शाम को जलता देख अच्छा लगता. :-)
जवाहिर को बोलिए ले जाकर ताप लेगा. जाड़ा तो डिक्लेयर कर ही चुका है.
जब यह पहले पहल दिखा था, तब वर्षा के बाद का समय था। कछार में मिट्टी की एक परत जमा दी थी गंगा माई ने और यह कीचड़ में पड़ा था। धीरे धीरे जमीन सूखी, लोगों ने खेती करना प्रारम्भ किया। आवागमन बढ़ा। खेतों के किनारे सरपत की बाड़ लगी। कोंहड़ा की बेलें लम्बी होने लगीं और उनमें फूल भी लगने लगे।
जैसे यह किंवदंति है कि अपने वीभत्स शरीर के साथ अश्वत्थामा अभी भी जिन्दा है और मारा मारा फिरता है, वैसा कुछ इस महिषासुर के ढ़ांचे के साथ भी हो रहा है। कह नहीं सकते कि यह कब तक चलेगा।
आज देखा तो यह एक सज्जन के खेत में पड़ा था। या सही कहें तो खड़ा था। इसको अलगनी मानते हुये लोगों ने अपने कपड़े टांग रखे थे। जिसे इसका इतिहास नहीं मालुम, उसे यह काम की चीज लग सकता है। कछारी परिदृष्य़ का एक रंगबिरंगा अंग। पर है यह देवी की प्रतिमा का अंग मात्र जिसे नवरात्रि के बाद विसर्जित हो जाना चाहिये था।
अब यह विसर्जित तो होने से रहा। मैं इसके क्षरण का इंतजार कर रहा हूं। कभी न कभी तो यह समाप्त होगा ही।[slideshow]
19 comments:
मैं इसके क्षरण का इंतजार कर रहा हूं। कभी न कभी तो यह समाप्त होगा ही।
और फ़िर से नये रूप में सामने आयेगा! :)
प्रवाहित होने के बाद महिषासुर 'काम की चीज़' बन गया...
Objects, Lives, Histories!
कमाल है ! तट पर ढूँढते रहने का यह हुनर
कभी सीप, कभी शंख, कभी निकलेगा गुहर।
प्रतिरूप भर भी वास्तविक होने का प्रमाण देने लगते हैं बस दृष्टि होनी चाहिये :)
बुराईयां कभी खत्म नहीं होतीं, यही संदेश दे रहा है ये ढांचा.
हमारी ’ऑप्टिमम यूटिलाईज़ेशन’ मानसिकता काबिलेतारीफ़ है:)
महिषासुर है ऐसे ही थोडे जलेगा-गलेगा। यह तो प्रतीक है हमारी राजनीतिक नेतागिरी का :)
अन्त तो निश्चित है,समय अभी दूर है बस।
महिषासुर के भाग्य में तिल तिल कर जलना लिखा है, धीरे धीरे, जवाहर ही एक बार में मोक्ष दिला दे..
शायद मोक्ष का इंतज़ार है. गंगा मैय्या ही कारक बनेगी.
शुक्र है कि महिषासुर के नाम पर वोट नहीं मिलते। अन्यथा अब तक भावनाऍं आहत हो चुकी होतीं, आपके पुतले जल चुके होते और आपके ब्लॉग पर पाबन्दी की मॉंग उठ चुकी होती।
Reduce, Reuse, Recycle!
hum to soch rahe thee ki inki duty chunaw mei hogi... lekin..ye to... :D
धार्मिक भावनाओं के हिसाब से कहूँ तो महिषासुर के ढांचे पर कपडे सुखाये जाने पर मुझे अधिक आपत्ति नहीं, पर चूँकि साथ में माता की मूर्ती के अवशेष होते ही हैं (यहाँ भी हैं), यह मुझे घोर कष्टकर लगता है..जैसे मेरी माता के अस्थियों पर कोई कपडे सुखा रहा हो...
पर्यावरण के दृष्टि से नदियों का इस प्रकार ऐसी तैसी करना ,प्रकृति का सीधा अपमान लगता है...
अंततः दोनों ही स्थितियां असंतोषजनक लगता है...पर काश कि यह संवेदना उनके ह्रदय तक पहुँचती,जो इनके कारक हैं...
त्रिवेणी में अस्थि-विसर्जन.
ओह ! तो ये अभी तक हैं. :)
सल्वाडोर डाली की एक अनुपमकला कृत्य लग रहा यह ठून्ठाव्शेष!
काश! इसका सही मायने में क्षरण हो पाता...
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