मैं उससे मिला नहीं हूं। पर अपने दफ्तर आते जाते नित्य उसे देखता हूं। प्रयाग स्टेशन से जब ट्रेन छूटती है तो इस फाटक से गुजर कर फाफामऊ जाती है। फाटक की इमारत से सटी जमीन पर चबूतरा बना कर वह बैठता है।
सवेरे जाते समय कई बार वह नहीं बैठा होता है। शाम को समय से लौटता हूं तो वह काम करता दिखता है। थोड़ा देर से गुजरने पर वह अपना सामान संभालता दिखता है। पता नहीं, अकेला रहता है या परिवार है इलाहाबाद में। अकेला रहता होगा तो शाम को यहां से जाने के बाद अपनी रोटियां भी बनाता होगा!
वह जूते मरम्मत/व्यवस्थित करता है, मैं माल गाड़ियों की स्थिति ले कर उनका चलना व्यवस्थित करता हूं। शाम होने पर मुझे भी घर लौटने की रहती है। बहुत अन्तर नहीं है मुझमें और उसमें। अन्तर उसी के लिये है जो अपने को विशिष्ट जताना चाहे और उसकी पहचान बचा कर रखना चाहे।
अन्यथा, उसके आसपास से ट्रेनें गुजरती हैं नियमित। मेरे काम में ट्रेनों का लेखा-जोखा है, नियमित। मुझे तो बहुत समय तक सीटी न सुनाई दे ट्रेन की, तो अजीब लगता है। इस प्रयाग फाटक के मोची को भी वैसा ही लगता होगा।
मेरे जैसा है प्रयाग फाटक का मोची। नहीं?
[caption id="attachment_5853" align="alignleft" width="584"] प्रयाग फाटक का मोची[/caption]
[caption id="attachment_5856" align="alignleft" width="584"] प्रयाग फाटक का मोची जुलाई ५ को सवेरे पौने दस बजे बैठा मिला। बारिश (या धूप?) की आशंका से तिरपात लगाये था।[/caption]
26 comments:
"अन्तर उसी के लिये है जो अपने को विशिष्ट जताना चाहे और उसकी पहचान बचा कर रखना चाहे।"
- True!
-Arvind K. Pandey
मेरे जैसा है प्रयाग फाटक का मोची। नहीं?
धूमिल की कविता मोचीराम के अंश याद आये:
1.बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
2.और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
फ़ोटो दूर से लिया गया इसलिये साफ़ नहीं आया! :)
मैने कहा न कि उससे मिला नहीं। वहां फाटक पर वाहन खड़े होते हैं और उतरकर उस तक जाना बन नहीं पाता!
फोटो धूमिल है, पर पोस्ट लिखने भर को पर्याप्त है, नहीं?
मेरे जैसा है प्रयाग फाटक का मोची। नहीं?
आपकी यह पोस्ट पढ़कर धूमिल की कविता मोचीराम के अंश याद आ गये:
1.बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
2. और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
फ़िलहाल फ़र्क यही है कि आप रेलगाड़ियां गिनतें हैं और वह मरम्मत के लिये जूते। फ़ोटो दूर से लिया है लगता है।
ईमानदारी से और अपनी मेहनत का खाता है , बड़ी इच्छायें नहीं पाले है - परम संतुष्ट !कबीर की याद आ गयी .संत कवियों में रैदास जी भी मोची थे -मीराँ बाई के गुरु
लगता है वर्डप्रेस का टिप्पणी-बक्सा ठीक से काम नहीं कर रहा। टिप्पणी दो दो बार करने का असमंजस बन जाता है! :-(
जी हां, कोई काम निम्न नहीं और कोई अपनी सामाजिक हैसियत से महान नहीं...
मेरे घर के दाईं तरफ़ सीआईडी का दफ़्तर है, बाई तरफ़ डीएम का। सामने पुलिस थाना है। इन तीनों के बीच, सामने (मेरे घर के) फुटपाथ पर वह बैठता है। उसका नाम नहीं जानता .. उसे बुट पॉलिशवाला कहता हूं।
आपका लेख पढ़कर अपना ही लिखा एक फ़ुरसतनामा “बुट पॉलिश” याद आ गया। जिसमें यह लिखा था कि जब वह जूते को अपनी कारीगरी की कुशलता से चमका देता है, तो उसके चेहरे पर असीम संतुष्टि का भाव होता है, और सामने वाले ग्राहक से कहता होता है “लो बाबू चमक गया, इतना कि आप इसमें अपना चेहरा देख सकते हैं।”
मोची न होता तो अपना मार्निंग वॉक न होता।
आप दोनों ही चलने में सहायक है, वह पैरों को गति देता है, आप पहियों को..
काश यह बात सब के समझ में आ जाए.
शायद पुष्पक में एक दृश्य था , चाल में रहने वाला होटल में ठहरता है , नींद नहीं आती तब वहाँ का शोर रिकार्ड करके ले आता है नींद लाने के लिए .
मोची के सामने यूंही खड़े हो जाएँ तो वह एक बारगी आपके जूते का मुआयना कर ही लेता है.
ईमानदारी से अपनी मेहनत का खाने वाली बात से कुछ असहमति है. आजकल दस रुपये के काम के लिए चालीस मांगने का चलन है. मैं इस प्रवृत्ति पर कुड़कुडाता हूँ पर श्रीमती जी उसे परोपकार से जोड़कर आश्वस्त कर देती हैं. सच है, हम दसियों रुपये यूंही मौजमजे में उड़ा देते हैं पर उन्हें कुछ अधिक देने से कतराते हैं.
फोटू साफ़ नहीं है - पर कलात्मक लग रहा है.
सांझ के धुंधलके का लिया था। साफ़ न होने पर "पेण्टब्रश" चला दिया फ़ोटोस्केचर सॉफ़्टवेयर से!
हम सब अपने अपने क्षेत्र में "प्रयाग फाटक के मोची " ही हैं...:-))
अच्छा है :-)
वही मैं भी ऐसा कुछ सोच रहा था... लेकिन में फोटोशोप के बारे में सोच रहा था.
दूसरे, पांडे जी, क्या जीवन में ऐसा कुछ 'फेज' होता है कि अपनी संतुष्टि के लिए इंसान अपने से कमतर से तुलना करता है...
मेरी ये आदत है, सदा ही ऐसे कई किरदारों से अपनी तुलना करता रहता हूँ, कई बार... बहुत बार.
जब एक ठहराव आता है तब अपने में धैर्य, सन्तोष, क्षमा, करुणा आदि तलाशने लगते हैं। उस समय अपने से "तथाकथित कमतर" लोगों से तुलना करने का मन होने लगता है।
हम जो कुछ नहीं हैं, खुद को वही साबित करने के चक्कर में हम वह भी नहीं रह जाते जो हम हैं।
यदि आप सोचते हैं कि मोची और आप के काम में कोई खास फ़र्क नहीं है तो यह आपकी विनम्रता है।
एक बार एक कार का मेकैनिक ने एक डाक्टर (जो surgeon थे) से कहा
"डाक्टर साहब आप के काम में और हमारे काम में क्या फ़र्क है? हम गाडी के पुर्जों को संभालते हैं और आप शरीर के पुर्जों को। तो हमारी कमाई में इतना अंतर क्यों?
डाक्टर ने उत्तर दिया "अगली बार जब आप रिपेयर के काम में लगे रहते हैं तो गाडी की एंजिन को चलते रहने दिजिए!"
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
बहुत खूब! हमारे ट्रेक्शन डिस्ट्रीब्यूशन वालों से में बार बार कहता हूं कि वे हॉट-लाइन इन्स्यूलेटर क्लीनिंग करें। पर वे कार मेकेनिक ही रहना चाहते हैं; डाक्टर नहीं बनना चाहते! :-(
"अगली बार जब आप रिपेयर के काम में लगे रहते हैं तो गाडी की एंजिन को चलते रहने दिजिए!” - वाह !
बहुत अच्छी बात कही है...
मानवता की निशानी है यह..
इधर तो एक पोश कोलोनी में एक मोची ने वक्त की नजाकत देखते हुए कई साल पहले पेम्फलेट छपवाकर कोठियों में बंटवा दिए थे| अब एक सहायक भी रखा हुआ है जो घर से जूते चप्पल ले आता है और फिर मरम्मत, पालिश वगैरह के बाद पहुंचा भी आता है| खासा कामयाब है, और कई मैनेजमेंट सेमिनार्स में उसके उदाहरण भी दिए जाते हैं|
ज्ञानदत्त जी, आप का लेख पढ़ा अच्छा लगा, सही में कोई फरक नहीं लगता यह शरीर मशीन बन गयी है पैसे के लिए फिर कुछ भी बेंचकर पैसा ही तो हांसिल करना है, ब्यक्तित्व और अस्तित्व बिलुप्त प्रजातियां हो गयी हैं|
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