[caption id="attachment_5871" align="alignright" width="300"] रतलाम स्टेशन का अन्दरूनी दृष्य। फुट ओवर ब्रिज स्टेशन के आरपार जाता है। पहले यह प्लेटफार्म पर नहीं उतरता था, अब यह उतरता है![/caption]
हमारे पास एक डेढ़ घण्टे का समय था और एक वाहन। सड़क पर घूमते हुये रतलाम का नौ वर्ष बाद का अहसास लेना था। आसान काम नहीं था - जहां चौदह-पन्द्रह साल तक पैदल अनन्त कदम चले हों वहां वाहन में डेढ़ घण्टे से अनुभूति लेना कोई खास मायने नहीं रखता। पर जैसे पकते चावल का एक टुकड़ा देख-दबा कर समूचे पतीले का अन्दाज लगाया जाता है, हमने वही करने का यत्न किया।
रतलाम स्टेशन पहले की तुलना में अधिक साफ और सुविधा सम्पन्न लगा। यह भी हो सकता है कि हमने भीड़ के समय प्लेटफार्म पर चहलकदमी नहीं की, अन्यथा गन्दगी दीखती। पहले छप्पनियां (५६अप) या मामा-रेल (१३०/१२९ पेसेन्जर) के समय भील लोगों की उपस्थिति में बहुत भीड़ होती थी। रात में भील लोग प्लेटफार्म पर ही सोते-जागते दीखते थे। अब जब स्टेशन देखा, तो साफ और रंग-रोगन से चमकता दीखा। स्टॉल भी पहले की अपेक्षा अधिक सामान के साथ और साफ नजर आये। प्लेटफार्म पर गाय बैल बकरी नहीं थे, जो पहले हुआ करते थे। यद्यपि स्टेशन के बाहर जरूर दीखे - सांड़ भी थे जो बनारस के टच की कमी मालवा के रतलाम में पूरी कर रहे थे।
स्टेशन के घोड़े (सज्जन सिंह बहादुर की चौराहे की घोड़े पर सवारी करती प्रतिमा) तक सड़क पहले की अपेक्षा ज्यादा चौड़ी और साफ थी। फ्रीगंज की सड़क भी पहले की अपेक्षा चौड़ी और साफ नजर आयी। मुझे बताया गया कि रेलवे मालगोदाम के ट्रक अब फ्रीगंज से आते जाते हैं - सो स्टेशन की सड़क पहले से ज्यादा खुली और हवादार लगी। कन्हैया (वाहन चालक) ने बताया कि कभी एक गार्ड साहब को एक ट्रक ने जख्मी कर दिया था। उसी के बाद मालगोदाम के ट्रक स्टेशन रोड से बन्द कर दिये गये। भला हो उन गार्ड साहब का...
कालिका माता मन्दिर का परिसर तो बहुत ही शानदार था, पहले की तुलना में। मन्दिर के पास का कुण्ड - जिसमें कभी सड़ते पानी की बदबू आया करती थी, अब स्वच्छ जल युक्त था और उसमें बीचोबीच फौव्वारा भी चल रहा था। बच्चों के मैरी-गो-राउण्ड और खिलौना गाड़ियां भी पहले से ज्यादा चमकदार लगे। एक परिवार कालिकामाता मन्दिर के सामने अपनी नयी मोटर साइकल की पूजा करवा रहा था। माता का आशीर्वाद उनकी मोटरसाइकल और उन्हे सुरक्षित रखे...
हम तीन दुकानों पर गये - एक था मेवाड़ स्टोर। यहां मुस्लिम दुकानदार और उनका लड़का बन्धेज के सूट के कपड़े बेंचते हैं। अधेड़ दुकानदार मेरी पत्नीजी को पहचान गये और मुझे भी। बार बार पूछ भी रहे थे कि मैं वापस यहीं पदस्थ हो कर आ गया हूं, क्या? वे और उनका लड़का बार बार कह रहे थे कि हम में कोई खास फर्क नहीं देखते वे उम्र के प्रभाव का (मेरे ख्याल से वे सही नहीं थे, पर हमने इसे कॉम्प्लीमेण्ट की तरह लिया)। मेवाड़ स्टोर वाले अपना बंधेज का सामान जोधपुर से लाते हैं। वहां उनके रिश्तेदार हैं। इस हिसाब से स्टोर को तो मारवाड़ स्टोर होना चाहिये था...
उमेश किराना स्टोर, जहां से हम किराने का सामान लिया करते थे और मैं पैदल चलते हुये वहां जाया करता था, एक छोटी सी दुकान है। उमेश मिल गये। उनका वजन पहले से बढ़ा हुआ था। वे हमें देख बहुत प्रसन्न हुये। बार बार आग्रह करने लगे कि शाम का भोजन उनके घर पर लें हम। बड़ी कठिनायी से हमने उन्हे मनाया कि भोजन तो मेरी अस्वस्थता के कारण हम कहीं कर नहीं पायेंगे। आतिथ्य के रूप में उमेश से हमने इलायची और टॉफी ग्रहण की। उनकी दुकान से चलते समय मेरी आंख का कोई कोना नम था...
जलाराम की दुकान से हमने दो महीने के लिये पर्याप्त नमकीन, मेथी की पूरी, सींगदाना आदि खरीदे। रतलाम में रहते हुये नमकीन हम उन्ही की दुकान से लिया करते थे। दुकान पहले से दुगनी बड़ी हो गयी थी। सर्वानन्द का जनरल स्टोर भी अब दो मंजिला हो गया है। उसमें एक चक्कर लगाने का मन था, पर समयाभाव के कारण वह टाल दिया।
डाट की पुलिया से रतलाम रहते रोज गुजरना हुआ करता था। सर्दियों के मौसम में मैं एक अमरूद खरीद कर खाते खाते पैदल दफ्तर आया जाया करता था - तब मेरे साथ के सभी अफसर वाहन से आते जाते थे। अत: डाट की पुलिया से मैं शायद सबसे ज्यादा पैदल गुजरने वाला अफसर हो सकता हूं। डाट की पुलिया यथावत दीखी। कन्हैया ने बताया कि पुलिया का एक और बुगदा (सुरंग) बनाने का प्लान था, पर वह हुआ नहीं। आगे शायद बन जाये। शायद न भी बने - बनने के लिये मुझे आस पास ज्यादा जमीन नजर नहीं आती।
हम रेलवे कालोनी के अन्त तक गये। चौदह नम्बर की सड़क के किनारे नमकीन मिठाई की दुकान देखने का मन था - जहां पहले एक मोटी तोंद और छोटी बनियान वाला काला भुजंग बद शक्ल हलवाई हुआ करता था और जिसकी दुकान से बहुत जलेबी हमने खाई थी। वह दुकान या तो बन्द थी, या गायब। उसके पास महू बेकरी जरूर दिखी।
कालोनी की सड़क पहले से कहीं अच्छी दशा में थी। कालोनी के अन्त में परफेक्ट पॉटरीज की बन्द फैक्टरी अभी भी कायम थी - उसकी जमीन की प्लॉटिंग हो कर रिहायशी क्षेत्र नहीं बढ़ा था और उसके दरवाजे पर विशाल बरगद का पेड़ अब भी कायम था।
रेलवे कालोनी में जब हम रहते थे, तो बच्चों के खेलने के पार्क की अधूरी योजना बरसों से चल रही थी। अब मैने एक अच्छा पार्क बने देखा।
समय काफी लग गया था। हम जल्दी स्टेशन वापस लौटे। रास्ते में स्टेशन रोड पर खण्डेलवाल की रतलामी सेव की दुकान यथावत चल रही थी, जिसपर नमकीन झारने वाला कारीगर वैसे ही काम कर रहा था, जैसा मै यहां से स्थानान्तरण के समय छोड कर गया था।
रतलाम वैसा ही है - रतलामी सेव अनवरत बनाता। पर पहले से ज्यादा साफ सुथरा। मन होता है यहीं एक फ्लैट ले कर रिटायरमेण्ट के बाद रहा जाये। पर मन की क्या चलती है?
[यह १६ जुलाई के दिन का भ्रमण था। बारिश का मौसम होने के कारण रतलाम की धूल और वातावरण में कम नमी नहीं मिली, अन्यथा वहां मैं श्वांस की समस्या से परेशान रहता था।
उसके बाद कल हम इलाहाबाद लौट आये।
हम लोग सन १९८५-१९९५ और फिर १९९८-२००३ के बीच रतलाम रहे थे।]
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16 comments:
आपका विवरण एक बार रतलाम जाने को प्रेरित कर रहा है, पर आपका साथ होगा तभी अच्छा है. आपका लोगों से लगाव साबित करता है, साहब अपने कर्मचारियों के प्रति भले सख्ती रखते है, पर भीतर से भावुकता और प्रेम रहता है. और इन सबसे बड़ी चीज़ की खुशी का पैमाना बिल्कुल अलग है, वैसे जैसे बच्चे बालू मे सीँप पाकर खुश हैं, मोती की परवाह नहीं है.
प्रणाम
चरण स्पर्श
इच्छा होने पर भी रतलाम नहीं जा सका। लगता है मैं बिना काम कहीं जाता ही नहीं हूँ। शायद कभी काम निकल आए।
आप शहर को पहचाने, इसके लिए शायद जरूरी होता है कि शहर आपको भी पहचानता रहे.
अच्छा लगा. लगता है रतलाम ने ख़ूब तरक्की की है. ९ वर्षों में इतना सारा परिवर्तन!
वाह, आपके पास तो १५ वर्षों की स्मृतियाँ थी, एक स्थान की। मुझे अब अपनी १५ वर्ष की स्मृतियाँ सहेजने का मन हो आया है, अपनी संतुष्टि के लिये।
बतौर ब्लॉगर मेरा तो वजूद ही २००७ से है . वर्ना १९९५ तक तो में भी रतलाम में ही था. :)
आपकी यात्रा के बहाने ही सही, रतलाम की दृश्यावली सामने आई, बिना भीड़-भड़क्के का शहर देखकर अच्छा लगा। इतना शांत तो शायद आजकल हमारा बदायूँ भी नहीं होगा। यूँ ही दिमाग़ में आया कि अगर जलेबी वालों के बेटे यह पोस्ट पढें तो ...। चित्र देखे बिना डाट की पुलिया की परिकल्पना नहीं कर पाया था। अच्छा है यादों से रूबरू होना! :)
नोस्ताल्जिया से होकर गुजरना एक अलग ही अनुभव होता है, हम भी साथ साथ घूम रहे थे आपके.
पापा रांची जाते हैं तो ऐसे ही संस्मरण होते हैं उनके !
मैं भी अभी 8 वर्षों बाद गया था।
१९८५-२००३ कुछ अंतराल के साथ , कुछ अचरज नहीं की आँख नम हो आयी जवानी की यादें अक्सर ऐसा करती हैं
रतलाम के परिचय को किसी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात आएगी तो आपकी यह पोस्ट उसकी सबसे पहली और सबसे वाजिब हकदार होगी। अपने शहर के बारे में इस तरह पढना अच्छा लगा।
रतलाम स्टेशन से एक खास रिश्ता है हमारा । मंदसौर जाना हो तो रतलाम से तो गुजरना होता ही था । रतलामी सेव जैसी सेव दुनिा में कोई नही बनाता । मंदसौर में हम 5 साल रहे और ऱतलाम में हमारी सबसे प्यारी सहेली भी रहती थी । आपकी पोस्ट ने कितनी यादों को जगा दिया । ढोढर की कचौरी भी याद आ गई ।
रतलामी सेव !!!!!!
आगे कुछ कहने को नहीं !
मेरा जन्म हुआ है रतलाम में, ननिहाल है। पर जब भी याद करता हूं भीड़-भड़क्के वाले शहर के रूप में ही। यदि लोगों के मिजाज का प्रश्न हो तो मेरा गृह नगर रायपुर रतलाम के ठीक उल्टा ही है। रतलाम के लोग वहां की सेव की तरह ही नमकीन स्वभाव के हैं। खंडेलवाल, जलाराम और उजाला ये सब रतलाम की पहचान का अभिन्न अंग हैं। बस एक टेम्पो (टेम्पू) के चित्र की कमी रह गयी। धन्यवाद।
-हितेन्द्र अनंत
Respected Sir,
Jai Shri Krishna, I really did not know Ratlam is so wonderful especially the Kalika Temple. I'd love to visit there soon.
Namaskar
A.G.KRISHNAN
my blog : icethatburns.blogspot.in
अच्छा है, कृष्णन जी! आपका ब्लॉग देखा, रोचक ब्लॉग! शुभकामनायें।
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