टूण्डला से आगरा जाने की रेल लाइन पर अगला स्टेशन है एतमादपुर। और टूण्डला से दिल्ली जाने के रास्ते में पहला स्टेशन है मितावली। इन तीनों स्टेशनों को जोडने वाला एक रेल लाइन का त्रिभुज बनता है। मैंने आठ अगस्त को उस त्रिभुज की यात्रा की।
[caption id="attachment_6045" align="aligncenter" width="584"] गूगल अर्थ पर दिखता रेल पटरियों का टूण्डला-एतमादपुर-मितावली का त्रिभुज।[/caption]
टूण्डला से हम एक पुश-ट्रॉली पर रवाना हुये। पुश ट्रॉली को चार व्यक्ति धक्का देते हैं चार पहियों की यह ट्रॉली जब पर्याप्त गति पकड़ लेती है तो वे उछल कर ट्रॉली पर सवार हो जाते हैं। जब ट्रॉली रुकने लगती है तो वे पुन: उतर कर धक्का लगाते हैं। इस तरह यह ट्रॉली औसत २०-२५ किमीप्रघ की रफ्तार से चलती है। हमारी ट्रॉली पर धक्का लगाने वाले छरहरे बदन के स्वस्थ लोग थे। उनमें से एक अधेड़ था और वाचाल भी। वह बीच बीच में स्थान के बतौर गाइड अपनी टिप्पणियां भी करता जा रहा था। उससे काफी जानकारी मिली।
टूण्डला से एतमादपुर के रास्ते में सरपत की बड़ी बड़ी घास है ट्रैक के दोनो ओर। उनमें से निकल कर जीव ट्रैक पार करते दिखे। तीन जगह तो विषखोपड़ा (गोह की प्रजाति का जीव - साइज में काफी बड़ा - लगभग पौना मीटर लम्बा) सरसराता हुआ पटरी पार कर गया हमारे आगे। एक जगह एक पतला पर काफी लम्बा सांप गुजरा। यूं लगा कि टूण्डला से बाहर निकलते ही अरण्य़ प्रारम्भ हो गया हो।
[caption id="attachment_6053" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला से निकलते ही ऊंची ऊंची घास दिखी ट्रैक के किनारे।[/caption]
टूण्डला एक छोटा कस्बा जैसा स्थान है। इसका अस्तित्व रेलवे का एरिया ऑफिस होने के कारण ही है। हमारे डिविजनल ट्रैफिक मैनेजर श्रीयुत श्रीकृष्ण शुक्ल, जो टूण्डला में नियुक्त हैं और मेरे साथ थे, ने बताया कि टूण्डला की बाजार की अर्थव्यवस्था रेलवे स्टाफ की लगभग बीस-पच्चीस करोड़ की सालाना सेलेरी पर निर्भर है। उसके अलावा कोई उद्योग यहां नहीं है। इस जगह के आसपास के किसान (टूण्डला-फिरोज़ाबाद-इटावा-मैनपुरी का इलाका) जरूर आलू की पैदावार से सम्पन्न हैं। अत: इलाके में कई कोल्ड स्टोरेज मिल जायेंगे। इस इलाके में आलू के चिप्स की युनिटें और आलू से बनने वाली शराब की ब्रुवरी लगाने की सम्भावनायें है। इसके अलावा डेयरी के लिये पशुपालन और उनके लिये चारा बोने का प्रचलन है आस पास के गांवों में - ऐसा श्रीकृष्ण ने बताया।
पर मुझे आस पास की कृषि भूमि पर छुट्टा घूमते बहुत स्वस्थ नीलगाय दिखे। हमारे विद्युत अभियन्ता श्री ओम प्रकाश पाठक ने बताया कि नीलगाय के ट्रैक पर आने और इन्जन से टकराने के कारण इन्जन फेल होने की घटनायें बहुत होती हैं।
मेरे पास अच्छा कैमरा न होने के कारण विषखोपड़ा, सांप या नीलगाय के चित्र नहीं ले पाया। पर उनके चित्र जेहन में गहरे से उतर गये। ये जीव जितने भयानक थे, उतने ही सुन्दर भी। एतमादपुर से मितावली के बीच मुझे एक दो पेड़ों पर बया के ढेरों घोंसले दिखे। पुश ट्रॉली रुकवा कर मैने पेड़ के पास जा कर उनके चित्र लेने चाहे तो एक ट्रॉली मैन आगे आगे चला। वास्तव में घास के बीच कुछ सरसराता हुआ आगे चला गया। एक बड़ा जानवर - शायद नीलगाय भी आगे चरी के खेत में जाता दिखा। घास में बहुत से भुनगे-टिड्डे उड़ते दिखे। अगर वह ट्रॉली मैन आगे न होता तो मैं आगे के गढ्ढे को भांप न पाता और एकबारगी तो उसमें गिर ही जाता।
[caption id="attachment_6058" align="aligncenter" width="584"] पेंड पर लगे बया के घोंसले।[/caption]
खैर, बया के घोंसलों के चित्र ले ही लिये - यद्यपि थोड़ा दूर से। ट्रॉली मैन ने बया का एक घोंसला तोड़ कर लाने का प्रस्ताव रखा - पर मैने जोर दे कर मना कर दिया - किसी का घर उजाड़ना कोई अच्छी बात थोड़े ही है।
मितावली और टूण्डला के बीच नेशनल हाईवे अथॉरिटी के इन्जीनियर रेल के ऊपर रोड ओवर ब्रिज के निर्माण के लिये ट्रैक का ब्लॉक ले कर काम कर रहे थे। उन्होने बताया कि अभी सत्तर-सत्तर मिनट के बीस पच्चीस ब्लॉक की और जरूरत पड़ेगी। ब्लॉक निर्धारण का अधिकार श्रीकृष्ण के पास है। अत: इस दौरान उन्होने हमसे बहुत मैत्री युक्त बातचीत की।
[caption id="attachment_6056" align="aligncenter" width="584"] रोड ओवर ब्रिज के नीचे नेशनल हाईवे अथॉरिटी के इन्जीनियर्स से पुश ट्रॉली से उतर कर बात करते श्रीयुत श्रीकृष्ण शुक्ल।[/caption]
टूण्डला आने के पहले एक बड़ा कैम्पस दिखा - डा. जाकिर हुसैन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी एण्ड मैनेजमेण्ट। भव्य बिल्डिंग। उसका बोर्ड बता रहा था कि ZHITM के १५ कैम्पस, २० कोर्सेज और पच्चीस हजार से अधिक विद्यार्थी हैं। ... आज कल इस तरह के सन्थानों की जो दशा है, उसके अनुसार इन पच्चीस हजार में से कम से कम बाईस हजार विद्या की अर्थी ढोने वाले ही होंगे, विद्यार्थी नहीं।
खाड़ी के देशों की कमाई से खड़े किये गये ये सन्थान, जिनमें बिल्डिंग है पर अन्य इन्फ्रॉस्ट्रक्चर नगण्य़ है और फेकेल्टी को छ से दस हजार की मासिक सेलरी पर रखा जाता है - उनसे गुणवत्ता की क्या अपेक्षा की जा सकती है?
[caption id="attachment_6048" align="aligncenter" width="584"] डा. जाकिर हुसैन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी एण्ड मैनेजमेण्ट का कैम्पस।[/caption]
टूण्डला के बाहर माननीय कांसीराम आवास योजना के अन्तर्गत बनते मकानों का परिसर भी नजर आया। शहर से पांच किलोमीटर दूर। यह परिसर दुकानों, स्कूल, डिस्पेंसरी आदि की सुविधाओं से लैस होगा। पर यहां रहने वाले लोगों को आजीविका के लिये अगर टूण्डला आना जाना हुआ तो उनका काफी पैसा और समय कम्यूटिंग में लग जायेगा। खैर, बनता हुआ परिसर अच्छा लग रहा था। पता नहीं, समाजवादी पार्टी की नयी सरकार परियोजना को धीमा न कर दे!
[caption id="attachment_6049" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला के बाहर माननीय कांसीराम आवास योजना के अन्तर्गत बनते मकान।[/caption]
पूरी पुश ट्रॉली यात्रा के अन्त में टूण्डला यार्ड में एक अठपहिया ब्रेकवान दिखा। यह ब्रेकवान निश्चय ही मालगाड़ी के गार्ड साहब की यात्रा पहले के चारपहिया ब्रेकवान की उछलती हिचकोले खाती और शरीर के पोर पोर को थकाती जिन्दगी से बेहतर बना देगी। उत्तरोत्तर ये ब्रेकवान बढ़ रहे हैं, पुराने चार पहिया वालों को रिप्लेस करते हुये।
[caption id="attachment_6050" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला यार्ड में एक मालगाड़ी का आठपहिया ब्रेकवान।[/caption]
13 comments:
सुंदर भयानकता का जोड़ अच्छा लगा, बहुत सी नई जानकारियाँ भी मिलीं।
ये वाली पुश-ट्रॉली और मालगाड़ी का डिब्बा, बचपन से ही दोनों ही मुझे बहुत गरिमामय यान लगते थे और पुश ट्राली को पटरी के ऊपर दौडकर धक्का देने वाले बहुत ही कुशल लोग, अपनी कैरियर विश लिस्ट में इन दोनों का स्थान शुरू के पायदानों में रहा|
आजकी पोस्ट देखकर बहुत अच्छा लगा सरजी|
सदैव की भाँती अच्छा लगा. बाया के पुराने हो चले घोंसले तोड़े जा सकते थे क्योंकि उनका शायद दुबारा प्रयोग नहीं किया जाता है. ब्रेकवान में सुधार की काफी गुंजाइश है. सप्ताह में एक बार (Alternatively) ब्रेकवान तथा इंजिन में १०० किलोमीटर तक की यात्रा का अनुभव है. गार्ड जी पर तरस आता था.
चार पहिये वाली ये ट्राली हमेशा से ही हमारे लिये कौतुहल रही है। कि ये धकेली जाती है या फ़िर इसमें इंजिन लगा होता है, और अगर धकेली जाती है तो अफ़सर कितना निर्दयी है जो फ़िरंगियों के औजार अभी भी चला रहे हैं, नई प्रणाली ईजाद करनी चाहिये ।
आगरा से हजरतपुर जाते समय टूंडला पड़ता है, हमें हमारे फ़ूफ़ाजी ने बताया था कि यह बहुत पुराना स्टेशन है। उस समय हाईवे बन रहा था और हजरतपुर तक धूल में सफ़र करना मजबूरी होती थी। हजरतपुर में डिफ़ेन्स के क्वाटर्स में मजबूत बड़ी बाड़ लगी होती है, पर नीलगाय की ताकत के आगे ये बाड़ असहाय नजर आती थी, नील गाय बड़ी संख्या में वहाँ पायी जाती हैं और उनका आतंक बहुत है।
बया के घोंसले बहुत दिनों बाद देखे, पहले बर्ड वाचिंग पर जाते थे, तब तो अमूमन रोज ही देखने को मिलते थे, पर आजकल शहरों में लोगों को आशियाने नहीं मिलते, बया की तो बात दूर है ।
खाड़ी देश की कमाई से भारत में बिना क्वालिटी के बहुत सारे संस्थान चल रहे हैं, जहाँ केवल नोट छपाई का काम होता है ।
शीघ्रपतन के रोगी मिलें ऐसे कई जुमले रेल्वे के पुलों के पास और पटरी के आसपास देखने को मिल ही जाते हैं ।
... शहर से पांच किलोमीटर दूर आवासीय परिसर :)
पहली बार मैंने किसी को कानपुर में यह कहते सुना था कि वह सिविल लाइंस बहुत दूर से आता था. मुझे लगा कि शायद उन्नाव वगैहरा से आता रहा होगा. बाद में पता चला कि वह गुमटी इलाक़े को ही बहुत दूर बता रहा था. मैं मुस्कुरा कर रह गया था. दिल्ली की जिस द्वारका कॉलोनी में हम रह रहे हैं उसके भीतर ही भीतर, बच्चों का स्कूल ही 6 किलोमीटर है /:-)
कमेंट कहां गया :(
मोटराइज्ड मोटर ट्रॉली भी हैं। वे ज्यादा दूरी तक निरीक्षण में काम आती हैं। इसके अतिरिक्त कर्षण विद्युत का निरीक्षण स्वचालित टॉवर वैगन से होता है।
इस मौसम में बया का प्रत्येक घोंसला आबाद था - उनमें बच्चे थे। शायद बारिश के मौसम में होते हैं उनके बच्चे।
यह तकनीकी संस्थान तो नोट छापक ही लगता है!
है! :-)
मॉडरेशन में देरी हुई है!
दूरियां शहर के प्रकार से नापी जाती हैं! :-)
इतना हरा भरा यार्ड देखकर मन प्रसन्न हो गया।
पटरी के बीच तो घास नहीं होनी चाहिये! :-)
बहुत बढ़िया पोस्ट, अति सुन्दर चित्र.
हकीम जी का विज्ञापन सर्वोत्तम !
चित्र सुंदर हैं और लेख से काफी जानकारी मिली जो मेरे लिये तो एकदम नई थी ।
आज कल इस तरह के सन्थानों की जो दशा है, उसके अनुसार इन पच्चीस हजार में से कम से कम बाईस हजार विद्या की अर्थी ढोने वाले ही होंगे, विद्यार्थी नहीं !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
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