अब समय बड़ी तेजी से बदला है। एक ही दशक में बहुत बदला है।
मैं पढ़ा करता हूं कि फलानी देश के प्रधानमन्त्री अपनी साइकल पर सवारी कर दफ्तर आते हैं या फलाने देश के राष्टपति बस में सफर करते पाये गये। इन्फोसिस के नन्दन निलेकनी की साइकल सवारी की तस्वीर बहुधा दिखी है। रेलवे अभी वैसी तो नहीं हुई, पर जैसे हालात बदल रहे हैं, कुछ ही सालों में वैसा हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा।
कल सवेरे हमारे उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रबन्धक श्री आलोक जौहरी जी ने मुझे फोन पर कहा कि चलो, इलाहाबाद रेल मण्डल का एक चक्कर लगा लिया जाये। दो दिन पहले वहां सिगनलिंग की केबल चुराने की घटना से ट्रेनों के परिचालन में बहुत व्यवधान आया था। उसके बाद की दशा और बढ़ते यातायात की जरूरतों का जायजा लेना चाहते थे श्री जौहरी।
मैं उनके कमरे में पंहुचा और हम बिना किसी तामझाम के उनकी कार में इलाहाबाद मण्डल के लिये निकले। मण्डल कार्यालय पर इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबन्धक ने स्वागत किया – एक सादा स्वागत। पुराना जमाना होता तो मार अफरातफरी होती। आधा दर्जन बुके होते और दो तीन फोटोग्राफर कैमरे क्लिक कर रहे होते। यहां मण्डल रेल प्रबंधक ने एक (अपेक्षाकृत छोटा) बुके दिया। फोटोग्राफर तो कोई था नहीं! :sad:
श्री जौहरी ने मण्डल के नियंत्रण कक्ष में लगभग सवा घण्टे बैठक की। बैठक में भी कोई औपचारिक एड्रेस नहीं – परस्पर वार्तालाप था। मैं देख रहा था कि कनिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड के अधिकारी भी बहुत सरलता और तनावहीनता के साथ अपने विचार रख रहे थे। … यह माहौल दस साल पहले नहीं हुआ करता था …
और बैठक खत्म होने के बाद हम सब अपने अपने रास्ते (लंच का समय हो रहा था तो अपने अपने घर या दफ्तर में अपना टिफन बॉक्स खोलने) चले गये।
पता नहीं सरकार या कॉर्पोरेट सेक्टर के शीर्षस्थ अधिकारी के साथ बाकी/फील्ड अधिकारियों का इण्टरेक्शन किस हॉर्मोनी के साथ हुआ करता था और अब कैसे होता है, पर रेलवे में तो बहुत अधिक परिवर्तन आया है। सम्प्रेषण के लिये फोन और मोबाइल सेवा का बाहुल्य; सप्ताह पखवाड़े में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा “मुलाकात” ने जूनियर और सीनियर के परस्पर अजनबीपन को लगभग समाप्त कर दिया है। लोग अब बहुत सहज हैं। हाइरार्की, संस्थान के ऑर्गेनाइजेशन-चार्ट में है, पर व्यवहार में धूमिल पड़ रही है।
लगता है कि कुछ ही सालों में सरकारी सेवाओं में भी शीर्षस्थ सीईओ के अपने ट्विटर और फेसबुक अकाउण्ट सक्रिय होंगे। उनकी सामाजिकता सबको पता चला करेगी। उनका व्यक्तित्व खुला होगा। उनके क्लाउट स्कोर इनहाउस सेलीब्रिटी की माफिक होंगे और वे अपनी सामाजिक-वर्चुअल छवि सहजता से बनाये-संवारेंगे।
जब मैने रेलवे ज्वाइन की थी, तब, अधिकारी डेमी-गॉड्स हुआ करते थे, अब वे उसके उलट, कॉमनर्स के नजदीक हो रहे हैं। इस बदलाव का मेनेजेरियल और सोशियोलॉजिकल - दोनो प्रकार से अध्ययन किया जा सकता है!
महाप्रबंधकगण ओपन-अप हो रहे हैं। और बहुत तेजी से।
[caption id="attachment_6294" align="aligncenter" width="584"] इलाहाबाद रेल मण्डल में मुख्य ट्रेन नियंत्रक की कुर्सी पर बैठ वीडीयू पर कण्ट्रोल-चार्ट देखते उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रंधक श्री आलोक जौहरी।
कोई फोटोग्राफर नहीं था तो मैने अपने मोबाइल से लियी चित्र।[/caption]
13 comments:
अच्छा परिवर्तन है।
निश्चय ही धीरे धीरे अनावश्यक अन्तर घटेंगे और रेलवे के मूलभूत प्रश्नों और विषयों पर खुलापन देखने को मिलेगा।
अधिकारी डेमी-गॉड्स हुआ करते थे, अब वे उसके उलट, कॉमनर्स के नजदीक हो रहे हैं...
यह सच्चाई कमोवेश सभी जगह दिखाई दे रही है. अच्छी बात है. बुर्जुआपंती की भी आख़िर कोई होती है.
वर्ना बड़े साहब लोग बबुए से बने बैठे रहते थे बड़े बड़े कमरों में.
कुछ सर्विसेज़ में गूगल-ग्रुप और फ़ेसबुक पर भी ग्रुप हैं जहां सभी बिना hierarchy का लबादा ओढ़े अपनी बात कहते हैं. नई तकनीक वास्तव में ही रूढ़िवाद के ताबूतों में कीलों का काम कर रही है. बहुत अच्छा लगता है ये सब देख कर.
बदलाव सभी जगह हुआ है। आपके ब्लॉग पर तो मिनट्स ऑफ़ मीटिंग भी आ गये।
आपकी फ़ोटो में दूसरे साहब की फ़ोटो लगता है आपने जानबूझकर ली है कि वे झपकी मारते हुये से दिखें। आप सिद्धकैमरा हो गये हैं अब तो।
अच्छा लगा यह जानकार. लेकिन कम से कम प्रशासनिक-पुलिस अधिकारियों में इस की सम्भावना नगण्य है. इसके बावजूद किसी अच्छे प्रयास की भरपूर सराहना होनी चाहिये.
इन परिवर्तनों का कार्यप्रणाली पर सकारात्मक प्रभाव हो तो परिणाम भी अच्छे ही होंगे !
अच्छा और प्रगतिशील परिवर्तन है।
रेलवे में नोमनक्लेचर परिवर्तन शायद पहली कड़ी थी. कोर्पोरेट जगत में तो यह परिवर्तन बड़ी तेजी से आया है. वरिष्ट अधिकारी को भी मित्रवत नाम से ही बुलाया जाता है.
धीरे-धीरे परिवर्तन तो हो रहा है।
एक स्वागत योग्य पहल.. गोरे साहबों से अधिक आजके भूरे साहब आतंकित करते हैं.. मगर ऐसी घटनाएँ और परिवर्तन एक शीतल बयार की तरह है..
बहुत श्रेष्ठ है यह लेख. यह बदलाव किसी भी विभाग में बहुत सकारात्मकता प्रवाहित करता है.
बस बात ये है के यह अच्छी आदत स्वयं के विवेक से न आ कर पश्चिमी देशों के कल्चर का कॉपी-पेस्ट(अनुसरण) करने से आई है. हालाँकि अच्छी बात चाहे किसी भी तरीके या माध्यम से प्राप्त की जाये वह अच्छा ही है. परन्तु यह कॉपी-पेस्ट कई विनाशकारी बातों को भी बुलावा देता है. जैसे आज़ादी के बाद स्वयं के विवेक से व्यवस्था बनाने की जगह भारतीयों ने अंग्रेजो की दी हुई व्यवस्था को कॉपी-पेस्ट कर लिया जिस से दफ्तरों में बैठे अधिकारी खुद को ऊंचा
और आम आदमी को नीचा या सेवक समझने लगे थे जो संस्कृति अभी तक ज़्यादातर सरकारी व्यवस्था में नज़र आती है. फर्क बस ये है के अब ग्लोबलाईज़ेशन की बदौलत पश्चिमी एक्स्पोसर के चलते हमने अंग्रेजो की जगह यू एस ए एवं अन्य देशों का कॉपी-पेस्ट करना शुरू किया है. पहले ये अंधानुसरण कारपोरेट सेक्टर में आता है फिर वहाँ की देखा देखि सरकारी दफ्तरों में. हालाँकि अभी तक तो हम अच्छी चीजों का ही अनुसरण कर रहे हैं (जैसा की आपने यहाँ उदहारण प्रस्तुत किया है ) परन्तु स्वयं के निर्माणकारी विवेक की अनुपस्थिति भी है.
कुछ भी हो यहाँ जो आपने दृश्य उल्लेखित किया है यह बहुत सकारात्मक और अच्छा है. इतनी लंबी टिपण्णी कर दी :-) हालाँकि इस वषय पर काफी लंबा लिखा जा सकता है परन्तु आप सभी आदरणीयो के बीच मुझ अल्पज्ञानी को ज्यादा नहीं बोलना चाहिये :-) सो अब बस............ ये तो आपका नियमित पाठक होने के कारण आपके लेख का मेरा रुचिपूर्ण विश्लेषण था. आखिर नियमित पठन से लिखित सामग्री से स्नेह होना सामान्य बात है और जहाँ स्नेह होता है वहाँ थोडा बहुत विश्लेषण भी हो जाता है :-)
बहुत बहुत धन्यवाद इस श्रमसाध्य टिप्पणी के लिये विपुल जी। मेरे ख्याल से लोग फैशन के कारण नहीं आवश्यकता के कारण ओपन-अप हो रहे हैं। आखिर रेलवे वह मोनोपॉली तो रही नहीं। :-)
बदलाव सुखद ही लगता है लेकिन इस बदलाव को हम झेल तो लेंगे न?
बैंकों में भी कोई-कोई वरिष्ठ अधिकारी सामान्य व्यवहार करता दिखे तो ’ये तो कहीं से भी एक्ज़ीक्यूटिव लगता ही नहीं’ ऐसे जुमले अपने कुलीग्स के मुँह से कई बार सुने हैं। मुझे तो अब भी यही लगता है कि हम लोगों को आदत ही दबने या दबाने की है।
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