[caption id="attachment_6673" align="aligncenter" width="584"] सिर पर लकड़ी का गठ्ठर ले कर जाती इलाहाबाद स्टेशन के फुट ओवर ब्रिज पर महिला।[/caption]
उस महिला के सिर पर छ बण्डल थे। एक बण्डल करीब तीन किलो का होगा। सभी लकड़ियां एक साइज की कटी थीं और उन्हे किसी पौधे की बेल से कस कर बांधा गया था। बण्डल सुघड़ थे - बेतरतीब नहीं।
मैं सीढ़ियों से उतर कर प्लेटफार्म पर पंहुचा तो वहां एक अन्य महिला १५-१६ बण्डलों के साथ बैठी दिखी। उसका चित्र लेने पर मैने उससे पूछा - कहां से लाई है वह?
मानिकपुर से।
महिला झिझक नहीं रही थी जानकारी देने में। उसने बताया कि वह जंगल से लकड़ी काट कर नहीं लाती। मानिकपुर (इलाहाबाद-नैनी-सतना खण्ड पर पड़ता है मानिकपुर जंक्शन स्टेशन) के बाजार में यह लकड़ी के बण्डल मिलते हैं। यहां इलाहाबाद में वे उसे बीस से छब्बीस रुपये प्रति बण्डल बेचती हैं। कुल मिला कर वे गांव/जंगल से लकड़ी लाने वाली देहाती या आदिवासी नहीं हैं। एक प्रकार की ट्रेडर हैं।
[caption id="attachment_6674" align="aligncenter" width="500"] इलाहाबाद प्लेटफार्म पर १५-१६ लकड़ी के बण्डल लिये बैठी महिला।[/caption]
जैसा मुझे प्रतीत होता है - यह एक ऑर्गेनाइज्ड ट्रेड है। इस काम में स्त्रियां लगी हैं, उसमें भी शायद कोण हो कि उनके साथ कानून ज्यादा सख्ती से पेश न आता हो - अन्यथा लकड़ी काटना और उसका व्यापार शायद कानून की किसी धारा को एट्रेक्ट करता हो...
खैर, लकड़ी के साफ सुथरे बण्डल देखने में बहुत अच्छे लगते हैं। आपका क्या ख्याल है। बाकी, ईंधन के रूप में वैकल्पिक संसाधन न होने पर लकड़ी के प्रयोग को रोका न जा सकता है और न शायद उचित होगा!
विकीपेडिया पर - भारत में अस्सी प्रतिशत ग्रामीण और अढ़तालीस प्रतिशत शहरी लोग जलाऊ लकड़ी पर निर्भर रहते हैं। देश के घरेलू ईंधन का अस्सी प्रतिशत हिस्सा जलाऊ लकड़ी का है। अगर यह देश व्यापक और निरन्तर प्रयास नहीं करता विद्युत उत्पादन में; तो देहाती और शहरी भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिये जलाऊ लकड़ी और जंगलों का अपूरणीय विनष्टीकरण करता रहेगा।
8 comments:
भारत की सबसे बड़ी समस्या तो अबाधित बढ़ती जनसंख्या है जिसके चलते सबकुछ बेकार है. आदमी पैदा होगा तो पेट तो भरेगा, कैसे भी.
पैसेन्जर की खिड़कियों में बड़े ढंग से लटकी रहती हैं ये लकड़ी..
ये शायद जंगली लकड़ियों में आती हों जिनका काटा जाना वर्जित अपराध न हो।
अगर ऐसा है तो बहुत अच्छा!
बरसों पहले, सतना और उसके आसपास के कुछ स्टेशनों पर मैंने भी ऐसे ही गट्ठर देखे थे। तब इनकी सुघडता देखकर, प्रभावित हुआ था। तब अनुमान लगाया था कि ये महिलाऍं कितनी निपुणता से लकडियॉं काटती हैं। किन्तु आज आपकी यह पोस्ट पढकर लग रहा है कि वे भी इसी तरह कहीं दूसरे बाजार से खरीद कर लाती रही होंगी।
बिल्कुल! माणिकपुर से सतना और माणिकपुर से इलाहाबाद लगभग एक सी दूरी पर हैं। बस विपरीत दिशा में।
lakadi katane ka apradh inhone nahee kiya. ye to bas Shrunkhala kee ek kadi hain. aakhi pet palna hai aur khana bhee banana hai.
रायपुरर - सम्बल्पुर, रायपुर- रायगढ़, अनूपपुर - बिलासपुर आदि मार्गों के पेस्सेंजेर गाड़ियों में भी भारी मात्रा में जंगली लकड़ी की गठरियान सदैव मिलती हैं.
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