सात आठ लोगों का समूह था। अपना सामान लिये गंगा में उभर आये टापू पर सब्जियाँ उगाने के काम के लिये निकला था घर से। एक रास्ता पानी में तय कर लिया था उन्होने जिसे पानी में हिल कर पैदल चलते हुये पार किया जा सकता था। यह सुनिश्चित करने के लिये कि एक ही रास्ते पर चलें; एक ही सीध में एक के पीछे एक चल रहे थे वे। सब की रफ्तार में अंतर होने के कारण एक से दूसरे के बीच दूरी अलग अलग थी।
सब से आगे एक आदमी था। उसके पीछे दो औरतें। उसके बाद एक बच्चा। बच्चा इतना छोटा नहीं था कि पार न कर सकता गंगा के प्रवाह को। पर था वह बच्चा ही। डर रहा था। उसकी मां उससे आगे थी और शायद मन में आश्वस्त थी कि वह पार कर लेगा; अन्यथा उसके आगे वह काफी दूर न निकल जाती। इतना धीरे चलती कि वह ज्यादा दूर न रहे।
बच्चा डरने के कारण बहुत बोल रहा था, और इतने ऊंचे स्वर में कि मुझे दूर होने पर भी सुनाई पड़ रहा था। मां भी उसी तरह ऊंची आवाज में जवाब दे रही थी।
माई, पानी बढ़त बा! (माँ, पानी बढ़ रहा है!)
कछु न होये, सोझे चला चलु। (कुछ नहीं होगा, सीधे चला चल)।
पनिया ढेर लागत बा। (पानी ज्यादा लग रहा है।)
न मरबे। (मरेगा नहीं तू।)
अरे नाहीं! माई डर लागत बा। बुडि जाब। (अरे नहीं माँ, डर लग रहा है। डूब जाऊंगा।)
न मरबे! चला आऊ! (नहीं मरेगा; चला आ।)
आगे का आदमी और स्त्री टापू पर पंहुच चुके थे। लड़का एक जगह ठिठका हुआ था। मां को यकीन था कि वह चला आयेगा। टापू पर पंहुच कर उसने पीछे मुड़ कर लड़के की ओर देखा भी नहीं। धीरे धीरे लड़का गंगा नदी पार कर टापू पर पंहुच गया। उनकी गोल के अन्य भी एक एक कर टापू पर पंहुच गये।
नेपथ्य में सूर्योदय हो रहा था। हो चुका था। लड़के को सूरज की झिलमिलाती परछाईं पार कर आगे बढ़ते और टापू पर पंहुचते मैने देखा। ... अगले सीजन तक यह लड़का दक्ष हो जायेगा और शेखी बघारेगा अपने से छोटों पर। गंगा पार होना उसने सीख लिया। ऐसे ही जिन्दगी की हर समस्या पार होना सीख जायेगा।
माई डर लागत बा। बुडि जाब। (माँ, डर लग रहा है। डूब जाऊंगा।)
न मरबे! चला आऊ! (नहीं मरेगा; चला आ।)
[caption id="attachment_6818" align="aligncenter" width="584"] नदी पार करते लोग।[/caption]
13 comments:
There can't be a better blog. Thank you sir. Few words and you take us to a different world with all its vitality. Life as it is!
I feel proud to know that you and you halchal is there.
जिन्दगी ऐसे ही सिखा देती है कठिनाइयों को पार करना.
बच्चों को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने का ये ही तरीका है जो ग्रामीण जन जानते है.
निश्चय ही, एक बार तो विजय पाने दें बच्चों को उनके भय पक्षों पर। सरल और सीधा।
लगे रहो, डटे रहो
मंजिल मिल ही जायेगी
संघर्ष से बड़ी शक्ति कोई नहीं
वाह! आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की शिक्षा, गंगा मैया स्टाइल ...
माँ के मन का आत्म विश्वास और बच्चे का भय, गजब का समन्वय। incidentally "मुस्कान" शायद पोस्ट नहीं हो पायी।
आपके शब्द सार-गर्भित होते है और हमेशा दिल को छू जाने वाले प्रकरण। आसपास के प्रसंग और हमारे जैसे लोगो के जीवन को इतनी खूबसूरती से और आसानी से आप जिवंत कर देते है की हर अपडेट के लिए उत्स्य्क रहता हूँ।
"मुस्कान" इस पोस्ट का सीक्वेल है। उसके चित्र डाउनलोड करने में समस्या थी। अब वह कल पोस्ट होगी।
ओह, मैं भी चमत्कृत रह गया था इस आदान-प्रदान से!
धन्यवाद धर्मवीर जी!
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Probably one of your best post. God bless you.
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