बैशाखी की सुबह थी। एक दिन पहले ही मैने देखा था पानी में पैदल चल कर सात आठ लोग गंगा पार कर टापू पर जा रहे थे सब्जियाँ उगाने के काम के लिये। आज भी मुझे अपेक्षा थी कि कुछ उसी तरह के लोग दिखेंगे।
और; वे चिल्ला (गंगा किनारे की बस्ती, जहां वे श्रमिक रहते हैं) से आते हुये दिखे। मैं गंगा तट पर उस जगह के लिये बढ़ा जहां वे पंहुचने वाले थे। इस समूह में कुछ महिलायें,बच्चे-बच्चियां और एक पुरुष था। समूह तट पर रुका। गंगाजी का निरीक्षण किया और फिर नदी पार करने की बजाय अपना सामान समेट किसी और जगह जाने लगा। आगे जा कर वे लोग प्रतीक्षा करने लगे। मैने उस नयी जगह पर पंहुच कर आदमी से पूछा - आज पैदल पार नहीं कर रहे? कल तो मैने लोगों को देखा था पार करते?
आदमी ने उत्तर दिया - नाव का इंतजार कर रहे हैं।
आदमी जमीन पर प्रतीक्षा में लेट गया था। सिर के नीचे कपड़े को तकिया बना कर रख भी लिया था। उन्हे लगता है मालुम था कि प्रतीक्षा में समय लगेगा। औरत जो अभी खड़ी थी, ने कहा - नदी में पानी एक दिन में बढ़ गया है। पैदल पार करना ठीक नहीं है।
[caption id="attachment_6838" align="aligncenter" width="584"] प्रतीक्षारत समूह।[/caption]
समूह की तीन लड़कियां समय का सदुपयोग करने के लिये मंजन करने लगीं गंगाजी के किनारे। मुझे फोटो खींचते देख औरत ने सबसे छोटी बालिका को कहा - जा फोटो हईंचत हयें। तुहूं खिंचाईले। (जा फोटो खींच रहे हैं, तू भी खिंचा ले।)
बालिका एक बनियान चड्ढ़ी पहने थी। समूह में सब से छोटी वही थी। मेरे पास आई तो मैने उसे गंगा तट पर सूर्य को सामना करते हुये खड़ा होने को कहा। फोटो खिंचता देख एक अन्य लड़की और लड़का तुरंत उस बालिका के साथ आ कर खड़े हो गये।
फोटो खींच कर मोबाइल की स्क्रीन पर मैने उन सभी को दिखाई। जितनी प्रसन्नता उन बच्चों को हुई वह शब्दों में नहीं लिख सकता मैं ( मैं अभी लेखक जो नहीं बन पाया हूं)।
बच्ची का नाम पूछा मैने। उसने बताया - मुस्कान। बहुत सही नाम रखा है उसकी माई ने!
इस बीच मेरे घर के पास रहने वाला दर्जी कछार के सवेरे के निपटान के बाद वहां से गुजर रहा था। वह बच्चों से बोला - जेकर जेकर फोटो खिंचान बा, ओनके पकड़ि लई जईहीं (जिस जिस की फोटो खींची है, उनको अब पकड़ ले जायेंगे!)। बच्चे खिलखिला कर हंसे। उन्हे विश्वास नहीं था दर्जी की बातों पर! या शायद मेरी शक्ल पर्याप्त डरावनी नहीं है! :lol:
घर आ कर मैं जब मोबाइल में खींचे चित्रों को ध्यान से देख रहा था, तो मैने पाया कि दिन भर टापू पर काम करने के लिये वे लोग अपना सामान लिये हुये थे। पोटली-गठरी, थैला, खाने के डिब्बे और पानी की बोतलें/जरीकेन।
यह मुझे विचित्र लगा - गंगा चारों तरफ रहेंगी उनके। पानी की कमी नहीं। पर पीने का पानी वे घर से ले कर जा रहे हैं। उन्हे भी यकीन नहीं रहा गंगाजी के पानी की निर्मलता का! :-(
वे अगर पानी में हिल कर चले जाते तो मुझे यह अवसर न मिलता उनसे बोलने-बतियाने का। अप्रेल के महीने में गंगाजी में पानी बढ़ता है, पहाड़ों पर बर्फ पिघलने के कारण। वही हो रहा है। सब्जियाँ बोने वाले यह फिनॉमिना जानते हैं। वे जानते हैं कि कब गंगा को हिल कर पार करना है और कब नाव पर। वे यह भी जानते हैं कि कछार के कितने हिस्से में कछार में सब्जियां बोनी हैं और कितना गंगाजी के घटने बढ़ने के लिये छोड़ना है!
हां, वे यह भी जानते हैं कि गंगाजी का पानी पीने योग्य नहीं रहा! :-(
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3 comments:
मुस्कान की मुस्कान के लिए आभार! आपके साथ ही हम लोगों को भी गंगा और गांगेय अतिथियों के दर्शन हो जाते हैं बिला नागा, अपनी जगह से बिना हिले। अनचाहे कचरे के साथ-साथ गंगा में इन कछारी किसानों द्वारा भी तो कितनी रासायनिक खाद, कीटनाशक, यूरिया आदि भी तो मिलाया जा रहा है, पीने लायक कैसे रहे गंगा ...
गंगा का पानी कई जगह तो हाथ से छूने योग्य प्रतीत नहीं होता. लेकिन सरकारें, लोग सब मगन हैं.
समूह का चित्र एक पेंटिंग जैसा लगा. बहुत सुंदर. गंगा का पानी गंदा है अब यह तो सब जान गए हैं .काश कुछ किया जां सकता
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