Wednesday, April 3, 2013
वह मुस्कराती मुसहर बच्ची
चुनार के प्लेटफार्म पर दिखी वह। जमीन पर बैठी थी और मुझे देख रही थी। मैं उसे देख मुस्कराया तो वह भी मुस्करायी। क्या निश्छल बच्ची की मुस्कान थी। रंग उसका ताम्बे का था - वह ताम्बा, जिसे अर्से से मांजा न गया हो। चार से छ साल के बीच उम्र रही होगी उसकी। पास में उसकी मां थी और मां की गोद में उसकी छोटी बहन।
मैने उसकी मुस्कान को मोबाइल के कैमरे में लेना चाहा - और यह कृत्य उसे असहज कर गया। फिर बोलने पर भी वह मुस्कान नहीं आ पायी उसके चेहरे पर।
साथ चलते स्टेशन मैनेजर साहब ने बताया - ये बहुत गरीब हैं। पत्तियां ला कर बेंचते हैं यहां चुनार में और पैसेंजर से वापस लौट जाते हैं। यहीं, चोपन वाली लाइन से लूसा, खैराही, अघोरी खास तक से आते हैं। आदिवासी हैं। ज्यादातर मुसहर।
स्टेशन मैनेजर साहब के यह कहने पर कि ये बहुत गरीब हैं, मैने पर्स खोल कर दस बीस रुपये देने की कोशिश की। पर उसमें छुट्टे पैसे न थे। बाद में पत्नीजी से ले कर बीस रुपये भिजवाये। प्वाइण्ट्समैन साहब ने उन्हे प्लेटफार्म पर खोज कर दिये और आ कर बताया कि बहुत खुश थी वह महिला।
वह मुस्कराती मुसहर बच्ची मुझे भी मुस्कराहट दे गयी।
यही जीवन है, मित्र!
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7 comments:
वाकई यही जीवन है।
यही जीवन है ...
यह 20 रूपये महत्वपूर्ण हैं बहुत कुछ सिखाने के लिए , आभार आपका !
मुस्कुराहट अनमोल होती है, सच.
यही जीवन है, आभार!
:)
ऐसी ही निश्छल मुस्कानों को तरसते हम मानव..
सच कहा!
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