रात में बारिश बहुत हुई। सवेरे आसमान में बादल थे, पर पानी नहीं बरस रहा था। घूमने निकल गया। निकला जा सकता था, यद्यपि घर से गंगा घाट तक जाने कितने नर्क और अनेक वैतरणियाँ उभर आये थे रात भर में। पानी और कीचड़ से पैर बचा कर चलना था।
घाट की सीढ़ियों के पास मलेरिया कुण्ड है। सीवर का पानी वहां इकठ्ठा है और करोड़ों मच्छर थे वहां। पर बारिश के बाद आज एक भी नहीं दिखा। पंख भीग गये होंगे शायद उनके। मच्छरों की जगह अनेक मेढ़क अपनी अपनी बिलों से निकल आये थे और कुण्ड के आस पास की घास में समवेत वेदपाठ कर रहे थे। पीले, मुठ्ठी के आकार के मेढ़क। वे जब अपने गलफड़े खोलते थे तो बहुत बड़ा श्यामल गुब्बारा बन जाता था।
[caption id="attachment_6961" align="alignright" width="584"] मलेरिया कुण्ड के किनारे पीले मेढ़क दिख रहे हैं - वेदपाठ करते।[/caption]
गड्डी गुरू ने कहा कि कोई बंगाली होता तो इन सभी को पकड़ ले जाता। अचार बनता है इनका। बड़े मेढ़क का बड़ा टर, छोटे का छोटा टर! ... जीव जीवस्य भोजनम!
बरसात के रात में कछार में मिट्टी बही थी। रेत और मिट्टी से सनी जमीन पर चलते हुये वह सैण्डल के तल्ले में चिपक गयी। भारी तल्ले से चलने में कठिनाई होने लगी। उसे हटाने के लिये आठ दस बार पैर पटका, पर सफलता आंशिक ही मिली।
बदसूरत सांवला ऊंट कल दिखा था कछार में। वह स्वस्थ भी नहीं लगता और उसकी त्वचा भी बहुत रुक्ष है। आज सवेरे भी गंगाकिनारे दिखा। परित्यक्त सब्जी के खेतों की वनस्पति खा रहा था। उससे सावधानी वाली दूरी बनाते हुये उसके चित्र लिये। पूर्व में बादलों के कारण सूर्योदय नहीं हुआ था, पर रोशनी थी। उसमें ऊंट का चलता हुआ मुंह दिख रहा था साफ साफ। मैने मोबाइल के कैमरे को इस तरह से क्लिक करना चाहा कि उसका खुला मुंह दिखे। इसके लिये दो-तीन ट्रायल करने पड़े।
[caption id="attachment_6962" align="alignright" width="584"] ऊंट, छुट्टा चरता हुआ।[/caption]
सूरज उग नहीं पा रहे थे बादलों के कारण। यद्यपि उनकी लालिमा दिख रही थी। अचानक वे बादलों की ओट से झांके और लगभग दो मिनट में पूरी तरह उदित हो गये।
[caption id="attachment_6960" align="alignright" width="584"] सूरज बादलों की ओट से झांकने का प्रथम प्रयास करते हुये।[/caption]
गंगाजी में पीछे कहीं की बारिश से पानी दो-तीन दिन से बढ़ रहा है। आज भी कुछ और बढ़ा था। चार दिन पहले घुटने भर पानी में हिल कर टापुओं पर जाया जा सकता था और स्नान करने वाले टापुओं पर जा कर गंगा की मुख्य धारा में नहाते थे। कल बढ़े पानी के कारण लोग ठिठक रहे थे। आज देखा कि पास वाली धारा में हिल कर जाना सम्भव नहीं था। लोगों ने अपना घाट बदल कर यहीं पास में कर लिया था। एक व्यक्ति फिर भी हिम्मत कर टापू पर जाने के लिये पानी में हिला। आधी दूरी पानी में चलने के बाद पानी उसके सीने तक आ गया। उसे जो हो रहा हो, पता नहीं, मुझे बेचैनी होने लगी। मन हुआ कि बोलूं वापस आ जाओ! पर वह चलते हुये धारा पार कर टापू पर पंहुच गया।
गंगा किनारे फैंकी गयी वस्तुयें - फूल, डलिया, पूजा सामग्री के रैपर आदि गीले हो गये थे बारिश में। एक विषम जोड़ी जूतों की भी पड़ी थी। अगर गंगा ऐसे बढ़ती रहीं तो एक दो दिन में ये जूते जल में बह कर पवित्र हो जायेंगे! जय गंगामाई! जूते का भी उद्धार हो जायेगा! जिस आदमी ने फैंके, उनका न हो माई!
वापसी में देखा - पण्डा अपनी गठरी छतरी लिये चले आ रहे थे। बारिश के कारण आज देरी से थे। कोटेश्वर महादेव पर खुले में बैठने वाली मालिन गीले फर्श और ऊपर पीपल से झरती पानी की बून्दों के कारण हवन वाली जगह पर टीन की छत के नीचे अपनी दुकान लगाये थी।
हवा ठण्डी थी। लोग प्रफुल्ल लग रहे थे। रामकृष्ण ओझा भी देर से आ रहे थे स्नान को। जोर जोर से बोलते हुये - "बोल धड़ाधड़ राधे राधे, बोल ब्रिन्दाबन बिहारीधाम की जै!"
एक अच्छा दिन ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिये...
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10 comments:
अच्छी ब्लॉगपोस्ट!
दिन पर दिन आपके लेखन में वो तत्व बढ़ता जा रहा है जिसे हिन्दी वाले लालित्य कहते हैं।
सहज , सरल , आहिस्ते-आहिस्ते चरता-फ़िरता गद्य।
बोलिये गंगा माई की जय! :)
इहओ कोऊ नया इस्टाइल है क्या खींचने का?
आज बहुत अच्छा लगा मन खोल कर जो लिखा है आपने. पिछले कुछ पोस्ट सूखाग्रस्त रहे अब गीली हो गयी. कृपया बताने का कष्ट करें कि "हिल कर जाना" से क्या आशय है. कई बार प्रयुक्त हुआ है. पता नहीं था कि बंगाली मेंढक का अचार बनाते हैं.
रविवार सुबह सुबह मौसम यदि अच्छा हो जाये तो दिन भर बहुत लिखने का मन बन जाता है, गाड़ियाँ का चलना दुरुस्त रहे तो समय भी बहुत मिल जाता है।
"हिल कर जाना" यानी जैसे जमीन पर चल रहे हैं, वैसे पानी में चलना - पैदल।
बंगाली अचार बनाते हैं या नहीं, पता नहीं। मैं तो गड्डी गुरू को उद्धृत कर रहा हूं!
आज रविवार था, शायद उसका भी असर था!
''मच्छरों के शास्त्रीय गायन की जगह मेढ़कों का समवेत वेदपाठ सुखद परिवर्तन लगा।'' वेद पढहिं जनु वटु समुदाई
वेतरणी से “बोल धड़ाधड़ राधे राधे" तक की यात्रा मनोहर रही। बंगाली अचारकर्ताओं से ईश्वर मेंढकों की रक्षा करे!
आप तो ब्लागियों में वह ज्ञानी हैं जो ब्लाग पोस्ट लिखने के लिए हर दिन को अच्छा दिन बना लेते हैं।
वेदपाठ करने वाले मेढ़को का अचार ! हे प्रभु ! :)
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