Friday, March 16, 2012

फांसी इमली

फांसी इमली एक इमली के वृहदाकार पेंड़ का ठूंठ है। यह सुलेम सराय इलाहाबाद में मेरे दफ्तर के रास्ते में बांई ओर पड़ता है। वाहन ज्यादातर वहां रुकते नहीं। बहुत कम लोगों ने इसे ठीक से नोटिस किया होगा।



कहते हैं कि इस पेड़ से सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने अनेक लोगों को फांसी पर लटकाया था। जो टीन का बोर्ड वहां लगा है, उस पर 100 लोगों की फांसी की बात कही गई है।

ठूंठ (जिससे सट कर एक पीपल का वृक्ष पनपा हुआ है) को बीचों बीच रख कर एक चबूतरा बना दिया गया है। पास में रानी लक्ष्मीबाई और मौलवी लियाकत अली (?) के सन्दर्भ में एक शहीद स्मारक बनाने का यत्न किया गया है जो काफी सतही प्रयास लगता है। इस फांसी इमली के चबूतरे पर कभी हेलमेट, कभी सस्ते खिलौने और कभी भर्ती बोर्डों के फार्म बेचने वाले अपना मजमा लगाये मिलते हैं। पास में ही एक बोर्ड है जो दुर्घटना बहुल क्षेत्र की चेतावनी देता है। दुर्घटनायें इस लिये होती हैं कि इस जगह से वाहन तेजी से गुजरते हैं।

अपने शहीदों और शहीद स्थलों की जितनी इज्जत भारतीय करना जानते हैं वैसी ही इज्जत इस स्थल की होती दीखती है! :-(

मैने अपना वाहन रोक कर इस स्थान के चित्र लिये। भर्ती बोर्ड के फार्म बेचने के लिये दो व्यक्ति वहां अपना पीले रंग का टेण्ट तान रहे थे। उनके बैग अभी नहीं खुले थे। पास में उनकी मोटर साइकल खड़ी थी। हो सकता है पुलीस वाले को चबूतरे पर दुकान लगाने का किराया भी देते हों वे। एक ठेले वाला ज्यूस बेचने का तामझाम सेट कर रहा था। एक दो गुमटियां भी आस पास बनी हुई थीं।

सब कुछ सामान्य था वहां। शहीद स्मारक जैसी गम्भीरता वहां नदारद थी।

अंग्रेजों ने सन सत्तावन के बाद यहां काफी नर हत्यायें की थीं - उसके बारे में कोई संशय नहीं है। अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा की पुस्तक The Last Bungalow - Writings on Allahabad में प्रस्तावना के लेख में है -

अंग्रेजों के जमाने के इलाहाबाद के सिविल लाइंस के इलाके के पूर्ववर्ती आठ गांव हुआ करते थे। उनको अंग्रेजों ने 1857 के विप्लव के बाद सबक सिखाने के लिये जमीन्दोज़ कर दिया था। गदर का एक इतिहासकार लिखता है - "बच्चों को छाती से लगाये असहाय स्त्रियों को हमारी क्रूरता का शिकार बनना पड़ा। और हमारे एक अफसर ने बताया -


एक ट्रिप मैने बहुत एंज्वॉय की। हम स्टीमर पर सिखों और बन्दूकधारी सैनिकों (Fusiliers) के साथ सवार हुये। हम शहर की ओर गये। सामने-दायें-बायें हम फायर करते गये, तब तक, जब तक कि "गलत" जगह पर पंहुच नहीं गये। जब हम वापस किनारे पर लौटे, तब तक मेरी दुनाली से ही कई काले लोग खतम हो चुके थे। 


कुल मिला कर 1857 के बाद का वह समय, जब इस फांसी इमली से लोगों को फांसी दी गयी होगी, बहुत ही दर्दनाक समय रहा होगा इलाहाबाद के लिये।

हे राम! [slideshow]

[इस स्लाइड-शो में एक बोर्ड पर लिखा मोबाइल नम्बर है। मैने उन सज्जन से बात की। कोई वकील राम सिंह जी थे। उन्होने कहा कि अपने निजी प्रयास से इस इमली के पेड़ के नीचे चबूतरा बनवाया है, एक भारत माता की और एक भगत सिंह जी की मूर्तियां लगाई हैं। वे इस स्थान का उद्घाटन स्थानीय विधायक या किसी अन्य से कराने का यत्न कर रहे हैं। वे इस बात से भी छुब्ध हैं कि जहां चौक के नीम के वृक्ष, जिससे भी बहुत से लोगों को फांसी दी गयी थी, का रखरखाव होता है; प्लेक भी लगा है; वहीं यह स्थान उपेक्षित है।

यह पूछने पर कि क्या यह 1857 का इमली का वृक्ष है; श्री रामसिंह जी ने बताया कि भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जी भी इस स्थल पर आये थे, पर स्थल का रखरखाव नहीं हुआ। शायद स्थान की ऐतिहासिकता के बारे में कुछ और सामग्री जुटाने की जरूरत हो। पर यह तो है कि कई वृक्ष रहे होंगे जिनसे अंग्रेजों ने विप्लव के बाद लोगों को फांसी दी होगी, वह भी बिना किसी न्याय प्रक्रिया के। ]

19 comments:

Kajal Kumar said...

जैसे धुर उत्तर भारत में 'प्राचीन' मंदिर बनवा कर कमाई का ज़रिया चल निकला है, हो सकता है कि कल को कोई निजी उद्यमि तीर्थयात्रियों की बसों को यहां भी घुमा ले जाने का जुगाड़ बैठा कर ढेले-रेहड़ी लगाने के ठेके देने लगे... सरकारों के पास कहां फ़ुर्सत है धरोहरें संजोने की.

Nishant said...

अगर हिसाब लगायें कि किनकी गोलियों से भारतीय ज्यादा मरे तो पता चलेगा कि अंग्रेजी सेना या पुलिस के नीचे काम करनेवाले उनके 'भारतीय' चाकरों ने ही अपने मालिकों का हुक्म मानकर अपने भारतीय भाइयों का क़त्ल किया और उन्हें बर्बरता से मारा. जलियांवाला बाग़ में डायर ने एक भी गोली नहीं चलाई, उसने सिर्फ गोली चलाने का हुक्म दिया था जिसे स्वामिभक्त नौकरों ने बखूबी निभाया जबकि उसके लगभग सभी सैनिक अमृतसर के ही रहने वाले थे और उस भीड़ में उनके भी रिश्ते-नातेदार थे. भारत में किसी भी समय अंग्रेजों की कुल संख्या एक लाख से ऊपर नहीं रही जबकि भारतीय करोड़ों में थे. हम यूं ही सदियों गुलाम नहीं बने रहे.

पा.ना. सुब्रमणियन said...

फांसी इमली के बारे में जाना. अच्छा नहीं लगा परन्तु वहीँ कोई अकेला पेड़ तो नहीं रहा होगा, फांसी देने के उपयुक्त. मुझे इस प्रयोजन में कहीं स्वार्थ प्रेरित उद्यम दिख रहा है.

भारतीय नागरिक said...

कभी कभी लगता है कि किन लोगों को आजादी दिलवा गए ये अमर शहीद. क्या अपने ही लोगों के हाथों पिटने, छलने, और शोषित होने के लिए. किस किस को याद कीजिए किस किस को रोइए, आराम बड़ी चीज है मुंह ढँक के सोइए.

प्रवीण पाण्डेय said...

पता नहीं अंग्रेजों को उनकी क्रूरता से अधिक उनकी न्यायप्रियता और देश को जोड़ने के लिये जाना जाता है।

Gyandutt Pandey said...

कई इलाकों में कई पेड़ बताये जाते हैं। यहीं इलाहाबाद के चौक क्षेत्र में एक नीम का पेड़ है लोकनाथ चौराहे के पास। धीरू सिँह जी ने भी अपने इलाके में ऐसे एक पेड़ की बात कही है।

कुछ सत्य होंगे, कुछ किवदंतियां बन गये होंगे।

बाकी, रामसिंह जी किसी राजनेता को लपेटने के जुगाड़ में जरूर हैं, ऐसा उन्होने फोन पर बताया भी था!

सलिल वर्मा said...

फिल्म 'जूनून' (आपसे क्षमा सहित कोट कर रहा हूँ, क्योंकि आपको फ़िल्मी बातें अच्छी नहीं लगतीं) भी १८५७ के कार्यकाल की कहानी थी.. मूल कथा श्री रस्किन बौंड की थी.. उस फिल्म में भी ऐसा ही दृश्य फिल्माया गया है, जिसमें कई पेड़ों पर हिंदुस्तानियों को फाँसी लगी दिखाया गया है.. जिनमें बच्चे, औरतें और बुजुर्ग भी थे... बिलकुल वैसा ही दृश्य जैसा आपने फाँसी इमली के विषय में बताया है!!
बाकी का सब स्टंट की तरह लगता है, लोकल नेता और विधायक का मिला जुला स्टंट!!

Gyandutt Pandey said...

सम्भव है स्टण्ट हो। बाकी, मैने तो जैसा देखा-पढ़ा, प्रस्तुत किया। मुझे स्टण्ट का भागीदार न माना जाये! :lol:

विष्‍णु बैरागी said...

मुझे लगता है,ऐसे वृक्ष देश के अनेक कस्‍बों/नगरों में हैं। नीमच में तो ऐसे पॉंच-सात वृक्ष आज भी सडक किनारे खडे हैं - उपेक्षित, अनदेखे।

सलिल वर्मा said...

ओह!! मेरे कहने का तात्पर्य शायद गलत लिया आपने.. मैंने उन चबूतरा बनाने और बाकी सारे आडम्बरों को स्टंट कहा!! यदि कहीं ऐसा लगा हो कि मैंने आपके आलेख को स्टंट कहा हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ!! आपकी खोज तो नायाब है!!

Sandeep singh said...

श्रीमान ये स्तंत नही है, ये सच्चाई है ये पेध मेरे घर से 4 किमी की दूरी पर है.

सन्दीप सिंह चन्देल, Mundera (Allahabad)

Gyandutt Pandey said...

नहीं, मैने आपकी टिप्पणी को सही स्पिरिट में लिया था - आपने :lol: को नोटिस जरूर किया होगा! नहीं?!

हिन्दुस्तान में देश भक्ति का अभाव और देश भक्ति का दोहन - दोनो व्यापक हैं!

Gyandutt Pandey said...

इमली का ठूंठ वास्तव में बहुत पुराना लगता है। आस पास उतना बड़ा और पुराना कोई ठूंठ नही है। वह शायद बच ही इसी कारण से पाया होगा कि उसका ऐतिहासिक महत्व है। अन्यथा लोग कब का जला/कोयला बना चुके होते!

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

उत्तर प्रदेश में ऐसे पेड़ वाकई बहुत से हैं। कितने जीवित बचे हैं, इस बात पर सन्शय हो सकता है मगर अंग्रेज़ों की वापसी के बाद लम्बे समय तक घने पेड़ों पर लाशें टंगी रही थीं यह हक़ीक़त है। रामसिंह जी ने चबूतरा बनवा दिया और हम सब उनकी नीयत पर ही शक करने लगे। बहुत से लोग इस डर से भी इच्छा और क्षमता होते हुए भी ऐसे कामों से दूर ही रहते होंगे।

अनूप शुक्ल said...

हर शहर में न जाने कित्ते-कित्ते स्मारक हैं। कहां-कहां तक संजोये जायें? लोग यही सोचते होंगे।
बड़ी देशभक्त टाइप पोस्ट है। :)

आशीष श्रीवास्तव said...

जयचंदो की कमी कब रही है इस देश में !

समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार" said...

अंग्रेजों को तो जो करना था कर के चले गये और हम अब तक उन ऐतिहासिक स्थलोम को फाँसी दिये चले जा रहे हैं.

Sulabh said...

"फांसी इमली" चलिए कम से कम ये नाम तो ऐतिहासिक ही रहेगा.
आपने जो समय दिया इस जानकारी प्रद पोस्ट के लिए! धन्यवाद !!

संतोष पाण्डेय said...

वतन पे मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा.