शिवकुटी के घाट की सीढ़ियों से गंगाजी तक जाने के रास्ते में ही है उन महिलाओं का खेत। कभी एक और कभी दो महिलाओं को रेत में खोदे कुंये से दो गगरी या बाल्टी हाथ में लिये, पानी निकाल सब्जियों को सींचते हमेशा देखता हूं। कभी उनके साथ बारह तेरह साल की लड़की भी काम करती दीखती है। उनकी मेहनत का फल है कि आस पास के कई खेतों से बेहतर खेत है उनका।
पर पिछले कई दिनों से उन औरतों या उनके परिवार के किसी आदमी को नहीं देखा था खेत पर। कुंये के पास बनी झोंपड़ी भी नहीं थी अब। आज देखा तो उस खेत के पौधे सूख रहे हैं। आदमी था वहां। कान्धे पर फावड़ा रखे। खेती का निरीक्षण कर रहा था। उससे मैने पूछा कि खेती को क्या हुआ?
[caption id="attachment_5694" align="aligncenter" width="576" caption="गंगा नदी के पीछे हटने के कारण सूखते खेत में खड़ा, अपनी खेती और दिहाड़ी/नौकरी के बीच झूलता व्यक्ति।"][/caption]
बहुत वाचाल नहीं था वह, पर बताने लगा तो बता ले गया। गंगाजी इस बार उम्मीद से ज्यादा पीछे हट गयी हैं। जब खेत बनाया था तो कमर तक (ढाई-तीन फिट) खोदने पर पानी आ गया था। अब पानी नीचे चला गया है। उसने अपना हाथ उठा कर बताया कि पानी इतना नीचे (लगभग सात-आठ फिट) पर मिल रहा है। सिंचाई भारी पड़ रही है। औरतों के बस की नहीं रही। वह स्वयम इतना समय दे नहीं पा रहा - काम पर भी जाना होता है। काम पर न जाये तो 300 रुपये रोज की दिहाड़ी का नुक्सान है।
कुल मिला कर अपेक्षा से कहीं अधिक गंगाजी के और सिमट जाने और खेत में काम करने वालों की कमी के कारण खेती खतम हो रही है। उसने बताया - कोंहड़ा तो अब खतम ही मानो। लौकी बची है - वह उस हिस्से में है जो गंगाजी की जल धारा के करीब है।
मैने उस व्यक्ति से डीजल पम्प के जरीये पानी देने के विकल्प की बात की। पर उसका कोई सीधा उत्तर नहीं दिया उसने। लगा कि यह विकल्प उसके पास उपलब्ध है ही नहीं।
ऐसा नहीं कि सभी के खेत सूख रहे हों। कुछ लोग हार बैठे हैं, कुछ रेत के कुओं को और गहरा कर मिट्टी के घड़ों से सींचने में लगे हैं और कुछ ने डीजल पम्प से सिंचाई करने या (गंगा में मिलने जा रहे) नाले के पानी को मोड़ कर सिंचाई करने के विकल्प तलाश लिये हैं।
सब्जियों की कैश क्रॉप और दिहाड़ी/नौकरी के बीच झूलता वह व्यक्ति! मुझे उससे सहानुभूति हुई। पर सांत्वना के रूप में क्या कहूं, यह समझ नहीं आया। सिर्फ यही कह पाया कि चलिये, अपनी लौकी की फसल को देखिये।
[caption id="attachment_5695" align="aligncenter" width="576" caption="पानी की कमी से बरबाद हुआ कोंहड़े का खेत।"][/caption]
13 comments:
ओह
कितना मुश्किल है काम किसानी का
कुदरत के कोप !
जब जीवन निर्णयों की पतली धार पर चलता हो तो, क्या करें, क्या न करें, यह निर्णय करना कठिन हो जाता है।
लौकी अभी भी २५-३० रुपये किलो है.बैंगन भी २५ रुपये. किसान का भाग्य ही खराब है जो आजतक न तो उसे स्टोरेज मिला, न सस्ता और लंबी अवधि का कर्ज, न सड़कें और न ही अपनी फसल का दाम तय करने का अधिकार. सब बिचौलिए कर रहे हैं और मौज में हैं. कृषि आय पर टैक्स न लगाना भी एक षडयंत्र ही समझिए. अभी टैक्स लगने लगे तो खेती से होने वाली आय भी कम होने लगेगी. लेकिन जय हो. आज भी किसान अपनी हड्डियां गलाता है और हमें खिलाता है.
दिल्ली में आ कर बेचें दोनो पचास रु. किलो । पर सचमुच दुख हुआ कि गंगाजी भी गरीब का दुख नही समझतीं ।
Ek Dilli Hai....Yahan Saari Sabziyan (Na Jaane Kis Vidhi Ke Parinaamswaroop) poore saal usi matra mein uplabdh rehti hain. Aur saari ki saari ek jaisa swaad deti hain...kya gobhi kya gajar aur kya lauki!
निजाम ने सब्सिडी कम की उर्वरक पर , गंगा जी दूर गई . चारो तरफ से मरे है किसान. अब घुइंया ही बची है किसान के लिए . अफसोसजनक . .
मार्मिक किंतु सत्य।
धीरे-धीरे कम होता जा रहा है धरती का जल स्तर। धीरे-धीरे लोग होते जा रहे हैं बे पानी।
प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहने वालों के लिये भाग्य हमेशा ही कठोर रहा है, और हरेक व्यक्ति के जीवन में जीवन की प्राथमिकता, समय और कठोर निर्णय लेने के पल आते ही हैं। वह व्यक्ति कार्य कर सकता है परंतु मजबूरी यह है कि दिहाड़ी भी कमाना जरूरी है।
बहुत ही चिन्ताजनक चित्रण है। गंगाजी धीरे-धीरे दूर होती जा रही हैं। यह आगत की आहट तो नहीं?
किसान के लिए कितना मुश्किल है किसान बने रहना या फिर मजदूर बन जाने को बाध्य होना..! पानी के अभाव में बेभाव में बर्बाद होती सब्जियाँ!! दुखद!!
behad dukhad
अफसोस- सारी मेहनत बेकार गई.
Post a Comment