मेरे इन्स्पेक्टर श्री एस पी सिंह मेरे साथ थे और दिल्ली में मेरे पास डेढ़ घण्टे का खाली समय था। उनके साथ मैं निर्माण भवन के आसपास टहलने निकल गया। रेल भवन के पास ट्रेफिक पुलीस वाले की अन-सिविल भाषा में सलाह मिली कि हम लोग सीधे न जा कर मौलाना आजाद मार्ग से जायें। और पुलीस वाला हाथ दे तो उसकी सुनें।
सुनें, माई फुट। पर मैने सुना। उस दिन वाटर कैनन खाते दिल्ली वाले भी सुन रहे थे। हे दैव, अगले जनम मोंहे की जो दारोगा!
निर्माण भवन जाने के लिये हम नेशनल आर्काइव के सामने से गुजरे। बत्तीस साल पहले मैं निर्माण भवन में असिस्टेण्ट डायरेक्टर हुआ करता था। तब इन जगहों पर खूब पैदल चला करता था। निर्माण भवन से बस पकड़ने के लिये सेण्ट्रल सेक्रेटेरियट के बस टर्मिनल तक पैदल जाया करता था रोज। करीब दस बारह किलोमीटर रोज की पैदल की आदत थी पैरों की। अब आदत नहीं रही।
मैं जाने अनजाने पहले और अब के समय की तुलना करने लगा। दफ्तरों में आती जाती स्त्रियां पहले से बदल गयी थीं। पहले एक दो ही दीखती थीं पैण्ट पहने। अब हर तीन में से दो जीन्स में थीं। परिधान बदल गये थे, मैनरिज्म बदल गये थे। पहले से अधिक भी थीं वे इन जगहों पर। और हर व्यक्ति मोबाइल थामे था। बत्तीस साल पहले फोन इक्का दुक्का हुआ करते थे। निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर एक पोलियोग्रस्त व्यक्ति पैन कार्ड बनाने की सेवा की तख्ती लगाये मोबाइल पर किसी से बतिया रहा था। "आप समझो कि परसों पक्के से मिल जायेगा। आप इसी नम्बर पर मुझसे कन्फर्म कर आ जाईयेगा।" एक मोबाइल होने से यह बिजनेस वह कर पा रहा था। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी बत्तीस साल पहले।
[caption id="attachment_6603" align="aligncenter" width="459"] पैन कार्ड बनाने की फुटपाथिया दुकान चलाता विकलांग व्यक्ति।[/caption]
निर्माण भवन के पास पहले सुनहरी मस्जिद की एक चाय की दुकान हुआ करती थी, जहां हम घर से आते ही चाय और समोसे का नाश्ता करते थे। दिन का यह पहला आहार हुआ करता था। हम तीन-चार नये भरती हुये अधिकारी थे। सभी अविवाहित। एक एक कमरा किराये पर ले अलग जगह रहते थे और भोजन की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी। सरकार की 700-1300 की स्केल में हजार रुपये से कम ही मिलती थी तनख्वाह। उतने में रोज अच्छे होटल में नहीं खाया जा सकता था। मैं सवेरे और दोपहर का खाना इधर उधर खाता था और रात में अपने कमरे पर चावल में सब तरह की सब्जी/दाल मिला कर तहरी या खिचड़ी खाया करता था।
[caption id="attachment_6605" align="aligncenter" width="277"] निर्माण भवन की इमारत।[/caption]
साथ में चलते एसपी सिंह जी ने पूछ लिया - ऊपरी कमाई के बिना भी जिन्दगी चल सकती है? मेरी आंखों में किसी कोने में पुरानी यादों से कुछ नमी आई। हां, जरूरतें न बढ़ाई जायें तो चल ही सकती है। तब भी चल गई जब सरकारी नौकरी में तनख्वाह बहुत कम हुआ करती थी। मैने आदर्शवाद को सलीब की तरह ढोया, और कभी कभी जब फैंकने का मन भी हुआ तो पता चला कि उनको उठाने के ऐसे अभ्यस्त हो चले हैं कन्धे कि उनके बिना अपनी पहचान भी न रहेगी! सो चल गया और अब तो लगभग चल ही गया है - कुछ ही साल तो बचे हैं, नौकरी के।
निर्माण भवन के पास पैदल न घूम रहा होता तो यह सब याद भी न आता।
[caption id="attachment_6606" align="aligncenter" width="463"] निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठा एक मोची। बत्तीस साल पहले से अब में मोची नहीं बदले! या बदले होंगे?[/caption]
19 comments:
This is great, we are know for oulture and immotional values.
Jai Hind
" मैने आदर्शवाद को सलीब की तरह ढोया, और कभी कभी जब फैंकने का मन भी हुआ तो पता चला कि उनको उठाने के ऐसे अभ्यस्त हो चले हैं कन्धे कि उनके बिना अपनी पहचान भी न रहेगी! "
यही बात असल है। आज के समय में भी किसी व्यक्ति के आदर्श, उसूल ही उसकी पहचान कायम करते/रखते हैं। पुराने और नए की तुलना में दोनों बातें सामने आती है, तब वैसा था अब ऐसा है, और यह भी कि तब अच्छा/बुरा था, अब अच्छा/बुरा है। समय बदलाव के चिन्ह हर चीज/बात पर छोड़ता जाता है।
रेल भवन वाले निर्माण भवन कम ही आते हैं :)
हमें पहले बताते तो आपको बाहर वाले स्टाल की चाय पिलाते ...
यादें कीमती होती हैं !
शुभकामनाएं आपको !
प्रारम्भ में तनिक लोभ संवरण कर लिया जाये तो जीवन निर्बाध निकल जाता है...पुराने दिन सोहते हैं..२० साल पहले जहाँ नौकरी की, वहाँ जाकर अच्छा लगा था।
ऊपरी कमाई के बिना भी जिन्दगी चल सकती है?
इसके आगे सारे सवाल ही ख़त्म...
अच्छा संस्मरण। आदर्शवाद को सलीब की तरह ढोने वाली बात से मजबूरी या फ़िर शहादत का बोध होता है। मुझे नहीं लगता कि सरकारी नौकरी में तन्ख्वाहें कभी इतनी कम रहीं कि गुजारे के लिये मुश्किलें हों।
देश की अर्थव्यवस्था को उजागर करने वाली दुकान.
Life goes on. So much time has passed before one realises-only when one passes through a memory lane. A post which touches the heart, and makes us aware of changing world around us except some steadfast pillars like Mochee jee ki dukan & gyandutt babu!
अतीत के गलियारों में इस तरह की चहल-कदमी का सुख व्यक्त कर पाना अपने आप में सुखद होता है।
लगता है, कहीं कुछ गडबड है। पोस्ट करने के बाद भी मेरी टिप्पणी प्रकाशित
नहीं हो रही।
विष्णु बैरागी।
टिप्पणियां मॉडरेशन के कारण पब्लिश तुरत नहीं होती हैं। वैसे अभी तक वर्डप्रेस ने टिप्पणियां गायब करने का काम किया नहीं है!
isi jagah ke aas paas kai yaade hamari bhi judi hai .
aaj kal ek prashn mujhe pareshaan kar raha hai .kitana paisa ,samptti chahiye ek jindgi mein
बहुत कुछ इसपर निर्भर करता है कि आप का वर्तमान जीवन स्तर कैसा है। उस जीवन स्तर में ज्यादा हेर फेर सम्भव नहीं होता। ...
भ्रष्ट तन्त्र बदल जाये तो अवश्य हर व्यक्ति आराम से जी सकता है-मर सकता है.
aadmee ko vetan me jitanaa milataahai utane me santushta hojaay to parama sukha milegaa
>> और हर व्यक्ति मोबाइल थामे था। बत्तीस साल पहले फोन इक्का दुक्का हुआ करते थे।
मेरे ख्याल से मोबाइल फोन तब भारत में नहीं थे। :)
फोन होते थे, वो भी मोटे और गोल डायल वाले। किर्र किर्र कर डायल होता था! :-)
जी हाँ, मैंने प्रयोग किया है, रोटरी डायल वाला फोन। उस समय प्रायः रांग नंबर लगता था। :)
संस्मरण रोचक रहा.
Post a Comment