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Wednesday, February 6, 2013

बत्तीस साल पहले की याद।

मेरे इन्स्पेक्टर श्री एस पी सिंह मेरे साथ थे और दिल्ली में मेरे पास डेढ़ घण्टे का खाली समय था। उनके साथ मैं निर्माण भवन के आसपास टहलने निकल गया। रेल भवन के पास ट्रेफिक पुलीस वाले की अन-सिविल भाषा में सलाह मिली कि हम लोग सीधे न जा कर मौलाना आजाद मार्ग से जायें। और पुलीस वाला हाथ दे तो उसकी सुनें

सुनें, माई फुट। पर मैने सुना। उस दिन वाटर कैनन खाते दिल्ली वाले भी सुन रहे थे। हे दैव, अगले जनम मोंहे की जो दारोगा!

निर्माण भवन जाने के लिये हम नेशनल आर्काइव के सामने से गुजरे। बत्तीस साल पहले मैं निर्माण भवन में असिस्टेण्ट डायरेक्टर हुआ करता था। तब इन जगहों पर खूब पैदल चला करता था। निर्माण भवन से बस पकड़ने के लिये सेण्ट्रल सेक्रेटेरियट के बस टर्मिनल तक पैदल जाया करता था रोज। करीब दस बारह किलोमीटर रोज की पैदल की आदत थी पैरों की। अब आदत नहीं रही।

मैं जाने अनजाने पहले और अब के समय की तुलना करने लगा। दफ्तरों में आती जाती स्त्रियां पहले से बदल गयी थीं। पहले एक दो ही दीखती थीं पैण्ट पहने। अब हर तीन में से दो जीन्स में थीं। परिधान बदल गये थे, मैनरिज्म बदल गये थे। पहले से अधिक भी थीं वे इन जगहों पर। और हर व्यक्ति मोबाइल थामे था। बत्तीस साल पहले फोन इक्का दुक्का हुआ करते थे। निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर एक पोलियोग्रस्त व्यक्ति पैन कार्ड बनाने की सेवा की तख्ती लगाये मोबाइल पर किसी से बतिया रहा था। "आप समझो कि परसों पक्के से मिल जायेगा। आप इसी नम्बर पर मुझसे कन्फर्म कर आ जाईयेगा।" एक मोबाइल होने से यह बिजनेस वह कर पा रहा था। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी बत्तीस साल पहले।

[caption id="attachment_6603" align="aligncenter" width="459"]पैन कार्ड बनाने की फुटपाथिया दुकान चलाता विकलांग व्यक्ति। पैन कार्ड बनाने की फुटपाथिया दुकान चलाता विकलांग व्यक्ति।[/caption]

निर्माण भवन के पास पहले सुनहरी मस्जिद की एक चाय की दुकान हुआ करती थी, जहां हम घर से आते ही चाय और समोसे का नाश्ता करते थे। दिन का यह पहला आहार हुआ करता था। हम तीन-चार नये भरती हुये अधिकारी थे। सभी अविवाहित। एक एक कमरा किराये पर ले अलग जगह रहते थे और भोजन की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी। सरकार की 700-1300 की स्केल में हजार रुपये से कम ही मिलती थी तनख्वाह। उतने में रोज अच्छे होटल में नहीं खाया जा सकता था। मैं सवेरे और दोपहर का खाना इधर उधर खाता था और रात में अपने कमरे पर चावल में सब तरह की सब्जी/दाल मिला कर तहरी या खिचड़ी खाया करता था।

[caption id="attachment_6605" align="aligncenter" width="277"]निर्माण भवन की इमारत। निर्माण भवन की इमारत।[/caption]

साथ में चलते एसपी सिंह जी ने पूछ लिया - ऊपरी कमाई के बिना भी जिन्दगी चल सकती है? मेरी आंखों में किसी कोने में पुरानी यादों से कुछ नमी आई। हां, जरूरतें न बढ़ाई जायें तो चल ही सकती है। तब भी चल गई जब सरकारी नौकरी में तनख्वाह बहुत कम हुआ करती थी। मैने आदर्शवाद को सलीब की तरह ढोया, और कभी कभी जब फैंकने का मन भी हुआ तो पता चला कि उनको उठाने के ऐसे अभ्यस्त हो चले हैं कन्धे कि उनके बिना अपनी पहचान भी न रहेगी! सो चल गया और अब तो लगभग चल ही गया है - कुछ ही साल तो बचे हैं, नौकरी के।

निर्माण भवन के पास पैदल न घूम रहा होता तो यह सब याद भी न आता।

[caption id="attachment_6606" align="aligncenter" width="463"]निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठा एक मोची। बत्तीस साल पहले से अब में मोची नहीं बदले! या बदले होंगे? निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठा एक मोची। बत्तीस साल पहले से अब में मोची नहीं बदले! या बदले होंगे?[/caption]

Wednesday, October 31, 2012

कन्नन

[caption id="attachment_6369" align="alignright" width="240"] श्री कन्नन[/caption]

कन्नन मेरे साथ चेन्नै में मेरे गाइड और सहायक दिये गये थे।

छब्बीस और सताईस अक्तूबर को भारतीय रेलवे के सभी १६ जोनल रेलवे के चीफ माल यातायात प्रबंधकों की बैठक थी। उस बैठक के लिये उत्तर-मध्य रेलवे का मैं प्रतिनिधि था। मेरे स्थानीय सहायक थे श्री कन्नन।

दक्षिण में भाषा की समस्या होती है उत्तरभारतीय के लिये। वह समस्या विकटतम होती है तमिळनाडु में। श्री कन्नन यद्यपि हिन्दी में पर्याप्त “छटपट” नहीं थे। पर मेरा और मेरी पत्नीजी का काम सरलता से चल गया।

कन्नन तेरुनलवेलि जिले के मूल निवासी थे पर बहुत अर्से से चेन्नै के पास चेंगलपेट में अपनी जमीन ले कर घर बना कर रह रहे हैं। रोज वहीं से दक्षिण रेलवे मुख्यालय में वैगन मूवमेण्ट इन्स्पेक्टर की नौकरी करने आते हैं। वे फ्रेट इन्फॉर्मेशन सिस्टम में वैगन के आंकड़ों का रखरखाव का काम देखते हैं। उनकी रेलवे पर कितने वैगन हैं। कितने नये आ रहे हैं, कितने कण्डेम हो कर निकाले जाने हैं वैगन मास्टर में – ये सब उनके कार्य क्षेत्र में आता है।

जब मीटिंग सत्ताईस अक्तूबर को समाप्त हो गयी तो दोपहर तीन बजे के बाद हमारे पास चार पांच घण्टे बचे जिसमें आसपास देखा जा सके। उसमें मैने चेन्नै से पचास-साठ किलोमीटर दूर मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) जाना चुना। उस यात्रा के बारे में मैं पहले ही लिख चुका हूं।

वहां के रास्ते में मैने यूं ही कन्नन से पूछ लिया – आप किसके समर्थक हैं? कलईग्नार करुणानिधि के या जे जयललिता के? डीएमके के या अन्ना डीएमके के?

कन्नन का बहुत स्पष्ट उत्तर था – सार, आई डोण्ट हैव फेथ इन ऐनी ऑफ देम। दे आर आल द सेम। (सर मुझे उनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं है। वे सब एक जैसे हैं।) कन्नन जैसा राजनैतिक मोहभंग इस समय अनेकानेक भारतीय महसूस कर रहे हैं।

उन्होने सोचा कि उनका उत्तर शायद काफी ब्लण्ट था। “सॉरी सार, अगर आपको ठीक न लगा हो।”

मैने कहा – नहीं, इसमें खराब लगने की क्या बात है। बहुत से भारतीय ऐसा सोच रहे हैं।

कन्नन स्वयम् प्रारम्भ हो गये:
सर, मैं अपने काम से काम रखता हूं। अढ़तालीस किलोमीटर दूर से दफ्तर आता हूं और कभी दफ्तर आने में कोताही नहीं की। समय से पहले दफ्तर आने के लिये एक घण्टा पहले घर से निकलता हूं। छुट्टी नहीं करता। मेरी ज्यादा तर कैजुअल लीव लैप्स होती हैं।

- सर, मैने अपनी शादी में सौ रुपया दहेज भी नहीं लिया। इसके बहुत खिलाफ हूं। शादी के बाद मेरे दो लड़के हुये। उसके बाद मैने दो लड़कियां गोद ली हैं। सर, आजकल लोग जन्म लेते ही या जन्म लेते ही या जन्म के पहले ही लड़कियों को मार रहे हैं। मैने सोचा उस सोच का विरोध करने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता कि लड़कियां गोद ली जायें।

मैं कन्नन के कहने से गद्गद् हो गया। हम महानता के बड़े बड़े रोल मॉडल ढूंढ़ते हैं। यहां एक रेलवे के निरीक्षक हैं जो शानदार रोल माडल हैं। उस क्षण से कन्नन के प्रति मेरा पैराडाइम बदल गया!

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कन्नन ने हमें मामल्लपुरम दिखाया – पूरे मनोयोग से एक एक स्थान। समुद्र किनारे मैं जाने को उत्सुक नहीं था। पर वे बड़े आग्रह से हमें वहां ले कर गये। समुद्र की लहरों में हिलाया। मामल्लपुरम के समुद्र की लहरों में खड़े होने और सीशोर मन्दिर देखने का आनन्द कन्नन की बदौलत मिला, जो अन्यथा मैं न लेता/ ले पाता।

हमने मामल्लपुरम में कन्नन से विदा ली। मैं उनसे गले मिला। एक छोटी सी भेंट का आदानप्रदान किया। और पूरी चैन्ने वापसी में उनके प्रति मन में एक अहोभाव बना रहा।

कन्नन जी को नहीं भूलूंगा मैं!

Thursday, October 4, 2012

माधव सदाशिव गोलवलकर और वर्गीज़ कुरियन

[caption id="attachment_6221" align="alignright" width="195"] 'I Too Had a Dream' by Verghese Kurien[/caption]

वर्गीज़ कुरियन की पुस्तक – ’आई टू हैड अ ड्रीम’ में एक प्रसंग माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी” के बारे में है। ये दोनों उस समिति में थे जो सरकार ने गौ वध निषेध के बारे में सन् १९६७ में बनाई थी। इस समिति ने बारह साल व्यतीत किये। अन्त में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व के दौरान यह बिना किसी रिपोर्ट बनाये/पेश किये भंग भी हो गयी।

मैं श्री कुरियन के शब्द उठाता हूं उनकी किताब से -

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पर एक आकस्मिक और विचित्र सी बात हुई हमारी नियमित बैठकों में। गोलवलकर और मैं बड़े गहरे मित्र बन गये। लोगों को यह देख कर घोर आश्चर्य होता था कि जब भी गोलवलकर कमरे में मुझे आते देखते थे, वे तेजी से उठ कर मुझे बाहों में भर लेते थे। …


गोलवलकर छोटे कद के थे। बमुश्किल पांच फीट। पर जब वे गुस्सा हो जाते थे तो उनकी आंखें आग बरसाती थीं। जिस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया वह थी उनका अत्यन्त देशभक्त भारतीय होना। आप यह कह सकते हैं कि वे अपनी ब्राण्ड का राष्ट्रवाद फैला रहे थे और वह  भी गलत तरीके से, पर आप उनकी निष्ठा पर कभी शक नहीं कर सकते थे। एक दिन जब उन्होने पूरे जोश और भावना के साथ बैठक में गौ वध का विरोध किया था, वे मेरे पास आये और बोले – कुरियन, मैं तुम्हें बताऊं कि मैं गौ वध को इतना बड़ा मुद्दा क्यों बना रहा हूं?


मैने कहा, हां आप कृपया बतायें। क्यों कि, अन्यथा आप बहुत बुद्धिमान व्यक्ति हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?




[caption id="attachment_6220" align="alignleft" width="258"] माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी’[/caption]

"मैने गौ वध निषेध पर अपना आवेदन असल में सरकार को परेशानी में डालने के लिये किया था।’ उन्होने मुझे अकेले में बताना शुरू किया। "मैने निश्चय किया कि मैं दस लाख लोगों के हस्ताक्षर एकत्रित कर राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा। इस सन्दर्भ में मैने देश भर में यात्रायें की; यह जानने के लिये कि हस्ताक्षर इकठ्ठे करने का काम कैसे चल रहा है। इस काम में मैं उत्तर प्रदेश के एक गांव में गया। वहां मैने देखा कि एक महिला ने अपने पति को भोजन करा कर काम पर जाने के लिये विदा किया और अपने दो बच्चों को स्कूल के लिये भेज कर तपती दुपहरी में घर घर हस्ताक्षर इकठ्ठा करने चल दी। मुझे जिज्ञासा हुई कि यह महिला इस काम में इतना श्रम क्यों कर रही है? वह बहुत जुनूनी महिला नहीं थी। मैने सोचा तब भान हुआ कि यह वह अपनी गाय के लिये कर रही थी – जो उसकी रोजी-रोटी थी। तब मुझे समझ आया कि गाय में लोगों को संगठित करने की कितनी शक्ति है।"


"देखो, हमारे देश का क्या हाल हो गया है। जो विदेशी है, वह अच्छा है। जो देशी है वह बुरा। कौन अच्छा भारतीय है? वह जो कोट-पतलून पहनता है और हैट लगाता है। कौन बेकार भारतीय है? वह जो धोती पहनता है। वह देश जो अपने होने में गर्व नहीं महसूस करता और दूसरों की नकल करता है, वह कैसे कुछ बन सकता है? तब मुझे लगा कि गाय में देश को एक सूत्र में बांधने की ताकत है। वह भारत की संस्कृति का प्रतीक है। इस लिये कुरियन इस समिति में तुम मेरी गौ वध विरोध की बात का समर्थन करो तो भारत पांच साल में संगठित हो सकता है। … मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि गौ वध निषेध की बात कर मैं मूर्ख नहीं हूं, और न ही मैं धर्मोन्मादी हूं। मै  ठण्डे मन से यह कह रहा हूं – मैं गाय का उपयोग अपने लोगों की भारतीयता जगाने में करना चाहता हूं। इस लिये इस काम में मेरी सहायता करो।"


खैर, मैने गोलवलकर की इस बात से न तो सहमति जताई और न उस समिति में उनका समर्थन किया। पर मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि वे अपने तरीके से लोगों में भारतीयता और भारत के प्रति गर्व जगाना चाह रहे थे। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ये वह गोलवलकर थे, जिन्हे मैने जाना। लोगों ने उन्हे महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने वाला कहा, पर मैं इस में कभी यकीन नहीं कर पाया। मुझे वे हमेशा एक ईमानदार और स्पष्टवक्ता लगे और मुझे यह हमेशा लगता रहा कि अगर वे एक कट्टरवादी हिन्दू धर्मोन्मादी होते तो वे कभी मेरे मित्र नहीं बन सकते थे।


अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों में, जब वे बीमार थे और पूना में थे, तो उन्होने देश भर से राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के राज्य प्रमुखों को पूना बुलाया। वे जानते थे कि वे जाने वाले हैं। जब उनका देहावसान हो गया तब कुछ दिनों बाद मेरे दफ्तर में उनमें से एक सज्जन मुझसे मिलने आये। "श्रीमान् मैं गुजरात का आरएसएस प्रमुख हूं", उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा – "आप जानते होंगे कि गुरुजी अब नहीं रहे। उन्होने हम सब को पूना बुलाया था। जब मैने बताया कि मैं गुजरात से हूं तो उन्होने मुझसे कहा कि “वापस जा कर आणद जाना और मेरी ओर से कुरियन को विशेष रूप से मेरा आशीर्वाद कहना।” मैं आपको गुरुजी का संदेश देने आया हूं।"


मैं पूरी तरह अभिभूत हो गया। उन्हे धन्यवाद दिया और सोच रहा था कि वे सज्जन चले जायेंगे। पर वे रुके और कहने लगे – "सर, आप ईसाई हैं। पर गुजरात में सभी लोगों में से केवल आपको ही अपना आशीर्वाद क्यों भेजा होगा गुरुजी ने?"


मैने उनसे कहा कि आपने यह गुरुजी से क्यों नहीं पूछा? मैं उन्हे कोई उत्तर न दे सका, क्यों कि मेरे पास कोई उत्तर था ही नहीं!







श्री कुरियन की पुस्तक का यह अंश मुझे बाध्य कर गया कि मैं अपनी (जैसी तैसी) हिन्दी में उसका अनुवाद प्रस्तुत करूं। यह अंश गोलवलकर जी के बारे में जो नेगेटिव नजरिया कथित सेकुलर लोग प्रचारित करते हैं, उसकी असलियत दिखलाता है।

उस पुस्तक में अनेक अंश हैं, जिनके बारे में मैंने पुस्तक पढ़ने के दौरान लिखना या अनुवाद करना चाहा। पर वह करने की ऊर्जा नहीं है मुझमें। शायद हिन्दी ब्लॉगिंग का प्रारम्भिक दौर होता और मैं पर्याप्त सक्रिय होता तो एक दो पोस्टें और लिखता। फिलहाल यही अनुंशंसा करूंगा कि आप यह पुस्तक पढें।

मेरा अपना मत है कि साठ-सत्तर के दशक में भारतीय समाज को गाय के मुद्दे पर एक सूत्र में बांधा जा सकता था। अब वह स्थिति नहीं है। अब गाय या गंगा लोगों को उद्वेलित नहीं करते।

[कुरियन गौ वध निषेध के पक्षधर नहीं थे। वे यह मानते थे कि अक्षम गायों को हटाना जरूरी है, जिससे (पहले से ही कम) संसाधनों का उपयोग स्वस्थ और उत्पादक पशुओं के लिये हो सके; जो डेयरी उद्योग की सफलता के लिये अनिवार्य है। हां, वे उत्पादक गायों के वध निषेध के पक्ष में स्टेण्ड लेने को तैयार थे।]

Tuesday, July 17, 2012

कारू मामा की कचौरी

कल सवेरे मंसूर अली हाशमी जी रतलाम स्टेशन पर मिलने आये थे, तो स्नेह के साथ लाये थे मिठाई, नमकीन और रतलाम की कचौरियां। मैं अपनी दवाइयों के प्रभाव के कारण उदर की समस्या से पीड़ित था, अत: वह सब खोल कर न देखा। शाम के समय जब विष्णु बैरागी जी मिले तो उन्होने अपने “बतरस” में मुझे स्पष्ट किया कि हाशमी जी कारू राम जी की कचौरियां दे गये हैं और जानना चाहते हैं कि मुझे कैसी लगीं?

[caption id="attachment_5863" align="alignleft" width="584"] मंसूरअली हाशमी जी मुझसे मिलने आये। उनके मोबाइल से लिया चित्र जो मैने फेसबुक से डाउनलोड कर टच-अप किया है।[/caption]

कारूराम जी की कचौरियों के बारे में उन्होने बताया कि रतलाम में कसारा बाजार में कारू राम जी की साधारण सी दुकान है। कारूराम जी (कारूमामा या कारू राम दवे) समाजवादी प्राणी थे। उन्हे लोगों को बना कर खिलाने में आनन्द आता था। सत्तर के दशक की घटना बैरागी जी बता रहे थे कि २५ कचौरियां-समोसे मांगने पर कारूमामा ने तेज स्वरों में उनको झिड़क दिया था – “देख, ये जो कचोरियां रखी हैं न, वे एक दो कचौरी लेने वाले ग्राहकों के लिये हैं, पच्चीस एक साथ ले जाने वाले ग्राहक के लिये नहीं। तू भाग जा!”

[caption id="attachment_5862" align="alignleft" width="584"] हाशमी जी की लाई कारू मामा की कचौरी और समोसा।[/caption]

अनुमान लगाया जा सकता है कि कारू मामा कैसे दुकानदार रहे होंगे। बैरागी जी ने बताया कि अब कारू मामा की अगली पीढ़ी के लोग उन्ही उसूलों पर अपनी दुकान चला रहे हैं। उनकी दुकान पर जा कर लगता है कि पच्चीस पचास साल पीछे चले गये हैं काल-खण्ड में।

कैसे रहे होंगे कारू मामा? बैरागी जी की मानें तो अक्खड़ थे, कड़वा भी बोलते थे, पर लोग उस कड़वाहट के पीछे सिद्धान्तों पर समर्पण और स्नेह समझते थे। पैसा कमाना उनका ध्येय नहीं था – वे आटे में नमक बराबर कमाई के लिये दुकान खोले थे – दुकान से घाटा भी नहीं खाना था, पर दुकान से लखपति (आज की गणना में करोड़पति) भी नहीं बनना था।

अच्छा हुआ, मंसूर अली हाशमी जी कारू मामा की कचौरी (और समोसे) ले कर आये। अन्यथा इतने वर्षों रतलाम में रहने पर भी उन जैसी विभूति के बारे में पता नहीं चला था और अब भी न चलता…

कचौरी कैसी थीं? मेरी पत्नीजी का कहना है कि रतलाम में बहुत दुकानों की कचौरियां खाई हैं। यह तो उन सबसे अलग, सब से बढ़िया थीं। भरे गये मसाले-पीठी में कुछ बहुत खास था…

[caption id="attachment_5861" align="alignleft" width="584"] मुझसे शाम के समय मिलने आये श्री विष्णु बैरागी जी।[/caption]

Wednesday, May 9, 2012

मोहिन्दर सिंह गुजराल

रेलवे का कोई अधिकारी और विशेषत: रेलवे यातायात सेवा का अधिकारी स्वप्न देखता है अपने काम में श्री मोहिन्दर सिंह गुजराल की बराबरी करने का। श्री गुजराल भारतीय रेलवे के अध्यक्ष थे 1980-83  के समय। उससे पहले वे पश्चिम रेलवे के महाप्रबन्धक थे।

सन 1980 का समय कठिन था। श्रीमती गांधी ने आर्थिक सुधार के लिये कुछ पहल की थी। रेलवे से अपेक्षायें थीं। रेलवे की मालढुलाई का स्टॉक विविध प्रकार का था। मालगाड़ियां ज्यादा लम्बी दूरी तय नहीं कर पाती थीं। जितना वे चलती थीं, उससे ज्यादा समय मार्शलिंग यार्डों में बिताती थीं!

गुजराल जी ने अध्यक्ष बनने पर अपनी पुरानी ख्याति के अनुरूप चमत्कारिक परिवर्तन किये। माल गाड़ियां लम्बी दूरी तय करने लगीं। वैगनों की उपलब्धता में चमत्कारिक सुधार हुआ और उसके फलस्वरूप रेलवे का लदान/आमदनी में आशातीत विस्तार हुआ।

जब मैने रेलवे ज्वाइन की तब श्री गुजराल रेल सेवा से निवृत्त हो चुके थे। मैं उनसे एक बार मिला हूं। उस समय मैं कोटा रेल मण्डल का वरिष्ठ मण्डल परिचालन प्रबन्धक था। श्री गुजराल पास के गड़ेपान/भौंरा के चम्बल फर्टिलाइजर के सलाहकार थे। वे हमारे मण्डल रेल प्रबन्धक महोदय से मिलने आये थे। चूंकि उनकी चर्चा में चम्बल फर्टिलाइजर का यूरिया परिवहन का मुद्दा होना था, मण्डल रेल प्रबन्धक महोदय ने मुझे बुला लिया था बैठक के लिये।

उस समय मेरे सामने भी चम्बल फर्टीलाइजर के लदान के लिये वैगनों की किल्लत हुआ करती थी। मैं छोटी दूरी के यातायात के लिये कोटा की वैगन वर्कशाप से निकले किसी भी तरह के खुदरा वैगनों की रेल बना कर उनको लदान के लिये दे दिया करता था। वह रेक शिवजी की बारात सरीखी लगती थी - कोई कवर्ड, कोई खुला, कोई मिलीटरी के वाहन लादने वाला और कोई शेरपा वैगन! पर जो भी वैगन मिलता, चम्बल फर्टीलाइजर वाले लोड करते थे।

मुझे लगा कि यह रेलवे यातायात की स्थापित विज्डम के खिलाफ था, अत: गुजराल महोदय अपनी अप्रसन्नता जरूर जाहिर करेंगे। यद्यपि वे रिटायर हो चुके थे, हम सब के मन में उनकी बहुत इज्जत थी। कुछ खौफ भी था।

खैर, गुजराल जी ने कोई अप्रसन्नता जाहिर नहीं की और जहां तक मुझे याद आता है, मेरी प्रशंसा ही की।

पर थे बड़े पक्के सरदार जी। जाते जाते मुझे कोने में बुला कर धीरे से बोले - काका (बच्चे), भौंरा के यार्ड में एक वैगन तीन महीने से पड़ा है, जरा देख लेना!

गुजराल अगर रेल सेवा में होते तो तीन महीने से अनाथ पड़े वैगन की बात पर अधिकारियों की ऐसी तैसी कर देते...

खैर, मैं सन 1996 में उनसे हुई यह मुलाकात सदैव याद रखूंगा।

गत चार मई को श्री गुजराल का निधन हो गया है। आज जो रेलवे की दशा है, उसमें एक नये गुजराल की सख्त जरूरत है।

श्री महिन्दर सिंह गुजराल को हृदय से श्रद्धांजलि।

(आप बिजनेस स्टेण्डर्ड में यह लेख पढ़ें।)