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Sunday, May 19, 2013

"मोदी पसन्द है। पर लोग उसे बनने नहीं देंगे!"

लोकभारती में कल सयास गया। दफ़्तर से लौटते समय शाम के सात बज जाते हैं। सिविल लाइन्स से उस समय गुजरते हुये मैने हमेशा लोकभारती को बन्द पाया। इस बीच पुस्तकें खरीदने का काम भी इण्टरनेट के माध्यम से चला। अत: लोकभारती गये सात आठ महीने हो गये थे।

कुछ दिन पहले द हिन्दू में पढ़ा कि मुंशी प्रेमचन्द की विरासत संभाले हुये दो तीन लोग हैं। उनमें से प्रमुख हैं श्री उदय प्रकाश। उदय प्रकाश जी की जिस पुस्तक का द हिन्दू ने जिक्र किया था वह है - The Walls of Delhi, प्रकाशक Hachette (2013)|

मैं हिन्दी के लेखक को अन्ग्रेजी में नहीं, हिन्दी में पढ़ना चाहता था। अंग्रेजी में तो फ़्लिपकार्ट पर खरीद लेता। हिन्दी में भी वहां उनकी कुछ पुस्तकें थीं, पर मैने सोचा कि पुस्तकें उलट-पलट कर खरीदी जायें। अत: लोकभारती जाने की सोची।

[caption id="attachment_6890" align="alignright" width="300"]श्री दिनेश ग्रोवर, लोकभारती, इलाहाबाद के मालिक। श्री दिनेश ग्रोवर, लोकभारती, इलाहाबाद के मालिक।[/caption]

लोक भारती में दिनेश जी मिले। अपनी जगह पर बैठे हुये। श्री दिनेश ग्रोवर का जिक्र मेरे ब्लॉग में कई बार आया है। उनसे पहली मुलाकात को साढ़े पांच साल हो चुके

अब वे तिरासी वर्ष के होने वाले हैं (उनका और मेरा जन्मदिन एक ही है! वे मुझसे पच्चीस साल बड़े हैं।)। पर उस उम्र में उनके जैसी ऊर्जा किसी में दिखना एक बहुत ही सुखद अनुभव है। न केवल उनमें ऊर्जा है, वरन वे घटनाओं, स्थानों और विषयों के बारे में बहुत गहन जानकारी भी रखते हैं और अपने विचार भी।

वहां मैने लगभग पांच सौ रुपये की किताबें खरीदीं। उसके अलावा दिनेश जी ने पिलाई कॉफी। उस काफी पीने के समय उनसे विविध चर्चा भी हुई।

मैने पूछा - आप किसे प्रधानमन्त्री के रूप में देखना चाहेंगे?

देखना तो मैं मोदी (नरेन्द्र मोदी) को चाहूंगा। पर उसे बनने नहीं देंगे। उसकी पार्टी वाले ही नहीं बनने देंगे!


अच्छा?!

पार्टी में तो बाकी को वह संभाल ले, पर अडवानी को संभालना मुश्किल है। अडवानी की अपनी लालसा है प्रधान मन्त्री बनने की। ... मीडिया को तो बिजनेस वाले चलाते हैं। वे सारे मुंह पर तो मोदी के समर्थन की बात करते हैं, पर अन्दर ही अन्दर काटने में लगे हैं। टाटा को छोड़ दें, तो बाकी सारे मोदी से बेनिफिट तो लेना चाहते हैं; उसकी सख्ती कोई झेलना नहीं चाहता।


बीजेपी में ही ज्यादा तर एम.पी. नहीं चाहते मोदी को। सब जिस ढर्रे पर चल रहे हैं, उसे बदलना नहीं चाहते। राष्ट्रवादी मुसलमान मोदी को वोट देगा। ... मुझे लगता है मोदी सबको एक आंख से देखेगा। पर ये बाकी सारे मोदी को नहीं बनने देना चाहते।


देश को जरूरत सख्त आदमी की है। मोदी का विकास का अजण्डा बहुत सही है। पर पॉलिटिक्स में जो लोग हैं और बिजनेस में जो लोग हैं, उनको यह नहीं चाहिये।


अच्छा, मानो परसेण्टेज की बात करें। रुपया में कितना आना सम्भावना लगाते हैं आप मोदी के प्रधानमन्त्री बनने की?

दिनेश जी ने थोड़ा सोचा, फिर कहा -

... पच्चीस पैसा भी नहीं।


अच्छा? चार आना भी नहीं?

लोग बनने नहीं देंगे।


दिनेश जी बहुत आशावादी व्यक्ति हैं। बहुत हंसमुख और बहुत जीवन्त। तिरासी साल के व्यक्ति में एक जवान आदमी का दिमाग है। पर इस मामले पर वे बहुत ही पक्के दिखे कि लोग बनने नहीं देंगे।

बीजेपी में मोदी बाकी सब को संभाल ले, पर अडवानी को नहीं संभाल पायेगा। अडवानी की जोड़ तोड़ का पार नहीं पायेगा। उसके अलावा जितने और हैं - सबकी फैमिली पल रही हैं। मुलायाम-लालू फैमिली बढ़ा रहे हैं। उन सबको पसन्द थोड़े ही आयेगा कि एक आदमी परिवार की बात के खिलाफ़ जाये।


फ़िर सब यह सोचते हैं कि और कोई आये तो एक टर्म या उससे कम का होगा। उसके बाद भी कुछ जोड़ तोड़ की पॉसिबिलिटी रहेगी। मोदी आया तो तीन टर्म के लिये बैठ जायेगा। इतने लम्बे समय के लिये कोई कमान देना नहीं चाहता...




[caption id="attachment_6891" align="aligncenter" width="584"]श्री दिनेश ग्रोवर, मेरी पुस्तकों का बिल बनाते हुये। श्री दिनेश ग्रोवर, मेरी पुस्तकों का बिल बनाते हुये।[/caption]

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मैं सोचता हूं कि अभी कुछ भी हो सकता है। पर दिनेश जी ने जो कहा, वह मैने आपके सामने रखा। क्या होगा, समय बतायेगा। यह जरूर है कि दिनेश जी की बात को हल्के से नहीं लेना चाहिये।




टेलपीस-

कविता, तुम मरोगी। 
फेसबुक पर 
कट्टे और तोपें
जब तुम्हे दागने लगेंगे
तब तुम हो जाओगी बुझा कारतूस। 
कविता, तब तुम मरोगी!

Thursday, October 4, 2012

माधव सदाशिव गोलवलकर और वर्गीज़ कुरियन

[caption id="attachment_6221" align="alignright" width="195"] 'I Too Had a Dream' by Verghese Kurien[/caption]

वर्गीज़ कुरियन की पुस्तक – ’आई टू हैड अ ड्रीम’ में एक प्रसंग माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी” के बारे में है। ये दोनों उस समिति में थे जो सरकार ने गौ वध निषेध के बारे में सन् १९६७ में बनाई थी। इस समिति ने बारह साल व्यतीत किये। अन्त में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व के दौरान यह बिना किसी रिपोर्ट बनाये/पेश किये भंग भी हो गयी।

मैं श्री कुरियन के शब्द उठाता हूं उनकी किताब से -

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पर एक आकस्मिक और विचित्र सी बात हुई हमारी नियमित बैठकों में। गोलवलकर और मैं बड़े गहरे मित्र बन गये। लोगों को यह देख कर घोर आश्चर्य होता था कि जब भी गोलवलकर कमरे में मुझे आते देखते थे, वे तेजी से उठ कर मुझे बाहों में भर लेते थे। …


गोलवलकर छोटे कद के थे। बमुश्किल पांच फीट। पर जब वे गुस्सा हो जाते थे तो उनकी आंखें आग बरसाती थीं। जिस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया वह थी उनका अत्यन्त देशभक्त भारतीय होना। आप यह कह सकते हैं कि वे अपनी ब्राण्ड का राष्ट्रवाद फैला रहे थे और वह  भी गलत तरीके से, पर आप उनकी निष्ठा पर कभी शक नहीं कर सकते थे। एक दिन जब उन्होने पूरे जोश और भावना के साथ बैठक में गौ वध का विरोध किया था, वे मेरे पास आये और बोले – कुरियन, मैं तुम्हें बताऊं कि मैं गौ वध को इतना बड़ा मुद्दा क्यों बना रहा हूं?


मैने कहा, हां आप कृपया बतायें। क्यों कि, अन्यथा आप बहुत बुद्धिमान व्यक्ति हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?




[caption id="attachment_6220" align="alignleft" width="258"] माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी’[/caption]

"मैने गौ वध निषेध पर अपना आवेदन असल में सरकार को परेशानी में डालने के लिये किया था।’ उन्होने मुझे अकेले में बताना शुरू किया। "मैने निश्चय किया कि मैं दस लाख लोगों के हस्ताक्षर एकत्रित कर राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा। इस सन्दर्भ में मैने देश भर में यात्रायें की; यह जानने के लिये कि हस्ताक्षर इकठ्ठे करने का काम कैसे चल रहा है। इस काम में मैं उत्तर प्रदेश के एक गांव में गया। वहां मैने देखा कि एक महिला ने अपने पति को भोजन करा कर काम पर जाने के लिये विदा किया और अपने दो बच्चों को स्कूल के लिये भेज कर तपती दुपहरी में घर घर हस्ताक्षर इकठ्ठा करने चल दी। मुझे जिज्ञासा हुई कि यह महिला इस काम में इतना श्रम क्यों कर रही है? वह बहुत जुनूनी महिला नहीं थी। मैने सोचा तब भान हुआ कि यह वह अपनी गाय के लिये कर रही थी – जो उसकी रोजी-रोटी थी। तब मुझे समझ आया कि गाय में लोगों को संगठित करने की कितनी शक्ति है।"


"देखो, हमारे देश का क्या हाल हो गया है। जो विदेशी है, वह अच्छा है। जो देशी है वह बुरा। कौन अच्छा भारतीय है? वह जो कोट-पतलून पहनता है और हैट लगाता है। कौन बेकार भारतीय है? वह जो धोती पहनता है। वह देश जो अपने होने में गर्व नहीं महसूस करता और दूसरों की नकल करता है, वह कैसे कुछ बन सकता है? तब मुझे लगा कि गाय में देश को एक सूत्र में बांधने की ताकत है। वह भारत की संस्कृति का प्रतीक है। इस लिये कुरियन इस समिति में तुम मेरी गौ वध विरोध की बात का समर्थन करो तो भारत पांच साल में संगठित हो सकता है। … मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि गौ वध निषेध की बात कर मैं मूर्ख नहीं हूं, और न ही मैं धर्मोन्मादी हूं। मै  ठण्डे मन से यह कह रहा हूं – मैं गाय का उपयोग अपने लोगों की भारतीयता जगाने में करना चाहता हूं। इस लिये इस काम में मेरी सहायता करो।"


खैर, मैने गोलवलकर की इस बात से न तो सहमति जताई और न उस समिति में उनका समर्थन किया। पर मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि वे अपने तरीके से लोगों में भारतीयता और भारत के प्रति गर्व जगाना चाह रहे थे। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ये वह गोलवलकर थे, जिन्हे मैने जाना। लोगों ने उन्हे महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने वाला कहा, पर मैं इस में कभी यकीन नहीं कर पाया। मुझे वे हमेशा एक ईमानदार और स्पष्टवक्ता लगे और मुझे यह हमेशा लगता रहा कि अगर वे एक कट्टरवादी हिन्दू धर्मोन्मादी होते तो वे कभी मेरे मित्र नहीं बन सकते थे।


अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों में, जब वे बीमार थे और पूना में थे, तो उन्होने देश भर से राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के राज्य प्रमुखों को पूना बुलाया। वे जानते थे कि वे जाने वाले हैं। जब उनका देहावसान हो गया तब कुछ दिनों बाद मेरे दफ्तर में उनमें से एक सज्जन मुझसे मिलने आये। "श्रीमान् मैं गुजरात का आरएसएस प्रमुख हूं", उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा – "आप जानते होंगे कि गुरुजी अब नहीं रहे। उन्होने हम सब को पूना बुलाया था। जब मैने बताया कि मैं गुजरात से हूं तो उन्होने मुझसे कहा कि “वापस जा कर आणद जाना और मेरी ओर से कुरियन को विशेष रूप से मेरा आशीर्वाद कहना।” मैं आपको गुरुजी का संदेश देने आया हूं।"


मैं पूरी तरह अभिभूत हो गया। उन्हे धन्यवाद दिया और सोच रहा था कि वे सज्जन चले जायेंगे। पर वे रुके और कहने लगे – "सर, आप ईसाई हैं। पर गुजरात में सभी लोगों में से केवल आपको ही अपना आशीर्वाद क्यों भेजा होगा गुरुजी ने?"


मैने उनसे कहा कि आपने यह गुरुजी से क्यों नहीं पूछा? मैं उन्हे कोई उत्तर न दे सका, क्यों कि मेरे पास कोई उत्तर था ही नहीं!







श्री कुरियन की पुस्तक का यह अंश मुझे बाध्य कर गया कि मैं अपनी (जैसी तैसी) हिन्दी में उसका अनुवाद प्रस्तुत करूं। यह अंश गोलवलकर जी के बारे में जो नेगेटिव नजरिया कथित सेकुलर लोग प्रचारित करते हैं, उसकी असलियत दिखलाता है।

उस पुस्तक में अनेक अंश हैं, जिनके बारे में मैंने पुस्तक पढ़ने के दौरान लिखना या अनुवाद करना चाहा। पर वह करने की ऊर्जा नहीं है मुझमें। शायद हिन्दी ब्लॉगिंग का प्रारम्भिक दौर होता और मैं पर्याप्त सक्रिय होता तो एक दो पोस्टें और लिखता। फिलहाल यही अनुंशंसा करूंगा कि आप यह पुस्तक पढें।

मेरा अपना मत है कि साठ-सत्तर के दशक में भारतीय समाज को गाय के मुद्दे पर एक सूत्र में बांधा जा सकता था। अब वह स्थिति नहीं है। अब गाय या गंगा लोगों को उद्वेलित नहीं करते।

[कुरियन गौ वध निषेध के पक्षधर नहीं थे। वे यह मानते थे कि अक्षम गायों को हटाना जरूरी है, जिससे (पहले से ही कम) संसाधनों का उपयोग स्वस्थ और उत्पादक पशुओं के लिये हो सके; जो डेयरी उद्योग की सफलता के लिये अनिवार्य है। हां, वे उत्पादक गायों के वध निषेध के पक्ष में स्टेण्ड लेने को तैयार थे।]

Monday, August 13, 2012

पी.जी. तेनसिंग की किताब से

पी.जी. तेनसिंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के केरल काडर के अधिकारी थे। तिरालीस साल की उम्र में सन् २००६ में कीड़ा काटा तो सरकारी सेवा से एच्छिक सेवानिवृति ले ली। उसके बाद एक मोटर साइकल पर देश भ्रमण किया। फ्रीक मनई! उनके सहकर्मी उनके बारे में कहते थे - दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी, पार्टी जाने वाले "पशु", चुपचाप काम में घिसने वाले, विजटिंग प्रोफेसर, अनैक्षुक अफसर, सफल होटल चलानेवाला और सबसे ऊपर - एक ग्रेट दोस्त!

देश भ्रमण में तीन साल लगे। एक किताब लिखी - डोण्ट आस्क एनी ओल्ड ब्लोक फॉर डेरेक्शन्स (Don't ask any old bloke for DIRECTIONS)। और फिर इस दुनियां से चले गये सन् २०१० में! :sad:

आप उनकी किताब बतैर ट्रेवलॉग पढ़ सकते हैं। यहां मैं एक छोटा अंश सिविल सेवा की दशा के बारे में प्रस्तुत कर रहा हूं, जो उन्होने रांची प्रवास के दौरान के वर्णन में लिखा है। (कहना न होगा कि मेरा हिन्दी अनुवाद घटिया होगा, आखिर आजकल लिखने की प्रेक्टिस छूट गयी है! :-) ):

मुझे मालुम है कि हर राज्य में ईमानदार और बेईमान अफसरों के बीच खाई बन गयी है। ईमानदार नित्यप्रति के आधार पर लड़ाई हारते जा रहे हैं। कुछ सामाना कर रहे हैं रोज दर रोज। बाकी दूसरी दिशा में देखते हुये अपनी नाक साफ रखने की जद्दोजहद में लगे हैं। कई इस सिस्टम से येन केन प्रकरेण निकल जाने की जुगत में लगे हैं। झारखण्ड में मृदुला (पुरानी सहकर्मी मित्र/मेजबान) के कारण मैने कई नौकरशाहों से मुलाकात की। अन्य राज्यों में मैं (एक व्यक्तिगत नियम के तहद) उनसे मिलता ही नहीं। 


एक सीनियर अफसर ने भड़ास निकाली कि समाजवादी व्यवस्था का शासन नौकरशाही की वर्तमान बुराइयों के लिये जिम्मेदार है। पॉलिसी बनाने वालों ने शासन चलाने का दिन प्रति दिन का काम संभाल लिया है। और जिनका काम पॉलिसी के कार्यान्वयन का था, वे राजनेताओं के समक्ष अपनी सारी ताकत दण्डवत कर चुके हैं। 


इस देश में पॉलिसी-मेकर्स की जबरदस्त कमी हो गयी है - वे लोग जो लम्बी दूरी की सोचें और गवर्नेंस के थिंक टैंक हों। मसलन, आप ट्रान्सपोर्ट विभाग को लें। मन्त्री और सचिव को अपना दिमाग एक साथ मिला कर राज्य की लम्बे समय की यातायात समस्याओं को हल करने के लिये लगाना चाहिये। उसकी बजाय मन्त्री बहुत रुचि लेता है कर्मचारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर में। और सचिव इसमें उसके साथ मिली भगत रखता है। यह काम ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के दफ्तर को करना चाहिये। इससे ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की स्थिति कमजोर होती है। उसका अपने कर्मचारियों पर प्रभाव क्षरित होता है। बस ऐसे ही चलता रहता है और देश लटपटाता चलता जाता है। 


मुझे अपनी तरफ से कुछ जोड़ना चाहिये?! नो चांस। अभी कुछ साल नौकरी करनी है मुझे - मोटर साइकल चलाना नहीं आता मुझे, और मैं तेनसिंग की तरह "दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी" आदि नहीं हूं। :lol:


Thursday, February 16, 2012

जवाहिरलाल का बोण्ड्री का ठेका

जवाहिरलाल कई दिन से शिवकुटी घाट पर नहीं था। पण्डाजी ने बताया कि झूंसी में बोण्ड्री (बाउण्ड्री) बनाने का ठेका ले लिया था उसने। उसका काम खतम कर दो-तीन दिन हुये वापस लौटे।

आज (फरवरी 14'2012) को जवाहिरलाल अलाव जलाये बैठा था। साथ में एक और जीव। उसी ने बताया कि "कालियु जलाये रहे, परऊं भी"। अर्थात कल परसों से वापस आकर सवेरे अलाव जलाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया है उसने। अलाव की क्वालिटी बढ़िया थी। ए ग्रेड। लोग ज्यादा होते तो जमावड़ा बेहतर होता। पर आजकल सर्दी एक्स्टेण्ड हो गयी है। हल्की धुन्ध थी। सूर्योदय अलबत्ता चटक थे। प्रात: भ्रमण वाले भी नहीं दीखते। गंगा स्नान करने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे।

[caption id="attachment_5368" align="aligncenter" width="584" caption="जवाहिरलाल अलाव के पास चुनाव का पेम्फलेट निहारते हुये।"][/caption]

जवाहिरलाल के ठेके के बारे में उसीसे पूछा। झूंसी में कोई बाउण्ड्री वॉल बनाने का काम था। जवाहिरलाल 12-14 मजदूरों के साथ काम कराने गया था। काम पूरा हो गया। मिस्त्री-मजदूरों को उनका पैसा दे दिया है उसने पर उसको अभी कुछ पैसा मिलना बकाया है। ... जवाहिरलाल को मैं मजदूर समझता था, वह मजदूरी का ठेका भी लेने की हैसियत रखता है, यह जानकर उसके प्रति लौकिक इज्जत भी बढ़ गयी। पैर में चप्पल नहीं, एक लुंगी पहने सर्दी में एक चारखाने की चादर ओढ़ लेता है। पहले सर्दी में भी कोई अधोवस्त्र नहीं पहनता था, इस साल एक स्वेटर पा गया है कहीं से पहनने को। सवेरे अलाव जलाये मुंह में मुखारी दबाये दीखता है। यह ठेकेदारी भी कर सकता है! कोटेश्वर महादेव भगवान किसके क्या क्या काम करवा लेते हैं!

एक बसप्पा का आदमी कल होने वाले विधान सभा के चुनाव के लिये अपने कैण्डीडेट का पर्चा बांट गया। जवाहिरलाल पर्चा उलट-पलट कर देख रहा था। मैने पूछा - तुम्हारा नाम है कि नहीं वोटर लिस्ट में?

नाहीं। गाऊं (मछलीशहर में बहादुरपुर गांव है उसका) में होये। पर कब्भौं गये नाहीं वोट देई। (नहीं, गांव में होगा, पर कभी गया नहीं वोट देने)। पण्डाजी ने बताया कि रहने की जगह पक्की न होने के कारण जवाहिर का वोटर कार्ड नहीं बना।
रहने के पक्की जगह? हमसे कोई पूछे - मानसिक हलचल ब्लॉग और शिवकुटी का घाट उसका परमानेण्ट एड्रेस है। :lol:

खैर, बहुत दिनों बाद आज जवाहिर मिला तो दिन मानो सफल शुरू हुआ!

[caption id="attachment_5369" align="aligncenter" width="584" caption="गंगाजी के कछार में कल्लू के खेत में सरसों में दाने पड़ गये हैं। एक पौधे के पीछे उगता सूरज।"][/caption]