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Thursday, June 27, 2013

शैलेश का उत्तराखण्ड के लिये प्रस्थान

अगर इस देश की आत्मा है; तो उसका स्पन्दन महसूस करने वाले लोग शैलेश पाण्डेय जैसे होंगे!




[caption id="attachment_6995" align="aligncenter" width="448"]इलाहाबाद स्टेशन पर शैलेश पाण्डेय इलाहाबाद स्टेशन पर शैलेश पाण्डेय[/caption]

कल दोपहर में मैं इलाहाबाद रेलवे स्टेशन गया। शैलेश पाण्डेय ने कहा था कि वे उत्तराखण्ड जा रहे हैं, सो उनसे मिलने की इच्छा थी।

25 जून को शाम संगम एक्प्रेस पकड़ने का कार्यक्रम था उनका। मैने अपने दफ्तर का काम समेटा और इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पंहुच गया उनसे मिलने। फोन पर पता किया तो वे बाजार में उत्तराखण्ड के प्रवास के दौरान काम आने वाली रिलीफ सामग्री खरीद रहे थे। मुझे स्टेशन मैनेजर साहब के कमरे में इंतजार करना था लगभग आधा घण्टा। वहां बैठे मैं पाल थरू की पुस्तक "घोस्ट ट्रेन टू द ईस्टर्न स्टार" के पन्ने पलट रहा था, जिसमें ओरहान पामुक को ऐसा व्यक्ति बताया गया था, जो "इस्ताम्बूल" की आत्मा पहचानता है। उसी समय मुझे विचार आया था शैलेश के बारे में, जो मैने ऊपर लिखा है।

शैलेश घुमक्कड़ हैं - लगभग पूरा भारत घूम चुके हैं - अधिकांश अपनी मोटर साइकल पर। एक समाज सेवी संस्था चलाते हैं वाराणसी में। फौज से ऐक्षिक सेवानिवृति लिये हैं और जुनून रखते हैं सोच और काम में। आप उनके ट्विटर प्रोफाइल [ @shaileshkpandey ] से उनके बारे में ज्यादा जान सकते हैं। उनकी यात्राओं और उनके कार्य के बारे में जानकारी उनके ब्लॉग से भी मिल सकेगी।

लगभग आधे घण्टे बाद शैलेश मिले। उनके साथ एक अन्य सहयोगी सरजू थे। दोनो के पास पिठ्ठू थे और दो गत्ते के डिब्बों में रिलीफ सामग्री। शैलेश धाराप्रवाह बोल सकते हैं - बशर्ते आप अच्छे श्रोता हों। वह मैं था। उन्होने बताना प्रारम्भ किया - भईया, ये जो पतलून और टीशर्ट पहन रखी है, महीना भर उसी में काम चलाना है। वही धो कर सुखा कर पहना जायेगा। एक गमछा है बैग में। और ज्यादा की जरूरत नहीं।

दूर दराज में बिजली नहीं होगी, सो एक सोलर चार्जर रखा है जो मोबाइल आदि चार्ज कर दिया करेगा। मुझे इण्टीरियर गांव में जाना है वहां। असल में तीर्थयात्री/पर्यटक की फिक्र करने वाले बहुत होंगे उत्तराखण्ड में। दूर दराज के गावों में जहां बहुत तबाही हुई है, वहां कोई खास सहायता नहीं मिली होगी।  मैं वहां जाऊंगा। यहां से मैं हरिद्वार जा रहा हूं। वहां से ऋषिकेश और आगे रुद्रप्रयाग में एक जगह है फोता। वहां पहुंचकर स्थानीय भाजपा के लोगों से भी सम्पर्क करूंगा। ... एक गांव में जा कर बच्चों को इकठ्ठा कर मेक-शिफ्ट स्कूल जैसा बनाने का विचार है। ... आपदा के समय सब से उपेक्षित बच्चे ही होते हैं!


एक महीना वहां व्यतीत करने का विचार है। उसकी तैयारी के साथ जा रहा हूं। कुछ लोगों ने सहायता देने और हरिद्वार में जुड़ने की बात कही है; पर मैं उसे बहुत पक्का मान कर नहीं चल रहा हूं। ये सरजू और मैं - हम दोनो की टीम है।


अपने साथ मैं इलेक्ट्रानिक रक्तचाप नापने वाला उपकरण ले जा रहा हूं। और साथ में कुछ दवायें हैं - मसलन डायरिया के उपचार के लिये, अस्थमा के लिये इनहेलर्स, वाटर प्यूरीफायर टेबलेट्स...


मेरे जैसे कुर्सी पर बैठे विचार ठेलने वाले को एक कर्म क्षेत्र के व्यक्ति से मिलना और सुनना बहुत अच्छा लग रहा था। शैलेश मुझसे 18-19 साल छोटे हैं। एक पीढ़ी छोटे। मेरी पीढ़ी ने तो देश लोढ़ दिया है। या तो बेच खाया है या अपने निकम्मे पन से पंगु कर दिया है। आशा है तो शैलेश जैसे लोगों से है।

मैने शैलेश को सहेजा है कि इस दौरान अपनी गतिविधियों से मुझे अवगत कराते रहें; जिसे मैं ब्लॉग पर प्रस्तुत कर सकूं। उन्होने इस विचार को अपनी स्वीकृति दे दी है। सो आगे आने वाले दिनों में इसकी सूचना मैं देता रहूंगा।

मैं शैलेश को स्टेशन पर छोड़ कर चला आया। उनकी ट्रेन लगभग एक घण्टा बाद चली। इस बीच सरजू को पता चला कि उत्तरप्रदेश सरकार से बंटने वाला लैपटॉप उसे 1 जुलाई को मिलेगा, तो उसकी यात्रा स्थगित हो गयी। अब सरजू शैलेश से 2 जुलाई को चल कर जुड़ेगा। शैलेश फिलहाल चल अकेला मोड में  चले इलाहाबाद से।

[caption id="attachment_6996" align="aligncenter" width="448"]शैलेश और सरजू शैलेश और सरजू[/caption]

Monday, June 10, 2013

ब्लॉग की प्रासंगिकता बनाम अभिव्यक्ति की भंगुरता

[caption id="attachment_6970" align="alignright" width="300"]ज्ञानदत्त पाण्डेय ज्ञानदत्त पाण्डेय[/caption]

पिछले कुछ अर्से से मैं फेसबुक और ट्विटर पर ज्यादा समय दे रहा हूं। सवेरे की सैर के बाद मेरे पास कुछ चित्र और कुछ अवलोकन होते हैं, जिन्हे स्मार्टफोन पर 140 करेक्टर की सीमा रखते हुये बफर एप्प में स्टोर कर देता हूं। इसके अलावा दफ्तर आते जाते कुछ अवलोकन होते हैं और जो कुछ देखता हूं, चलती कार से उनका चित्र लेने का प्रयास करता हूं। अब हाथ सध गया है तो चित्र 60-70% मामलों में ठीक ठाक आ जाते हैं चलती कार से। चालीस मिनट की कम्यूटिंग के दौरान उन्हे भी बफर में डाल देता हूं।

बफर उन्हे समय समय पर पब्लिश करता रहता है फेसबुक और ट्विटर पर। समय मिलने पर मैं प्रतिक्रियायें देख लेता हूं फेसबुक/ट्विटर पर और उत्तर देने की आवश्यकता होने पर वह करता हूं। इसी में औरों की ट्वीट्स और फेसबुक स्टेटस पढ़ना - टिपेरना भी हो जाता है।

इस सब में ब्लॉगजगत की बजाय कम समय लगता है। इण्टरनेट पर पेज भी कम क्लिक करने होते हैं।

चूंकि मैं पेशेवर लेखक/फोटोग्राफर या मीडिया/सोशल मीडिया पण्डित नहीं हूं, यह सिस्टम ठीक ठीक ही काम कर रहा है।

यदाकदा ब्लॉग पोस्ट भी लिख देता हूं। पर उसमें प्रतिबद्धता कम हो गयी है। उसमें कई व्यक्तिगत कारण हैं; पर सबसे महत्वपूर्ण कारण शायद यह है कि ब्लॉगिंग एक तरह का अनुशासन मांगती है। पढ़ने-लिखने और देखने सोचने का अनुशासन। उतना अनुशासित मैं आजकल स्वयम को कर नहीं पा रहा। छोटे 140 करेक्टर्स का पैकेट कम अनुशासन मांगता है; वह हो जा रहा है।

पर यह भी महसूस हो रहा है कि लेखन या पत्रकारिता या वैसा ही कुछ मेरा व्यवसाय होता जिसमें कुर्सी पर बैठ लम्बे समय तक मुझे लिखना-पढ़ना होता तो फुटकरिया अभिव्यक्ति के लिये फेसबुक या ट्विटर सही माध्यम होता। पर जब मेरा काम मालगाड़ी परिचालन है और जो अभिव्यक्ति का संतोष तो नहीं ही देता; तब फेसबुक/ट्विटर पर लम्बे समय तक अरुझे रहने से अभिव्यक्ति भंगुर होने लगती है।


अभिव्यक्ति की भंगुरता महसूस हो रही है।


मैं सोचता हूं ब्लॉगिंग में कुछ प्रॉजेक्ट लिये जायें। मसलन इलाहाबाद के वृक्षों पर ब्लॉग-पोस्टें लिखी जा सकती हैं। पर उसके लिये एक प्रकार के अनुशासन की आवश्यकता है। उसके अलावा ब्लॉगजगत में सम्प्रेषण में ऊष्मा लाने के लिये भी यत्न चाहिये। .... ऐसे में मेरे व्यक्तित्व का एक अंश रुग्णता/अशक्तता को आगे करने लगता है! कुछ हद तक कामचोर मैं! :lol:

शायद ऐसा ही चले। शायद बदलाव हो। शायद...

Friday, May 31, 2013

छिउल के पत्ते

[caption id="attachment_6943" align="alignright" width="300"]छिउल के पत्ते - पान का बीड़ा बान्धने के लिये। छिउल के पत्ते - पान का बीड़ा बांधने के लिये।[/caption]

जैसा सामान्य रूप से होता है, मेरे पास कहने को विशेष नहीं है। मिर्जापुर स्टेशन पर मैं नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस से उतरा था। मेरे साथ दो निरीक्षक, मिर्जापुर के स्टेशन मास्टर और तीन चार और लोग थे। वे साथ न होते तो मेरे पास देखने और लिखने को अधिक होता। अन्यथा अफसरी के तामझाम के साथ आसपास को देखना समझना अवरुद्ध हो जाता है। असहज होते हैं लोग।

वे चार गरीब महिलायें थीं। उनके पास पत्तों के गठ्ठर थे। हर एक गठ्ठर पर एक सींक की झाडू जैसा रखा था।

मैने अंदाज लगाया कि वे महुए के पत्ते होंगे। एक महिला से पूछा तो उसने हामी भरी। उसने बताया कि वे चुनार से ले कर आ रहे हैं ये पत्ते। पान बांधने के काम आते हैं।

मैने उनके चित्र लिये और चित्र दिखा कर अन्य लोगों से पूछा। अन्तत: मैं इस निष्कर्ष पर पंहुचा कि वह महिला पूर्ण सत्य नहीं कह रही थी।

[caption id="attachment_6944" align="aligncenter" width="584"]छिउल का पत्ता लिये महिलायें छिउल का पत्ता लिये महिलायें[/caption]




वे पत्ते महुआ के नहीं छिउल के थे। छिउल आदमी की ऊंचाई से कुछ बड़ा; छोटे कद का जंगली वृक्ष है। इसके पत्ते भी महुआ के पत्तों सरीखे होते हैं, पर ज्यादा नर्म और ज्यादा समय तक सूखते नहीं। पान का बीड़ा बंधने के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं। हर एक ढेरी पर जो सींक की झाडू रखी थी वह पान के बीड़े को खोंसने में काम आती है।

वे महिलायें इन्हें चुनार के आगे राबर्ट्सगंज की ओर की रेल लाइन के आस पास के जंगलों से चुन कर लाती हैं।

पान बांधने में छिउल के पत्तों का बहुतायत से प्रयोग होता है इस इलाके में।

मुझे मालुम है, यह बहुत सामान्य सी जानकारी लगेगी आपको। अगर मैं अफसर न होता, मेरे साथ कोइ अमला न होता, वे महिलायें मुझसे तब सहजता से बात करतीं शायद। और तब यह ब्लॉग पोस्ट नहीं, प्रेमचन्द की परम्परा वाली कोइ कहानी निकल आती तब।

पर जो नहीं होना होता, वह नहीं होता। मेरे भाग्य में आधी अधूरी जानकारी की ब्लॉग पोस्ट भर है।

वह यह है - छिउल के पत्तों पर पोस्ट और चित्र। बस।

[caption id="attachment_6945" align="aligncenter" width="584"]छिउल के पत्ते ले कर आयी महिलायें - मिर्जापुर स्टेशन पर बतियाती हुईं छिउल के पत्ते ले कर आयी महिलायें - मिर्जापुर स्टेशन पर बतियाती हुईं[/caption]

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छिउल की लकड़ी पवित्र मानी जाती है। यज्ञोपवीत के समय बालक इसी का दण्ड रखता है कन्धे पर। दण्डी स्वामी का प्रतीक इसी की लकड़ी का है। छिउल के पत्ते पत्तल बनाने, पान का बीड़ा बांधने और बीड़ी बनाने के काम आते हैं।

बाकी तो आप ज्यादा जानते होंगे! :-)

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सम्पादन - मेरे इंस्पेक्टर श्री एसपी सिंह कहते हैं - साहेब, मेरे गांव के पास दुर्वासा ऋषि के आश्रम में बहुत छिउल होते थे। उस जगह को कहते ही छिउलिया थे। एक बार चलिये चक्कर मार आइये उनके आश्रम में।

Friday, April 19, 2013

फोड़ (हार्ड कोक) के साइकल व्यवसायी

मैं जब भी बोकारो जाता हूं तो मुझे फोड़ (खनन का कोयला जला कर उससे बने फोड़ - हार्ड कोक) को ले कर चलते साइकल वाले बहुत आकर्षित करते हैं। कोयले का अवैध खनन; उसके बाद उसे खुले में जला कर फोड़ बनाना और फोड़ को ले कर बोकारो के पास तक ले कर आना एक व्यवसायिक चेन है। मुझे यह भी बताया गया कि बोकारो में यह चेन और आगे बढ़ती है। यहां इस हार्ड कोक को खरीद कर अन्य साइकल वाले उसे ले कर बंगाल तक जाते हैं।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर पुरानी पोस्ट है - फोड़ का फुटकर व्यापार


मैं बोकारो में स्टील प्लाण्ट की ओर जा रहा था। रास्ते में ये साइकल व्यवसायी दिखे तो वाहन रुकवा कर एक से मैने बात की। मेरे साथ बोकारो के यातायात निरीक्षक श्री गोस्वामी और वहां के एरिया मैनेजर श्री कुलदीप तिवारी थे। कुलदीप तो वहां हाल ही में पदस्थ हुये थे, पर गोस्वामी ड़ेढ़ दो दशक से वहां हैं। उन्हे इन लोगों को पर्याप्त देखा है।

[caption id="attachment_6842" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का व्यवसायी  और यातायात करने वाला - बालूचन्द फोड़ का व्यवसायी और यातायात करने वाला - बालूचन्द[/caption]

वे एक के पीछे एक चलने वाले दो साइकल सवार थे। मेरे अनुमान से उनमें से प्रत्येक के पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला था। साइकल के दोनो ओर, बीच में और पीछे लादा हुआ। लगभग इतना कोयला, जिससे ज्यादा लाद कर चल पाना शायद सम्भव न हो। चित्र मैने दोनो के लिये पर बातचीत आगे चलने वाले साइकल व्यवसायी से की।

उसने बताया कि वह धनबाद क्षेत्र के जारीडिह से यह हार्ड कोक/फोड़ ले कर चले हैं। उसके पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला है। वे आगे नया मोड़ तक जा रहे हैं बेचने के लिये। तीन क्विण्टल फोड़ उसने चार सौ रुपये में खरीदा है। इसे जब नया मोड़ पर वह बेचेगा, तब तक उसका लगभग 100 रुपया और खर्च होगा। बेचने पर उसे करीब 1200 रुपये प्राप्त होंगे। इस तरह दो दिन की मेहनत पर उसे सात सौ रुपये मिलेंगे। साढ़े तीन सौ रुपये प्रतिदिन।

मैं उसके लिये व्यवसायी शब्द का इस्तेमाल इसी लिये कर रहा हूं। वह मुझे 350 रुपये प्रतिदिन की आमदनी का अर्थशात्र बड़ी सूक्ष्मता से बता गया। फिर वह मात्र श्रम का इनपुट नहीं कर रहा था इस चेन में। वह (माल - फोड़) खरीद और बेचने का व्यवसाय करने वाला था। वह शारीरिक खतरा ले कर उत्खनन के काम में नहीं लगा था, वरन ट्रांसपोर्टेशन और उससे जुड़े पुलीसिया भ्रष्टाचार को डील कर कोयले के फुटकर व्यवसाय को एक अंजाम तक पंहुचा रहा था। मैने उसका नाम पूछा - उसने बताया - बालू चन्द।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर मैं पहले भी इस ब्लॉग पर लिख चुका हूं। पर इस बार बालू चन्द से बात चीत में स्थिति मुझे और स्पष्ट हुई।

पिछली पोस्ट (15 मई 2009) में मैने यह लिखा था - 


कत्रासगढ़ के पास कोयला खदान से अवैध कोयला उठाते हैं ये लोग। सीसीएल के स्टाफ को कार्ड पर कोयला घरेलू प्रयोग के लिये मिलता है। कुछ उसका अंश होता है। इसके अलावा कुछ कोयला सिक्यूरिटी फोर्स वाले को दूसरी तरफ झांकने का शुल्क अदाकर अवैध खनन से निकाला जाता है। निकालने के बाद यह कोयला खुले में जला कर उसका धुआं करने का तत्व निकाला जाता है। उसके बाद बचने वाले “फोड़” को बेचने निकलते हैं ये लोग। निकालने/फोड़ बनाने वाले ही रातोंरात कत्रास से चास/बोकारो (३३-३४ किलोमीटर) तक साइकल पर ढो कर लाते हैं। एक साइकल के माल पर ४००-५०० रुपया कमाते होंगे ये बन्दे। उसमें से पुलीस का भी हिस्सा होता होगा।


बोकारो के रेलवे के यातायात निरिक्षक श्री गोस्वामी ने बताया कि कोयला अवैध उत्खनन करने वाले और उसे जला कर फोड़ बनाने वाले अधिकांशत: एक ही व्यक्ति होते हैं। उन्हे अपने रिस्क के लिये सवा सौ/ड़ेढ सौ रुपया प्रति क्विण्टल मिलता है। उसके बाद इसे कोयला आढ़तियों तक पंहुचाने वाले बालूचन्द जैसे दो सौ, सवा दो सौ रुपया प्रति क्विण्टल पाते हैं। बालू चन्द जैसे व्यवसायियों को स्थानीय भाषा में क्या कहा जाता है? मैने यह कई लोगों से पूछा, पर मुझे कोई सम्बोधन उनके लिये नहीं बता पाया कोई। उन्हे कुछ तो कहा ही जाता होगा!

मेरी बिटिया के वाहन ड्राइवर श्री किशोर ने इस चेन के तीसरे घटक की बात बतायी। नया मोड़/ बालीडीह से कोयला ढ़ोने वाले एक और साइकल व्यवसायी यह हार्ड कोक उठाते हैं और उसे ले कर पश्चिम बंगाल जाते हैं। बोकारो से पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) अढ़सठ किलो मीटर है। वे तीन-चार दिन में अपना सफर पूरा करते होंगे। मैं अभी इस तीसरी स्तर के व्यवसायी से मिल नहीं पाया हूं। पर धनबाद - बोकारो की आगे आने वाली ट्रिप्स में उस प्रकार के व्यक्ति से भी कभी सामना होगा, जरूर। या शायद नया-मोड़/बालीडीह पर तहकीकात करनी चाहिये उसके लिये।

[caption id="attachment_6857" align="aligncenter" width="584"]जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर[/caption]

हां, यह तब कर पाऊंगा, जब कि मेरे मन में जिज्ञासा बरकरार रहे और मैं इस ब्लॉग को यह सब पोस्ट करने के लिये जीवित रखे रखूं।

जरूरी यह है कि, अनुभव जो भी हों, उन्हे लिख डाला जाये!

[श्री गोस्वामी ने मुझे बताया कि लौह अयस्क को भी इसी तरह अवैध खनन और वहन करने वाले व्यवसायी होते हैं। वे निश्चय ही इतना अधिक/तीन क्विण्टल अयस्क ले कर नहीं चलते होंगे। पर वे कहां से कहां तक जाते हैं, इसके बारे में आगे कभी पता करूंगा।]

[caption id="attachment_6843" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का दूसरा व्यवसायी फोड़ का दूसरा व्यवसायी[/caption]

Saturday, April 6, 2013

जवाहिरलाल एकाकी है!

scaled_image_1तीन महीने से ऊपर हुआ, जवाहिरलाल और पण्डाजी के बीच कुछ कहा सुनी हो गयी थी। बकौल पण्डा, जवाहिरलाल बीमार रहने लगा है। बीमार और चिड़चिड़ा। मजाक पर भी तुनक जाता है और तुनक कर वह घाट से हट गया। आजकल इधर आता नहीँ पांच सौ कदम दूर रमबगिया के सामने के मैदान मेँ बैठ कर मुखारी करता है।

बीच में एक दो बार दिखा था मुझे जवाहिर। यह कहने पर कि यहीं घाट पर आ कर बैठा करो; वह बोला था - आये से पण्डा क घाट खराब होई जाये। (आने से पण्डा का घाट खराब हो जायेगा)। वह नहीं आया।

बीच में हम नित्य घाट पर घूमने वालों ने आपस में बातचीत की कि एक दिन चल कर जवाहिरलाल को मना कर वापस लाया जाये; पर वह चलना कभी हो नहीं पाया। कभी हम लोग साथ नहीं मिले और कभी जवाहिर नहीं नजर आया। अलबत्ता, जवाहिर के बिना शिवकुटी घाट की रहचह में वह जान नहीं रही। पूरा कुम्भ पर्व बिना जवाहिरलाल के आया और निकल गया।

आज मैने देखा - जवाहिर अकेले रमबगिया के सामने बैठा है। तेज कदमों से उसकी तरफ बढ़ गया मैं। अकेला था, वह, कोई बकरी, कुकुर या सूअर भी नहीँ था। मुखारी कर रहा था और कुछ बड़बड़ाता भी जा रहा था। मानो कल्पना की बकरियों से बात कर रहा हो - जो वह सामान्यत: करता रहता है।

तुम घाट पर आ कर बैठना चालू नहीं किये?

का आई। पण्डा के ठीक न लागे। (क्या आऊं, पण्डा को ठीक नहीं लगेगा।)

नहीं, घाट पण्डा का थोड़े ही है। वहां बैठना शुरू करो। तबियत तो ठीक है न?

तबियत का हाल पूछने पर वह कुछ हरियराया। मुखारी मुंह से निकाल खंखारा और फिर बोला - तबियत ठीक बा। अब काम लगाई लेहे हई। ईंट-गारा क काम। (तबियत ठीक है। अब काम करने लगा हूं। ईंट गारा का काम।)

चलो, अच्छा है। अब कल से वहीं घाट पर आ कर बैठना। ... ध्यान से देखने पर लगा कि पिछले कई महीने कठिन गुजरे होंगे उसके। पर अब ठीक लग रहा है।

ठीक बा! (ठीक है)। उसने हामी भरी।

कल से आओगे न?! पक्का?

मेरी मनुहार पर वह बोला - हां, कालि से आउब! (हां, कल से आऊंगा।)

मैं चला आया। कल के लिये यह काम हो गया है कि अगर वह सवेरे घाट पर नहीं आया तो एक बार फिर उसे मनाने जाना होगा। ... जवाहिरलाल महत्वपूर्ण है - मेरे ब्लॉग के लिये भी और मेरे लिये भी!

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Saturday, March 30, 2013

भोंदू

[caption id="" align="alignnone" width="599"]image भोन्दू, पास में बैठ कर बतियाने लगा।[/caption]

भोंदू अकेला नहीं था। एक समूह था - तीन आदमी और तीन औरतें। चुनार स्टेशन पर सिंगरौली जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। औरतें जमीन पर गठ्ठर लिए बैठी थीं। एक आदमी बांस की पतली डंडी लिए बेंच पर बैठा था। डंडी के ऊपर एक छोटी गुल्ली जैसी डंडी बाँध रखी थी। यानी वह एक लग्गी थी।

आदमी ने अपना नाम बताया - रामलोचन। उसके पास दूसरा खड़ा था। वह था भोंदू। भोंदू, नाम के अनुरूप नहीं था। वाचाल था। अधिकतर प्रश्नों के उत्तर उसी ने दिए।

वे लोग सिंगरौली जा रहे थे। वहां जंगल में पत्ते इकठ्ठे कर वापस आयेंगे। पत्ते यहाँ बेचने का काम करते हैं।

कितना मिल जाता है?

रामलोचन ने चुनौटी खुरचते हुए हेहे करते बताया - करीब सौ रूपया प्रति व्यक्ति। हमें लगा कि लगभग यही लेबर रेट तो गाँव में होगा। पर रामलोचन की घुमावदार बातों से यह स्पष्ट हुआ कि लोकल काम में पेमेंट आसानी से नहीं मिलता। देने वाले बहुत आज कल कराते हैं।

भोंदू ने अपने काम के खतरे बताने चालू किये। वह हमारे पास आ कर जमीन पर बैठ गया और बोला कि वहां जंगल में बहुत शेर, भालू हैं। उनके डर के बावजूद हम वहां जा कर पत्ते लाते हैं।

अच्छा, शेर देखे वहां? काफी नुकीले सवाल पर उसने बैकट्रेक किया - भालू तो आये दिन नजर आते हैं।

इतने में उस समूह का तीसरा आदमी सामने आया। वह सबसे ज्यादा सजाधजा था। उसके पास दो लग्गियाँ थीं। नाम बताया- दसमी। दसमी ने ज्यादा बातचीत नहीं की। वह संभवत कौतूहल वश आगे आया था और अपनी फोटो खिंचाना चाहता था।

[caption id="" align="alignnone" width="600"]image कॉलम १ - ऊपर रामलोचन चुनौटी खरोंचते। नेपथ्य में गोल की महिलायें। नीचे भोन्दू। कॉलम २ - रामलोचन लग्गी लिये। कॉलम ३ - ऊपर दसमी और नीचे भोन्दू।[/caption]

सिंगरौली की गाड़ी आ गयी थी। औरते अपने गठ्ठर उठाने लगीं। वे और आदमी जल्दी से ट्रेन की और बढ़ने लगे। भोंदू फिर भी पास बैठा रहा। उसे मालूम था कि गाड़ी खड़ी रहेगी कुछ देर।

टिकट लेते हो?

भोंदू ने स्पष्ट किया कि नहीं। टीटीई ने आज तक तंग नहीं किया। पुलीस वाले कभी कभी उगाही कर लेते हैं।

कितना लेते हैं? उसने बताया - यही कोइ दस बीस रूपए।

मेरा ब्लॉग रेलवे वाले नहीं पढ़ते। वाणिज्य विभाग वाले तो कतई नहीं। :-D पुलीस वाले भी नहीं पढ़ते होंगे। अच्छा है। :)

रेलवे कितनी समाज सेवा करती है। उसके इस योगदान को आंकड़ो में बताया जा सकता है? या क्या भोंदू और उसके गोल के लोग उसे रिकोग्नाइज करते हैं? नहीं। मेरे ख्याल से कदापि नहीं।

पर मुझे भोंदू और उसकी गोल के लोग बहुत आकर्षक लगे। उनसे फिर मिलाना चाहूँगा।

Sunday, March 24, 2013

सन्तोष कुमार सिंह

[caption id="" align="alignnone" width="500"]image श्री संतोष कुमार सिंह (दायें) के साथ मैं।[/caption]

आज श्री सन्तोष कुमार सिंह मिलने आये। वे टोकियो, जापान से कल शाम नई दिल्ली पंहुचे और वहां से अपने घर वाराणसी जा रहे थे। रास्ते में यहां उतर कर मुझसे मिलने आये।

सन्तोष तेरह साल से जापान में हैं। वे जे.एन.यू. में थे और स्कॉलरशिप से जापान पंहुचे। वहां एम.बी.ए. की पढ़ाई कर वापास भारत लौटे तो परिथितियां कुछ ऐसी बनी कि पुन: जापान जाना पड़ा और अब वहां से आते जाते रहते हैं। अभी होली पर आये हैं। फिर शायद दीपावली पर आना हो। उनसे बातचीत में लगा कि उनतीस मार्च तक उनका व्यस्त कार्यक्रम है। यहां से अपने पिताजी के पास वारणसी जायेंगे। फिर शायद अपने पैत्रिक गांव भी जाना हो।

[caption id="attachment_6735" align="alignright" width="584"]श्री संतोष कुमार सिंह का फेसबुक प्रोफाइल श्री संतोष कुमार सिंह का फेसबुक प्रोफाइल[/caption]

एक गोल गले का टीशर्ट-ट्राउजर पहने यात्रा की थकान से उनींदे होने पर भी सन्तोष सिंह मुझे ऊर्जा से ओतप्रोत लगे। सवेरे पुरुषोत्तम एक्स्प्रेस से रेलवे स्टेशन उतर कर उन्होने अपना सामान क्लॉक रूम के हवाले किया और ढूंढ कर पता किया मेरा मोबाइल नम्बर, शिवकुटी की लोकेशन आदि। कोटेश्वर महादेव मन्दिर तक वे स्वयम् के पुरुषार्थ से पंहुचे।

ऐसी जद्दोजहद क्यों की उन्होने? स्वयम् ही बताया सन्तोष ने - जीवन में कुछ एक घटनायें हुई हैं, जिनमें मैं जिनसे मिलना चाहता था, मिल न पाया। अत: अब जिनसे मिलने का एक बार मन में आता है; उसे खोज-खोज कर मिल लेता हूं। यह मैं टालना नहीं चाहता।

क्या कहेंगे? खब्ती? असल में दुनियां का चरित्र इसी तरह के जुनूनी लोगों के बल पर कायम है। वो लोग जो एक चीज करना चाहते हैं, तो करने में जुट जाते हैं। कम ह्वाट मे!

संतोष मेरे पास लगभग पौना घण्टा रहे। मेरी पत्नीजी से पूरे आदर भाव (चरण स्पर्श करते हुये) से मिले। लम्बे अर्से से जापान में रहने के बावजूद भी इस तरह के संस्कार मिटे नहीं, इसमें संतोष की चारित्र्यिक दृढ़ता दीखती है मुझे।

संतोष मेरे लिये एक पुस्तक और एक जापानी मिठाई का पैकेट लाये थे। उनके साथ जापान के बारे में बातचीत हुई और जितना कुछ हुई, उससे उस देश के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा बलवती हो गयी है। अब नेट पर जापान विषयक सामग्री और पुस्तकें तलाशनी होंगी।

संतोष ने मुझे जापान आने के बारे में कहा और यह भी बताया कि जिन कारणों से मैं इलाहाबाद आ गया हूं (माता-पिता के वृद्धावस्था के कारण), लगभग उन्ही तरह के कारणों से अगले कुछ वर्षों में शायद उन्हे भी भारत वापस आना पड़े [आपके पिताजी आपके साथ जापान नहीं रह सकते? जवाब - "पिताजी को रोज सवेरे दैनिक जागरण का ताजा प्रिण्ट एडीशन चाहिये; वह जापान में कहां मिलेगा?"]। हम दोनो ने बातचीत में यह सहमति भी जताई की इसके बाद की पीढ़ियों से भारत वापस आने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। अभी कल ही गैलप पोल का एक विवरण पढ़ा है कि एक करोड़ भारतीय स्थाई रूप से अमेरिका बसने के इच्छुक हैं!

जापान में व्यवस्था, भारत की अव्यवस्था के ठीक उलट है। संतोष ने बताया कि उनके पिताजी बार बार कहते थे कि वहां काहे पड़े हो, भारत आ जाओ। पर साल वे पिताजी को जापान ले कर गये और वहां का माहौल देख कर वे प्रभावित हुये। अब वे मानते हैं कि जापान में रहने के भी ठोस तर्क हैं।

संतोष ने हमसे कुछ हिन्दी पुस्तकों के बारे में पूछा। मैने उन्हे श्री अमृतलाल वेगड़ जी की पुस्तक "तीरे तीरे नर्मदा" की एक प्रति दी, जो मेरे पास अतिरिक्त आ गयी थी और सुपात्र की प्रतीक्षा में थी। उन्हे विश्वनाथ मुखर्जी की "बना रहे बनारस" और बृजमोहन व्यास की "कच्चा चिठ्ठा" पढ़ने की अनुशंसा भी मेरी पत्नी जी ने की।

संतोष कुछ ही समय रहे हम लोगों के साथ। मिलना बहुत अच्छा लगा। और मुझे यह भी लगा कि इस नौजवान से मिलनसार बनने का गुरु-मन्त्र मुझे लेना चाहिये!

संतोष बोल कर गये हैं कि शायद दीपावली में पुन: मिलना हो। प्रतीक्षा रहेगी उनकी!

Wednesday, October 3, 2012

अर्शिया

[caption id="attachment_6202" align="aligncenter" width="584"] अर्शिया की वेब-साइट का बैनर हेडिंग।[/caption]

अर्शिया एक “माल यातायात का पूर्ण समाधान” देने वाली कम्पनी है। इसके वेब साइट पर लिखा है कि यह सप्लाई-चेन की जटिलता को सरल बनाती है। विश्व में कहीं से भी आयात निर्यात, भारत में फ्री-ट्रेड वेयरहाउसिंग जोन, रेल यातायात नेटवर्क और ग्राहक के कार्यस्थल से सामान लाने ले जाने की सुविधायें प्रदान करती है यह कम्पनी।

[caption id="attachment_6199" align="alignright" width="300"] खुर्जा में आर्शिया का हरा भरा परिसर।[/caption]

हाल ही में इस कम्पनी ने खुर्जा में अपना एक टर्मिनल प्रारम्भ किया है। खुर्जा मेरे उत्तर-मध्य रेलवे का एक स्टेशन है। यह दिल्ली से लगभग ८० किलोमीटर पर है और उत्तरी राजधानी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह भविष्य में आने जा रहे पूर्वी और पश्चिमी डेडीकेटेड-फ्रेट कॉरीडोर के संगम के समीप है। निश्चय ही आर्शिया ने इस क्षेत्र के हो रहे और होने वाले लॉजिस्टिक विकास में अपना निवेश किया है। उनकी मानें तो डेढ़ हजार करोड़ का निवेश!

खुर्जा में इस कम्पनी के टर्मिनल में चार-पांच कण्टेनर लदी मालगाड़ियां डील करने की सुविधा बनाई गयी है। इसमें छ लाइनें हैं और पचास एकड़ में यह रेल टर्मिनल है। इसी रेल टर्मिनल से जुड़ा १३० एकड़ में इनलैण्ड कण्टेनर डीपो (जिसमें कस्टम क्लियरेंस की सभी सुविधायें होंगी) और १३५ एकड़ में फ्री-ट्रेड वेयरहाउसिंग जोन है। ये सभी सुविधायें (लगभग) तैयार हैं।

[caption id="attachment_6198" align="aligncenter" width="584"] अर्शिया की खुर्जा की रेलवे साइडिंग में रेल वैगनों पर कण्टेनर लादने-उतारने के लिये आर.टी.जी (रेल ट्रान्सपोर्ट गेण्ट्री)।[/caption]

चूंकि रेल सुविधायें रेलवे से तालमेल कर चलने वाली हैं, मैने पिछले सप्ताह वहां का एक दौरा किया – अपनी आखों से देखने के लिये कि वहां तैयारी कैसी है और सुविधायें किस स्तर की हैं।

और देखने पर मैने पाया कि बहुत ही भव्य लगता है यह पूरा परिसर। सभी सुविधायें बनाते समय कोई कंजूसी नहीं की गयी लगती। अभी चूंकि सुविधाओं का दोहन १०-१५% से ज्यादा नहीं हुआ है, तो सफाई का स्तर बहुत अच्छा पाया वहां मैने। आगे देखना होगा कि जब पूरी क्षमता से यह टर्मिनल काम करेगा, तब व्यवस्था ऐसी ही रहती है या चरमराती है।

मैने कम्पनी के प्रतिनिधियों से चर्चा करते समय अपना रेल अधिकारी का मुखौटा ही सामने रखा था; एक ब्लॉगर का नहीं। और किसी भी समय यह नहीं कहा था कि उनके बारे में ब्लॉग पर भी लिख सकता हूं। अत: यह उचित नहीं होगा कि मैं कुछ विस्तार से लिखूं/प्रस्तुत करूं।


आर्शिया के इस रेल टर्मिनल को देख बतौर ब्लॉगर तो मैं प्रसन्न था। पर बतौर उत्तर-मध्य रेलवे के माल यातायात प्रबंधक; मेरी अपेक्षा है कि इस परिसर से मुझे प्रतिदिन दो से तीन रेक का लदान मिलेगा। अर्थात महीने में लगभग लाख-सवा लाख टन का प्रारम्भिक माल लदान।

लेकिन अब कम्पनी वालों का कहना है कि आने वाले श्राद्ध-पक्ष के कारण लदान की कारवाई १५ अक्तूबर से पहले नहीं हो पायेगी! :-(


बतौर एक ब्लॉगर, अपना यह सोचना अवश्य व्यक्त करूंगा कि जिस स्तर पर आर्शिया ने निवेश किया है और जैसा भव्य इन्फ्रास्ट्रक्चर कायम किया है उन्होने; उससे लगता है कि इस कम्पनी को भारत की उभरती आर्थिक ताकत और भविष्य में आनेवाले पूर्वी-पश्चिमी डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के संगम पर खुर्जा में होने का बहुत भरोसा है।

लगता है, उन्होने भारत के भविष्य पर निवेश का दाव चला है। यह रिस्की हो सकता है; पर आकर्षित तो करता ही है!

[आशा करता हूं कि अगली बार अगर मैं वहां गया तो बतौर रेल अफसर ही नहीं, बतौर एक ब्लॉगर भी जाऊंगा। और वे कम्पनी वाले एक ब्लॉगर को देख असहज नहीं होंगे – स्वागत करेंगे!]

[slideshow]

Monday, August 6, 2012

डाटा

जब (सन् 1984) मैने रेलवे सर्विस ज्वाइन की थी, तब रेलवे के यार्ड और स्टेशनों से ट्रेन चलने का डाटा इकठ्ठा करने के लिये ट्रेन्स क्लर्क दिन रात लगे रहते थे। एक मालगाड़ी यार्ड में आती थी तो वैगनों का नम्बर टेकर पैदल चल कर उनके नम्बर उतारता था। यार्ड के दफ्तर में हर आने जाने वाली गाड़ी का रोजनामचा हाथ से भर जाता था। वैगनों का आदानप्रदान जोड़ा जाता था। हर आठ घण्टे की शिफ्ट में उसकी समरी बनती थी। इसी तरह ट्रेनों के आने जाने का हिसाब गाड़ी नियन्त्रक हाथ से जोड़ते थे।

मैने इलेक्ट्रानिक्स इन्जीनियरिंग पढ़ी थी अपने एकेडमिक लाइफ में। पर यहां मैने जल्दी जल्दी पूरा प्रयास कर वह दिमाग से इरेज़ कर आठवीं दर्जे का जोड़-बाकी-गुणा-भाग री-फ्रेश किया। उससे ज्यादा का ज्ञान ट्रेन चलाने में काउण्टर प्रोडक्टिव था।

हर रोज इतना अधिक डाटा (आंकड़े) से वास्ता पड़ता था (और अब भी पड़ता है) कि डाटा के प्रति सारी श्रद्धा वाष्पीकृत होने में ज्यादा समय नहीं लगा था मुझे।

 बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?



उस जमाने में डाटा को लेकर मन में विचार बनता था कि जितनी वर्जिनिटी की अपेक्षा एक प्रॉस्टीट्यूट से की जा सकती है, उतनी डाटा से करनी चाहिये। पर उस डाटा से भी जितने काम के मैनेजमेण्ट निर्णय हम ले पाते थे, वह अपने आप में अद्भुत था।

अब समय बदल गया है। ट्रेन रनिंग के सारे आंकड़े रीयल टाइम बनते हैं। उनमें हेर फेर करना बहुत कठिन काम है - और उसके लिये जिस स्तर के आर्ट की जरूरत होती है, वह आठवीं दर्जे के गणित की बदौलत नहीं आ सकता। उससे ज्यादा की अपनी केपेबिलिटी नहीं बची। :sad:

[caption id="attachment_6027" align="alignleft" width="800"] माल यातायात की सूचना प्रणाली का पोर्टल। यह इतना ज्यादा डाटा (सूचना के आंकड़े - कच्चे और परिष्कृत/प्रॉसेस्ड) देता है कि सिर भन्ना जाये! :-)[/caption]

बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?

मुझे मालुम है रेलवे में लोग, सिर्फ तर्क देने की गरज से मेरी यह सोच डिनाउंस करेंगे। और मेरा कहना आउट राइट खारिज कर दिया जायेगा। पर बेहतर बात यह है कि रेलवे वाले मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ते@।

[@ - रेलवे में तो कोई यह मानता/जानता ही नहीं कि मैं हिन्दी में लिखता हूं! किसी हिन्दी के समारोह में मुझे नहीं बुलाया जाता। जब लोग हिन्दी के फंक्शन में समोसा-पेस्ट्री उडाते अपने ईनाम के लिफाफे जेब में ठूंस रहे होते हैं, मैं अपने आठवीं दर्जे के गणित से गाड़ियां गिन रहा होता हूं, अपने चैम्बर में! :lol: ]

मेरी सारी नौकरी डाटा से काम करते बीत गयी है - अब तक। पर डाटा के प्रति अश्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती गयी है!


Saturday, April 7, 2012

हिन्दी वाले और क्लाउट

क्लाउट (Klout.com) सोशल मीडिया पर सक्रियता का एक सशक्त इण्डेक्स है। यह 2008 से इण्टरनेट पर लोगों की सक्रियता माप रहा है। इसकी वेब साइट के अनुसार यह आपकी एक्शन करा पाने की क्षमता का आकलन करता है। जब आप इण्टरनेट पर कुछ सृजित करते हैं तो सोशल नेटवर्क से उसके बारे में जानकारी एकत्र कर आपका प्रभाव जांचता है। यह यह जांचता है कि आप कितने लोगों को प्रभावित करते हैं (True Reach); आपका उनपर कितना प्रभाव पड़ता है (Amplification) और आपका सोशल मीडिया पर जो तंत्र बना है, वह कितना प्रभावी है (Network Impact)|

klout

इण्टरनेट पर आपका प्रभाव जांचने के कुछ और भी इण्डेक्स हैं, पर क्लाउट उन सब में ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला लगता है।

इसका प्रयोग करने के लिये आपको क्लाउट पर अपने फेसबुक या ट्विटर आई.डी. से लॉग-इन करना होता है और नेट पर अपनी उपस्थिति के सूत्र - मसलन ब्लॉगर, वर्डप्रेस, यू-ट्यूब, फ्लिकर, गूगल+ आदि की आईडेण्टिटी बतानी होती है। उसके बाद यह नेट पर आपकी सामग्री सर्च कर आपकी सक्रियता का इण्डेक्स बताता है।

मुझे लगता था कि इण्टरनेट पर हिन्दी ब्लॉगर्स और कालांतर में फेसबुक पर हिन्दी वालों का अपना समूह तो है, पर दिग्गज प्रभुत्व तो अंगरेजी वालों का है। ट्विटर पर हिन्दी वाले मात्र अपना तम्बू बनाये हैं जिसपर मौलिक ट्वीट्स की बजाय अपनी ब्लॉग पोस्टों की सूचना भर देते हैं।

पर जब मैने क्लाउट पर अपने आप को रजिस्टर किया तो पाया कि एक सीमित नेटवर्क होने के बावजूद मेरा क्लाउट स्कोर कई दिग्गजों के समकक्ष या अधिक ही है। मसलन सुब्रह्मण्य़ स्वामी (क्लाउट स्कोर 71), बिबेक देबरॉय (56), न्यूयॉर्क टाइम्स के पॉल क्रूगमैन (65) और थॉमस फ्रीडमैन (68) की तुलना में मेरा वर्तमान क्लाउट स्कोर (65-68) अच्छा ही माना जायेगा।



अभी मैने पाया कि संजीत त्रिपाठी, गिरिजेश राव, प्राइमरी के मास्टर प्रवीण त्रिवेदी और विवेक रस्तोगी क्रमश 58, 66, 60 और 65 के स्कोर के साथ क्लॉउट पर सशक्त उपलब्धि रखते हैं। इन लोगों की फेसबुक पर उपस्थिति जब से क्लॉउट पर दर्ज हुई है, इनका क्लॉउट स्कोर 15-20 से दन्न से बढ़ कर 60 को छूने लगा।

कुल मिला कर हिन्दी वालों का नेटवर्क भले ही छोटा हो, उसकी प्रभावोत्पादकता का इण्डेक्स बहुत अच्छा है। यह मैने पाया है कि दिन भर ट्विटर-फेसबुक पर चफने रहने वाले अंगरेजी वाले मित्रों की तुलना में उनका क्लॉउट स्कोर कहीं ज्यादा है।

बेहतर होगा अगर हिन्दी वाले अपना तामझाम क्लॉउट पर दर्ज करायें और हिन्दी नेटवर्क को और पुष्ट करें!

Thursday, February 16, 2012

जवाहिरलाल का बोण्ड्री का ठेका

जवाहिरलाल कई दिन से शिवकुटी घाट पर नहीं था। पण्डाजी ने बताया कि झूंसी में बोण्ड्री (बाउण्ड्री) बनाने का ठेका ले लिया था उसने। उसका काम खतम कर दो-तीन दिन हुये वापस लौटे।

आज (फरवरी 14'2012) को जवाहिरलाल अलाव जलाये बैठा था। साथ में एक और जीव। उसी ने बताया कि "कालियु जलाये रहे, परऊं भी"। अर्थात कल परसों से वापस आकर सवेरे अलाव जलाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया है उसने। अलाव की क्वालिटी बढ़िया थी। ए ग्रेड। लोग ज्यादा होते तो जमावड़ा बेहतर होता। पर आजकल सर्दी एक्स्टेण्ड हो गयी है। हल्की धुन्ध थी। सूर्योदय अलबत्ता चटक थे। प्रात: भ्रमण वाले भी नहीं दीखते। गंगा स्नान करने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे।

[caption id="attachment_5368" align="aligncenter" width="584" caption="जवाहिरलाल अलाव के पास चुनाव का पेम्फलेट निहारते हुये।"][/caption]

जवाहिरलाल के ठेके के बारे में उसीसे पूछा। झूंसी में कोई बाउण्ड्री वॉल बनाने का काम था। जवाहिरलाल 12-14 मजदूरों के साथ काम कराने गया था। काम पूरा हो गया। मिस्त्री-मजदूरों को उनका पैसा दे दिया है उसने पर उसको अभी कुछ पैसा मिलना बकाया है। ... जवाहिरलाल को मैं मजदूर समझता था, वह मजदूरी का ठेका भी लेने की हैसियत रखता है, यह जानकर उसके प्रति लौकिक इज्जत भी बढ़ गयी। पैर में चप्पल नहीं, एक लुंगी पहने सर्दी में एक चारखाने की चादर ओढ़ लेता है। पहले सर्दी में भी कोई अधोवस्त्र नहीं पहनता था, इस साल एक स्वेटर पा गया है कहीं से पहनने को। सवेरे अलाव जलाये मुंह में मुखारी दबाये दीखता है। यह ठेकेदारी भी कर सकता है! कोटेश्वर महादेव भगवान किसके क्या क्या काम करवा लेते हैं!

एक बसप्पा का आदमी कल होने वाले विधान सभा के चुनाव के लिये अपने कैण्डीडेट का पर्चा बांट गया। जवाहिरलाल पर्चा उलट-पलट कर देख रहा था। मैने पूछा - तुम्हारा नाम है कि नहीं वोटर लिस्ट में?

नाहीं। गाऊं (मछलीशहर में बहादुरपुर गांव है उसका) में होये। पर कब्भौं गये नाहीं वोट देई। (नहीं, गांव में होगा, पर कभी गया नहीं वोट देने)। पण्डाजी ने बताया कि रहने की जगह पक्की न होने के कारण जवाहिर का वोटर कार्ड नहीं बना।
रहने के पक्की जगह? हमसे कोई पूछे - मानसिक हलचल ब्लॉग और शिवकुटी का घाट उसका परमानेण्ट एड्रेस है। :lol:

खैर, बहुत दिनों बाद आज जवाहिर मिला तो दिन मानो सफल शुरू हुआ!

[caption id="attachment_5369" align="aligncenter" width="584" caption="गंगाजी के कछार में कल्लू के खेत में सरसों में दाने पड़ गये हैं। एक पौधे के पीछे उगता सूरज।"][/caption]

Thursday, February 9, 2012

विश्वनाथ जी की जय हो!

ओह, मैं काशी विश्वनाथ की बात नहीं कर रहा। मैं बंगलौर से हो कर आ रहा हूं और श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ज्योति विश्वनाथ की बात कर रहा हूं! उनको अपने ब्लॉग के निमित्त मैं जानता था। मेरे इस ब्लॉग पर उनकी अनेक अतिथि पोस्टें हैं। उनकी अनेक बड़ी बड़ी, सारगर्भित टिप्पणियां मेरी कई पोस्टों का कई गुणा वैल्यू-एडीशन करती हुई मौजूद हैं। उनके ऑक्सफोर्ड में पढ़ रहे रोड्स स्कॉलर सुपुत्र नकुल के बारे में आप दो-तीन पोस्टों में जान पायेंगे। कुल मिला कर विश्वनाथ जी के परिचय के रूप में इस ब्लॉग पर बहुत कुछ है।

पर जब बंगलौर जा कर उनसे साक्षात मिलना हुआ तो उन्हे जितना सोचा था, उससे कहीं ज्यादा जुझारू और ओजस्वी व्यक्ति पाया। वे सपत्नीक अपने घर से रेलवे स्टेशन के पास दक्षिण मध्य रेल के बैंगळूरु मण्डल के वरिष्ठ मण्डल रेल प्रबन्धक श्री प्रवीण पाण्डेय के चेम्बर में आये। पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार मैं वहां पंहुचा हुआ था। आते ही उनके प्रसन्न चेहरे, जानदार आवाज और आत्मीयता से कमरा मानो भर गया। हमने हाथ मिलाने को आगे बढ़ाये पर वे हाथ स्वत: एक दूसरे को आलिंगन बद्ध कर गये - मानों उन्हे मस्तिष्क से कोई निर्देश चाहिये ही न थे इस प्रक्रिया में।

श्री विश्वनाथ बिट्स पिलानी में मेरे सीनियर थे। मैं जब वहां गया था, तब वे शायद 4थे या 5वें वर्ष में रहे होंगे। वहां हम कभी एक दूसरे से नहीं मिले। अब तक मेल मुलाकात भी वर्चुअल जगत में थी। प्रवीण के चेम्बर में हम पहली बार आमने सामने मिल रहे थे। विश्वनाथ जी ने मुझसे कहा कि उनके मन में मेरी छवि एक लम्बे कद के व्यक्ति की थी! यह बहुधा होता है कि हम किसी की एक छवि मन में बनते हैं और व्यक्ति कुछ अलग निकलता है। पर विश्वनाथ जी या उनकी पत्नीजी की जो छवि मेरे मन में थी, उसके अनुसार ही पाया मैने उन्हें!

श्री विश्वनाथ जी ने अपने कार्य के दिनों को कुछ अर्सा हुआ, अलविदा कह अपने "जूते टांग दिये" हैं। उनके सभी दस-पन्द्रह कर्मचारियों को टेकओवर करने वाली कम्पनी ने उसी या उससे अधिक मेहनताने पर रख लिया है। फिलहाल उनके घर का वह हिस्सा, जो उनकी कम्पनी का दफ्तर था, अब भी है - टेकओवर करने वाली कम्पनी ने किराये पर ले लिया है। नये उपकरण आदि लगाये हैं और कार्य में परिवर्धन किया है। काफी समय विश्वनाथ जी उस नयी कम्पनी के सलाहकार के रूप में रहे। पर अपने स्वास्थ्य आदि की समस्याओं, अपनी उम्र और शायद यह जान कर कि कार्य में जुते रहने का कोई औचित्य नहीं रहा है, उन्होने रिटायरमेण्ट ले लिया।

श्री विश्वनाथ ने डेढ़ साल पहले अपनी अतिथि पोस्ट में लिखा था - 


अप्रैल महीने में अचानक मेरा स्वास्थ्य बिगड गया था। सुबह सुबह रोज़ कम से कम एक घंटे तक टहलना मेरी सालों की आदत थी। उस दिन अचानक टहलते समय छाती में अजीब सा दर्द हुआ। कार्डियॉलोजिस्ट के पास गया था और ट्रेड मिल टेस्ट से पता चला कि कुछ गड़बडी है। एन्जियोग्राम करवाया, डॉक्टर ने। पता चला की दो जगह ९९% ओर ८०% का ब्लॉकेज है। डॉक्टर ने कहा कि हार्ट अटैक से बाल बाल बचा हूँ और किसी भी समय यह अटैक हो सकता है। तुरन्त एन्जियोप्लास्टी हुई और तीन दिन के बाद मैं घर वापस आ गया पर उसके बाद खाने पीने पर काफ़ी रोक लगी है। बेंगळूरु में अपोल्लो होस्पिटल में मेरा इलाज हुआ था और साढे तीन लाख का खर्च हुआ। सौभाग्यवश मेरा इन्श्योरेंस "अप टु  डेट" था और तीन लाख का खर्च इन्श्योरेंस कंपनी ने उठाया था।


अब वे रिटायरमेण्ट का आनन्द ले रहे हैं।

उन्हे हृदय की तकलीफ हुई थी। काफी समय वे अस्पताल में  भी रहे। उनके एक पैर में श्लथता अभी भी है। उसके अलावा वे चुस्त दुरुस्त नजर आते हैं।

प्रवीण के चैम्बर में हम लोगों ने कॉफी-चाय के साथ विविध बातचीत की। श्रीमती विश्वनाथ बीच बीच में भाग लेती रहीं वार्तालाप में। बैंगळूरु में बढ़ते यातायात और बहुत तेज गति से होते निर्माण कार्य पर उन दम्पति की अपनी चिंतायें थीं। वाहन चलाना कठिन काम होता जा रहा है। कुछ ही समय में सड़कों का प्रकार बदल जा रहा है। अब बहुत कम सड़कें टू-वे बची हैं। पार्किंग की समस्या अलग है।

साठ के पार की अपनी उम्र में भी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के प्रति अपनी जिज्ञासा और समझ को प्रदर्शित करने में श्री विश्वनाथ एक अठ्ठारह साल के किशोर को भी मात दे रहे थे। बहुत चाव से उन्होने अपने आई-पैड और सेमसंग गेलेक्सी नोट को मुझे दिखाया, उनके फंक्शन बताये। इतना सजीव था उनका वर्णन/डिमॉंस्ट्रेशन कि अगर वे ये उपकरण बेंच रहे होते और मेरी जेब में उतने पैसे होते तो मैं खरीद चुका होता - देन एण्ड देयर!

हम लोग लगभग डेढ़ घण्टा प्रेम से बतियाये। श्री विश्वनाथ को अस्पताल में भर्ती अपने श्वसुर जी के पास जाना था; सो, प्रवीण, मैं और प्रवीण के तीन चार कर्मचारी उन्हे दफ्तर के बाहर छोड़ने आये। यहां उनकी इलेक्ट्रिक कार रेवा खड़ी थी। रेवा के बारे में आप जानकारी मेरी पहले की पोस्ट पर पा सकते हैं। श्री विश्वनाथ ने सभी को उसी ऊर्जा और जोश से रेवा के बारे में बताया, जैसे वे चेम्बर में अपने आई-पैड और गेलेक्सी टैब के बारे में बता रहे थे।

मैने कहा कि आप तो किसी भी चीज के स्टार सेल्समैन बन सकते हैं। वह काम क्यों नहीं किया?

उत्तर विश्वनाथ जी की पत्नीजी ने दिया - कभी नहीं बन सकते! जब वह सामान बेचने की डील फिक्स करने का समय आयेगा तो ये उस गैजेट के एक एक कर सारे नुक्स भी बता जायेंगे। सामान बिकने से रहा! :-)

मुझे लगता है कि श्रीमती विश्वनाथ के इस कमेण्ट में श्री विश्वनाथ की नैसर्गिक सरलता झलकती है। वे मिलनसारिता की ऊष्मा-ऊर्जा से लबालब एक प्रतिभावान व्यक्तित्व हैं, जरूर; पर उनमें दुनियांदारी का छद्म नहीं है। जो वे अन्दर हैं, वही बाहर दीखते हैं। ट्रांसपेरेण्ट!

उनसे मिल कर जैसा लगा, उसे शब्दों में बांधना मुझ जैसे शब्द-गरीब के लिये सम्भव नहीं।

श्रीमती और श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की जय हो!

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Tuesday, February 7, 2012

छ लोगों के ब्लॉगिंग (और उससे कुछ इतर भी) विचार

कल शाम हम छ लोग मिले बेंगळुरू में। तीन दम्पति। प्रवीण पाण्डेय और उनकी पत्नी श्रद्धा ने हमें रात्रि भोजन पर आमंत्रित किया था। हम यानि श्रीमती आशा मिश्र और उनके पति श्री देवेन्द्र दत्त मिश्र तथा मेरी पत्नीजी और मैं।

[caption id="attachment_5223" align="aligncenter" width="584" caption="बांये से - प्रवीण, देवेन्द्र और आशा"][/caption]

प्रवीण पाण्डेय का सफल ब्लॉग है न दैन्यम न पलायनम। देवेन्द्र दत्त मिश्र का भी संस्कृतनिष्ठ नाम वाला ब्लॉग है - शिवमेवम् सकलम् जगत। श्रद्धा पाण्डेय और आशा मिश्र फेसबुक पर सक्रिय हैं। मेरी पत्नीजी (रीता पाण्डेय) की मेरे ब्लॉग पर सक्रिय भागीदारी रही ही है। इस आधार पर हम सभी इण्टरनेट पर हिन्दी भाषियों के क्रियाकलाप पर चर्चा में सक्षम थे।

सभी यह मानते थे कि हिन्दी में और हिन्दी भाषियों की सोशल मीडिया में सक्रियता बढ़ी है। फेसबुक पर यह छोटी छोटी बातों और चित्रों को शेयर करने के स्तर पर है और ब्लॉग में उससे ज्यादा गहरे उतरने वाली है।

[caption id="attachment_5225" align="aligncenter" width="584" caption="देवेन्द्र और आशा मिश्र (सम्भवत: सिंगापुर में) चित्र आशा मिश्र के फेसबुक से डाउनलोड किया गया।"][/caption]

देवेन्द्र दत्त मिश्र बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल विद्युत अभियंता हैं। वे एक घण्टा आने जाने में अपने कम्यूटिंग के समय में अपनी ब्लॉग-पोस्ट लिख डालते हैं। चूंकि उन्होने लिखना अभी ताजा ताजा ही प्रारम्भ किया है, उनके पास विचार भी हैं, विविधता भी और उत्साह भी। वे हिन्दी ब्लॉगिंग को ले कर संतुष्ट नजर आते हैं। अपने ब्लॉग पर पूरी मनमौजियत से लिखते भी नजर आते हैं।

आशा मिश्र के फेसबुक प्रोफाइल पन्ने पर पर्याप्त सक्रियता नजर आती है। वहां हिन्दी भाषा की पर्याप्र स्प्रिंकलिंग है। वे उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल के उन भागों से जुड़ी हैं, जहां अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता हवा में परागकणों की तरह बिखरी रहती है।

प्रवीण हिन्दी ब्लॉगरी में अर्से से सक्रिय हैं और अन्य लोगों की पोस्टें पढ़ने/प्रतिक्रिया देने में इस समय शायद लाला समीरलाल पर बीस ही पड़ते होंगे (पक्का नहीं कह सकता! :lol: )। प्रवीण ने विचार व्यक्त किया कि बहुत प्रतिभाशाली लोग भी जुड़े हैं हिन्दी ब्लॉगिंग से। लोग विविध विषयों पर लिख रहे हैं और उनका कण्टेण्ट बहुत रिच है।

[caption id="attachment_5224" align="aligncenter" width="584" caption="प्रवीण और श्रद्धा पाण्डेय अपने बच्चों के साथ। चित्र श्रद्धा पाण्डॆय के फेसबुक से डाउनलोड किया गया।"][/caption]

मेरा कहना था कि काफी अर्से से व्यापक तौर पर ब्लॉग्स न पढ़ पाने के कारण अथॉरिटेटिव टिप्पणी तो नहीं कर सकता, पर मुझे यह जरूर लगता है कि हिन्दी ब्लॉगरी में प्रयोगधर्मिता की (पर्याप्त) कमी है। लोग इसे कागज पर लेखन का ऑफशूट मानते हैं। जबकि इस विधा में चित्र, वीडियो, स्माइली, लिंक, टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी की अपार सम्भावनायें हैं, जिनका पर्याप्त प्रयोग ब्लॉगर लोग करते ही नहीं। लिहाजा, जितनी विविधता या जितनी सम्भावना ब्लॉग से निचोड़ी जानी चाहियें, वह अंश मात्र भी पूरी नहीं होती।

हमने श्रद्धा पाण्डेय का वेस्ट मैनेजमेण्ट पर उनके घर-परिवेश में किया जाने वाला (अत्यंत सफल) प्रयोग देखा। उन्होने बहुत उत्साह से वह सब हमें बताया भी। रात हो गयी थी, सो हम पौधों और उपकरणों को सूक्ष्मता से नहीं देख पाये, पर इतना तो समझ ही पाये कि जिस स्तर पर वे यह सब कर रही हैं, उस पर एक नियमित ब्लॉग लिखा जा सकता है, जिसमें हिन्दी भाषी मध्यवर्ग की व्यापक रुचि होगी। ... पर ऐसा ब्लॉग प्रयोग मेरे संज्ञान में नहीं आया। मुझे बताया गया कि श्री अरविन्द मिश्र ने इसपर एक पोस्ट में चर्चा की थी। वह देखने का यत्न करूंगा। पर यह गतिविधि एक नियमित ब्लॉग मांगती है - जिसमें चित्रों और वीडियो का पर्याप्त प्रयोग हो।

तो, ब्लॉगिंग/सोशल मीडिया से जुड़े लोगों की कलम और सोच की ब्रिलियेंस एक तरफ; मुझे जो जरूरत नजर आती है, वह है इसके टूल्स का प्रयोग कर नयी विधायें विकसित करने की। और उस प्रॉसेस में भाषा  के साथ प्रयोग हों/ परिवर्तन हों तो उससे न लजाना चाहिये, न भाषाविदों की चौधराहट की सुननी चाहिये!