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Saturday, April 6, 2013

जवाहिरलाल एकाकी है!

scaled_image_1तीन महीने से ऊपर हुआ, जवाहिरलाल और पण्डाजी के बीच कुछ कहा सुनी हो गयी थी। बकौल पण्डा, जवाहिरलाल बीमार रहने लगा है। बीमार और चिड़चिड़ा। मजाक पर भी तुनक जाता है और तुनक कर वह घाट से हट गया। आजकल इधर आता नहीँ पांच सौ कदम दूर रमबगिया के सामने के मैदान मेँ बैठ कर मुखारी करता है।

बीच में एक दो बार दिखा था मुझे जवाहिर। यह कहने पर कि यहीं घाट पर आ कर बैठा करो; वह बोला था - आये से पण्डा क घाट खराब होई जाये। (आने से पण्डा का घाट खराब हो जायेगा)। वह नहीं आया।

बीच में हम नित्य घाट पर घूमने वालों ने आपस में बातचीत की कि एक दिन चल कर जवाहिरलाल को मना कर वापस लाया जाये; पर वह चलना कभी हो नहीं पाया। कभी हम लोग साथ नहीं मिले और कभी जवाहिर नहीं नजर आया। अलबत्ता, जवाहिर के बिना शिवकुटी घाट की रहचह में वह जान नहीं रही। पूरा कुम्भ पर्व बिना जवाहिरलाल के आया और निकल गया।

आज मैने देखा - जवाहिर अकेले रमबगिया के सामने बैठा है। तेज कदमों से उसकी तरफ बढ़ गया मैं। अकेला था, वह, कोई बकरी, कुकुर या सूअर भी नहीँ था। मुखारी कर रहा था और कुछ बड़बड़ाता भी जा रहा था। मानो कल्पना की बकरियों से बात कर रहा हो - जो वह सामान्यत: करता रहता है।

तुम घाट पर आ कर बैठना चालू नहीं किये?

का आई। पण्डा के ठीक न लागे। (क्या आऊं, पण्डा को ठीक नहीं लगेगा।)

नहीं, घाट पण्डा का थोड़े ही है। वहां बैठना शुरू करो। तबियत तो ठीक है न?

तबियत का हाल पूछने पर वह कुछ हरियराया। मुखारी मुंह से निकाल खंखारा और फिर बोला - तबियत ठीक बा। अब काम लगाई लेहे हई। ईंट-गारा क काम। (तबियत ठीक है। अब काम करने लगा हूं। ईंट गारा का काम।)

चलो, अच्छा है। अब कल से वहीं घाट पर आ कर बैठना। ... ध्यान से देखने पर लगा कि पिछले कई महीने कठिन गुजरे होंगे उसके। पर अब ठीक लग रहा है।

ठीक बा! (ठीक है)। उसने हामी भरी।

कल से आओगे न?! पक्का?

मेरी मनुहार पर वह बोला - हां, कालि से आउब! (हां, कल से आऊंगा।)

मैं चला आया। कल के लिये यह काम हो गया है कि अगर वह सवेरे घाट पर नहीं आया तो एक बार फिर उसे मनाने जाना होगा। ... जवाहिरलाल महत्वपूर्ण है - मेरे ब्लॉग के लिये भी और मेरे लिये भी!

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Thursday, July 26, 2012

लंगड़ जवाहिरलाल

[caption id="attachment_5909" align="alignright" width="300"] लंगड़ जवाहिरलाल[/caption]

कई दिन से घूमने नहीं जा पाया था। आज सयास पत्नीजी के साथ गंगा किनारे गया। आज श्रावण शुक्लपक्ष अष्टमी है। शिवकुटी के कोटेश्वर महादेव मन्दिर पर मेला लगता है। उसकी तैयारी देखने का भी मन था।

शिवकुटी घाट की सीढियों पर जवाहिरलाल अपने नियत स्थान पर था। साथ में बांस की एक खपच्ची लिये था। बांया पैर सूजा हुआ था।

क्या हुआ? पूछने पर उसने बताया - स्कूटर वाला टक्कर मार देहे रहा। हड्डी नाहीं टूटी बा। गरम तेल से सेंकत  हई। (स्कूटर वाले ने टक्कर मार दी थी। हड्डी नहीं टूटी है। गरम तेल से सिंकाई करता हूं।)

जवाहिर लाल जितना कष्ट में था, उतना ही दयनीय भी दिख रहा था। सामान्यत: वह अपने हालात में प्रसन्नमन दिखता है। कुत्तों, बकरियों, सूअरों से बोलता बतियाता। मुखारी करता और बीच बीच में बीड़ी सुलगाता। आज उसके पास एक कुत्ता - नेपुरा बैठा था, पर जवाहिर लाल वह जवाहिर नहीं था, जो सामान्यत: होता था।

मेरी पत्नी जी ने फिर पूछा - डाक्टर को दिखाये? दवाई कर रहे हो? 

उसका उत्तर टेनटेटिव सा था। पूछने पर बताया कि आठ नौ दिन हो गये हैं। डाक्टर के यहां गया था, उसने बताया कि हड्डी नहीं टूटी है। मेरी पत्नीजी ने अनुमान लगाया कि हड्डी वास्तव में नहीं टूटी होगी, अन्यथा चल नहीं पाता। सूजन के बारे में पूछने पर बताया - पहिले एकर डबल रही सूजन। अब कम होत बा। (पहले इसकी डबल सूजन थी, अब कम हो रही है।)

मैने सोचा, उसकी कुछ सहायता कर दूं। जेब में हाथ गया तो पर्स में कोई छोटा नोट नहीं मिला। पांच सौ रुपया था। एक बार विचार आया कि घर जा कर उसे सौ-पचास भिजवा दूं। फिर मन नहीं माना। उसे वह नोट थमा दिया - क्या पता घर जाते जाते विचार बदल जाये और कुछ भी न देना हो!

पत्नीजी ने इस कदम का मौन समर्थन किया। जवाहिरलाल को धमकाते हुये बोलीं - पी मत जाना, सीधे सीधे डाक्टर के पास जा कर इलाज कराना।

जवाहिरलाल ने पैसा लेते हुये हामी भरी। पत्नीजी ने हिदायत दुबारा री-इटरेट की। हम लोग घर लौटे तो जेब हल्की थी, मन जवाहिर की सहायता कर सन्तोषमय था। ... भगवान करें, जल्दी ठीक हो जाये जवाहिरलाल। [slideshow]

Sunday, March 11, 2012

कछार रिपोर्ताज - 2

[caption id="attachment_5581" align="alignright" width="300" caption="शिवाकान्त जी मिले। सिर पर साफा बान्धे। हाथ में गंगाजल ले जाने के लिये जरीकेन। यह जगह उन्हे इतनी अच्छी लगती है कि गांव जाने का मन नहीं करता!"][/caption]

होली के बिहान (9 मार्च) सवेरे घूमने गया तो आसमान साफ था। सूर्योदय मेरे सामने हुआ। ललिमा नहीं थी - कुछ पीला पन लिये थे सूर्य देव। जवाहिरलाल ने अलाव जला लिया था। हवा में कल की अपेक्षा कुछ सर्दी थी। गंगाजी के पानी से भाप उठती दिख रही थी, अत: पानी के ऊपर दिखाई कम दे रहा था।

लौकी की बेलें अधिक फैल रही हैं। कुछ तो सरपत की बाड़ लांघ कर बाहर आ रही थीं। वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है - वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।

सरपत की आड़ से देखने पर सूर्योदय बहुत मोहक लग रहा था। गंगा नदी में काफी दूर हिल कर एक आदमी बहुत देर से शांत पानी में खड़ा पूजा कर रहा था और एक अन्य किनारे पर कोई स्तुति पढ़ रहा था।

[caption id="attachment_5578" align="aligncenter" width="584" caption="सरपत की बाड़ की ओट से निकलता सूरज - गंगा नदी के उसपार!"][/caption]

दूर शिवाकांत जी आते दीखे। उन्होने जब आवाज लगाई स्तुति पढ़ते सज्जन को तो पता चला कि स्तुति करने वाले कोई शुक्ला जी हैं।

शिवाकांत जी बैंक से रिटायर्ड हैं और यहीं शिवकुटी में रहते हैं। कभी कभी अपने पोते के साथ घूमते दीख जाते हैं। आज अकेले थे। सिर उनका गंजा है, पर आज गमछे का साफा बांध रखा था। बहुत जंच रहे थे। हाथ में गंगाजल ले जाने के लिये एक जरीकेन लिये थे। हम बड़ी आत्मीयता से होली की गले मिले। उन्होने बताया कि गंगा किनारे की यह जगह बहुत अच्छी लगती है उन्हे। इतनी अच्छी कि गांव में घर जमीन खेती होने के बावजूद वहां जाने का मन नहीं करता!

वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।


शिवाकांत पाण्डेय जी में मुझे अपना रिटायर्ड भविष्य दीखने लगा।

कल्लू  बहुत दिनों बाद नजर आया। बेल लगाने के लिये गड्ढ़ा खोद रहा था। बीच में पौधे के लिये परिधि में गहरे खाद डाली जायेगी गोबर और यूरिया की। कल्लू ने बताया कि उसकी मटर आन्धी-पानी-पाला के  कारण अच्छी नहीं हुई पर सरसों की फसल आशा से बेहतर हुई है। कल जो सरसों का कटा खेत मैने देखा था, वह कल्लू का ही था। जो ठेले पर पानी देने का पम्प देखा था, वह भी कल्लू का है। उसने बताया कि इस साल तीन जगह उसने खेती की है। एक तरफ लौकी-कोन्हड़ा है। दूसरी जगह नेनुआ, टमाटर करेला। एक अन्य जगह बींस (फलियां - बोड़ा) है। उसने खीरा-ककड़ी-हिरमाना (तरबूज) और खरबूजे की खेती की भी शुरुआत की है। तीन अलग अलग जगह होने के कारण ठेले पर पानी का पम्प रखे है - जहां पानी देने की जरूरत होती है, वहां ठेला ले जा कर सिंचाई कर लेता है।

एक खेत में एक बांस गड़ा था। उसपर खेती शुरू करते समय लोगों ने टोटके के रूप में मिर्च-नीम्बू बान्धे थे। उसी बांस पर बैठी थी एक चिड़िया। गा रही थी। मुझे देख कर अपना गाना उसने बन्द कर दिया पर अपना फोटो खिंचाने के बाद ही उड़ी!

वापसी में जवाहिरलाल से पूछा कि बाउण्ड्री बनाने का जो काम उसने झूंसी में किया था, उसका पैसा मिला या नहीं? अनिच्छा से जवाहिर ने (रागदरबारी के मंगलदास उर्फ लंगड़ जैसी दार्शनिकता से) जवाब दिया - नाहीं,  जाईं सारे, ओनकर पईसा ओनके लगे न रहे। कतऊं न कतऊं निकरि जाये (नहीं, जायें साले, उनका पैसा उनके पास नहीं रहेगा। कहीं न कहीं निकल जायेगा)। तिखारने पर पता चला कि मामला 900-1000 रुपये का है। गरीब का हजार रुपया मारने वाले पर बहुत क्रोध आया। पर किया क्या जा सकता है। पण्डाजी ने पुलीस की सहायता लेने की बात कही, पर मुझे लगा कि पुलीस वाला सहायता करने के ही हजार रुपये ले लेगा! एक अन्य सज्जन ने कहा कि लेबर चौराहे पर यूनियन है जो इस तरह का बकाया दिलवाने में मदद करती है। जवाहिरलाल शायद यूनियन के चक्कर लगाये। :-(

कुल मिला कर सवेरे की चालीस मिनट की सैर मुझे काफी अनुभव दे गयी - हर बार देती है!

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Friday, March 9, 2012

कछार रिपोर्ताज

[caption id="attachment_5558" align="alignright" width="300" caption="कल्लू के सरसों के खेत की कटाई के बाद गट्ठर खेत में पड़ा था।"][/caption]

कल्लू की मटर बेकार हो गयी थी। पर बगल में जो सरसों बोई थी, वह बढ़िया हुई। आज होली के दिन सवेरे घूमने गया तो देखा कि सरसों काट कर गट्ठर खेत में रखे हैं। खेत के आकार के हिसाब से ठीकठाक निकल आयेगी सरसों। इनकी सिंचाई के लिये गंगाजी का पानी नहीं, शिवकुटी, चिल्ला और सलोरी/गोविन्दपुरी के नालों का पानी मोड़ा था कल्लू एण्ड कम्पनी ने। अभी भी वह पानी सब्जियों की सिंचाई के काम आता है। वैसे भी वही पानी कुछ देर बाद गंगाजी में पंहुच कर नाले का पानी नहीं रहता, गंगाजी का पानी हो ही जाता।

सब्जियां लगने लगी हैं। एक लौकी के खेत की सरपत की बाड़ के अन्दर चार बांस गाड़ कर टेण्ट नुमा झोंपड़ी में कोई रखवाली करने वाला सवेरे सवेरे सोया हुआ था। सरपत की बाड़ से सटा कर एक ठेले पर डीजल से चलने वाला पानी का पम्प रखा था। अधिकतर खेती करने वाले गगरी से पानी ला ला कर सब्जियों को सींचते हैं। पम्प से डीजल का खर्चा तो होगा पर मैनुअल लेबर बच जायेगा। पिछली साल रामसिंह जी ने यही इस्तेमाल किया था। इस साल शायद उसका उपयोग और व्यापक हो जाये।

जवाहिरलाल जाती सर्दी में भी सवेरे अलाव जलाने का अनुष्ठान पूरा करता है। आज भी कर रहा था।

रामकृष्ण ओझा नियमित हैं अपनी पत्नी के साथ गंगा स्नान करने में। आज भी वे स्नान कर लौट रहे थे। पण्डाजी के पास उनकी पत्नी ने पॉलीथीन की पन्नी से पाव भर चावल और दो आलू निकाले और संकल्प करने के लिये वे दम्पति गंगाजी/सूर्य की ओर मुंह कर खड़े हो गये और पण्डाजी संकल्प कराने लगे। यह अनुष्ठान भी घाट का नियमित अनुष्ठान है। ओझाजी निपटे ही थे कि एक महिला भी आ गयीं इसी ध्येय से।

दो तीन लोग यह सब देखने, बोलने बतियाने और हास परिहास को वहां उपस्थित थे। मेरा भी मन हुआ कि वहां रुका जाये, पर अपने रेल नियंत्रण के काम में देरी होने की आशंका के कारण मैने वह विचार दबा दिया।

होलिका दहन का मुहूर्त आज सवेरे (8 मार्च) का था। तिकोनिया पार्क में तीन चार लोग रात की ओस से गीली होलिका की लकड़ियां जलाने का यत्न कर रहे थे पर आग बार बार बुझ जा रही थी। मैं तेज पांव घर लौटा और मालगाड़ियां गिनने के अपने काम में लग गया!

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Thursday, February 16, 2012

जवाहिरलाल का बोण्ड्री का ठेका

जवाहिरलाल कई दिन से शिवकुटी घाट पर नहीं था। पण्डाजी ने बताया कि झूंसी में बोण्ड्री (बाउण्ड्री) बनाने का ठेका ले लिया था उसने। उसका काम खतम कर दो-तीन दिन हुये वापस लौटे।

आज (फरवरी 14'2012) को जवाहिरलाल अलाव जलाये बैठा था। साथ में एक और जीव। उसी ने बताया कि "कालियु जलाये रहे, परऊं भी"। अर्थात कल परसों से वापस आकर सवेरे अलाव जलाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया है उसने। अलाव की क्वालिटी बढ़िया थी। ए ग्रेड। लोग ज्यादा होते तो जमावड़ा बेहतर होता। पर आजकल सर्दी एक्स्टेण्ड हो गयी है। हल्की धुन्ध थी। सूर्योदय अलबत्ता चटक थे। प्रात: भ्रमण वाले भी नहीं दीखते। गंगा स्नान करने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे।

[caption id="attachment_5368" align="aligncenter" width="584" caption="जवाहिरलाल अलाव के पास चुनाव का पेम्फलेट निहारते हुये।"][/caption]

जवाहिरलाल के ठेके के बारे में उसीसे पूछा। झूंसी में कोई बाउण्ड्री वॉल बनाने का काम था। जवाहिरलाल 12-14 मजदूरों के साथ काम कराने गया था। काम पूरा हो गया। मिस्त्री-मजदूरों को उनका पैसा दे दिया है उसने पर उसको अभी कुछ पैसा मिलना बकाया है। ... जवाहिरलाल को मैं मजदूर समझता था, वह मजदूरी का ठेका भी लेने की हैसियत रखता है, यह जानकर उसके प्रति लौकिक इज्जत भी बढ़ गयी। पैर में चप्पल नहीं, एक लुंगी पहने सर्दी में एक चारखाने की चादर ओढ़ लेता है। पहले सर्दी में भी कोई अधोवस्त्र नहीं पहनता था, इस साल एक स्वेटर पा गया है कहीं से पहनने को। सवेरे अलाव जलाये मुंह में मुखारी दबाये दीखता है। यह ठेकेदारी भी कर सकता है! कोटेश्वर महादेव भगवान किसके क्या क्या काम करवा लेते हैं!

एक बसप्पा का आदमी कल होने वाले विधान सभा के चुनाव के लिये अपने कैण्डीडेट का पर्चा बांट गया। जवाहिरलाल पर्चा उलट-पलट कर देख रहा था। मैने पूछा - तुम्हारा नाम है कि नहीं वोटर लिस्ट में?

नाहीं। गाऊं (मछलीशहर में बहादुरपुर गांव है उसका) में होये। पर कब्भौं गये नाहीं वोट देई। (नहीं, गांव में होगा, पर कभी गया नहीं वोट देने)। पण्डाजी ने बताया कि रहने की जगह पक्की न होने के कारण जवाहिर का वोटर कार्ड नहीं बना।
रहने के पक्की जगह? हमसे कोई पूछे - मानसिक हलचल ब्लॉग और शिवकुटी का घाट उसका परमानेण्ट एड्रेस है। :lol:

खैर, बहुत दिनों बाद आज जवाहिर मिला तो दिन मानो सफल शुरू हुआ!

[caption id="attachment_5369" align="aligncenter" width="584" caption="गंगाजी के कछार में कल्लू के खेत में सरसों में दाने पड़ गये हैं। एक पौधे के पीछे उगता सूरज।"][/caption]