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Friday, April 19, 2013

फोड़ (हार्ड कोक) के साइकल व्यवसायी

मैं जब भी बोकारो जाता हूं तो मुझे फोड़ (खनन का कोयला जला कर उससे बने फोड़ - हार्ड कोक) को ले कर चलते साइकल वाले बहुत आकर्षित करते हैं। कोयले का अवैध खनन; उसके बाद उसे खुले में जला कर फोड़ बनाना और फोड़ को ले कर बोकारो के पास तक ले कर आना एक व्यवसायिक चेन है। मुझे यह भी बताया गया कि बोकारो में यह चेन और आगे बढ़ती है। यहां इस हार्ड कोक को खरीद कर अन्य साइकल वाले उसे ले कर बंगाल तक जाते हैं।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर पुरानी पोस्ट है - फोड़ का फुटकर व्यापार


मैं बोकारो में स्टील प्लाण्ट की ओर जा रहा था। रास्ते में ये साइकल व्यवसायी दिखे तो वाहन रुकवा कर एक से मैने बात की। मेरे साथ बोकारो के यातायात निरीक्षक श्री गोस्वामी और वहां के एरिया मैनेजर श्री कुलदीप तिवारी थे। कुलदीप तो वहां हाल ही में पदस्थ हुये थे, पर गोस्वामी ड़ेढ़ दो दशक से वहां हैं। उन्हे इन लोगों को पर्याप्त देखा है।

[caption id="attachment_6842" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का व्यवसायी  और यातायात करने वाला - बालूचन्द फोड़ का व्यवसायी और यातायात करने वाला - बालूचन्द[/caption]

वे एक के पीछे एक चलने वाले दो साइकल सवार थे। मेरे अनुमान से उनमें से प्रत्येक के पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला था। साइकल के दोनो ओर, बीच में और पीछे लादा हुआ। लगभग इतना कोयला, जिससे ज्यादा लाद कर चल पाना शायद सम्भव न हो। चित्र मैने दोनो के लिये पर बातचीत आगे चलने वाले साइकल व्यवसायी से की।

उसने बताया कि वह धनबाद क्षेत्र के जारीडिह से यह हार्ड कोक/फोड़ ले कर चले हैं। उसके पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला है। वे आगे नया मोड़ तक जा रहे हैं बेचने के लिये। तीन क्विण्टल फोड़ उसने चार सौ रुपये में खरीदा है। इसे जब नया मोड़ पर वह बेचेगा, तब तक उसका लगभग 100 रुपया और खर्च होगा। बेचने पर उसे करीब 1200 रुपये प्राप्त होंगे। इस तरह दो दिन की मेहनत पर उसे सात सौ रुपये मिलेंगे। साढ़े तीन सौ रुपये प्रतिदिन।

मैं उसके लिये व्यवसायी शब्द का इस्तेमाल इसी लिये कर रहा हूं। वह मुझे 350 रुपये प्रतिदिन की आमदनी का अर्थशात्र बड़ी सूक्ष्मता से बता गया। फिर वह मात्र श्रम का इनपुट नहीं कर रहा था इस चेन में। वह (माल - फोड़) खरीद और बेचने का व्यवसाय करने वाला था। वह शारीरिक खतरा ले कर उत्खनन के काम में नहीं लगा था, वरन ट्रांसपोर्टेशन और उससे जुड़े पुलीसिया भ्रष्टाचार को डील कर कोयले के फुटकर व्यवसाय को एक अंजाम तक पंहुचा रहा था। मैने उसका नाम पूछा - उसने बताया - बालू चन्द।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर मैं पहले भी इस ब्लॉग पर लिख चुका हूं। पर इस बार बालू चन्द से बात चीत में स्थिति मुझे और स्पष्ट हुई।

पिछली पोस्ट (15 मई 2009) में मैने यह लिखा था - 


कत्रासगढ़ के पास कोयला खदान से अवैध कोयला उठाते हैं ये लोग। सीसीएल के स्टाफ को कार्ड पर कोयला घरेलू प्रयोग के लिये मिलता है। कुछ उसका अंश होता है। इसके अलावा कुछ कोयला सिक्यूरिटी फोर्स वाले को दूसरी तरफ झांकने का शुल्क अदाकर अवैध खनन से निकाला जाता है। निकालने के बाद यह कोयला खुले में जला कर उसका धुआं करने का तत्व निकाला जाता है। उसके बाद बचने वाले “फोड़” को बेचने निकलते हैं ये लोग। निकालने/फोड़ बनाने वाले ही रातोंरात कत्रास से चास/बोकारो (३३-३४ किलोमीटर) तक साइकल पर ढो कर लाते हैं। एक साइकल के माल पर ४००-५०० रुपया कमाते होंगे ये बन्दे। उसमें से पुलीस का भी हिस्सा होता होगा।


बोकारो के रेलवे के यातायात निरिक्षक श्री गोस्वामी ने बताया कि कोयला अवैध उत्खनन करने वाले और उसे जला कर फोड़ बनाने वाले अधिकांशत: एक ही व्यक्ति होते हैं। उन्हे अपने रिस्क के लिये सवा सौ/ड़ेढ सौ रुपया प्रति क्विण्टल मिलता है। उसके बाद इसे कोयला आढ़तियों तक पंहुचाने वाले बालूचन्द जैसे दो सौ, सवा दो सौ रुपया प्रति क्विण्टल पाते हैं। बालू चन्द जैसे व्यवसायियों को स्थानीय भाषा में क्या कहा जाता है? मैने यह कई लोगों से पूछा, पर मुझे कोई सम्बोधन उनके लिये नहीं बता पाया कोई। उन्हे कुछ तो कहा ही जाता होगा!

मेरी बिटिया के वाहन ड्राइवर श्री किशोर ने इस चेन के तीसरे घटक की बात बतायी। नया मोड़/ बालीडीह से कोयला ढ़ोने वाले एक और साइकल व्यवसायी यह हार्ड कोक उठाते हैं और उसे ले कर पश्चिम बंगाल जाते हैं। बोकारो से पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) अढ़सठ किलो मीटर है। वे तीन-चार दिन में अपना सफर पूरा करते होंगे। मैं अभी इस तीसरी स्तर के व्यवसायी से मिल नहीं पाया हूं। पर धनबाद - बोकारो की आगे आने वाली ट्रिप्स में उस प्रकार के व्यक्ति से भी कभी सामना होगा, जरूर। या शायद नया-मोड़/बालीडीह पर तहकीकात करनी चाहिये उसके लिये।

[caption id="attachment_6857" align="aligncenter" width="584"]जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर[/caption]

हां, यह तब कर पाऊंगा, जब कि मेरे मन में जिज्ञासा बरकरार रहे और मैं इस ब्लॉग को यह सब पोस्ट करने के लिये जीवित रखे रखूं।

जरूरी यह है कि, अनुभव जो भी हों, उन्हे लिख डाला जाये!

[श्री गोस्वामी ने मुझे बताया कि लौह अयस्क को भी इसी तरह अवैध खनन और वहन करने वाले व्यवसायी होते हैं। वे निश्चय ही इतना अधिक/तीन क्विण्टल अयस्क ले कर नहीं चलते होंगे। पर वे कहां से कहां तक जाते हैं, इसके बारे में आगे कभी पता करूंगा।]

[caption id="attachment_6843" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का दूसरा व्यवसायी फोड़ का दूसरा व्यवसायी[/caption]

Thursday, October 4, 2012

माधव सदाशिव गोलवलकर और वर्गीज़ कुरियन

[caption id="attachment_6221" align="alignright" width="195"] 'I Too Had a Dream' by Verghese Kurien[/caption]

वर्गीज़ कुरियन की पुस्तक – ’आई टू हैड अ ड्रीम’ में एक प्रसंग माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी” के बारे में है। ये दोनों उस समिति में थे जो सरकार ने गौ वध निषेध के बारे में सन् १९६७ में बनाई थी। इस समिति ने बारह साल व्यतीत किये। अन्त में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व के दौरान यह बिना किसी रिपोर्ट बनाये/पेश किये भंग भी हो गयी।

मैं श्री कुरियन के शब्द उठाता हूं उनकी किताब से -

~~~~~~


पर एक आकस्मिक और विचित्र सी बात हुई हमारी नियमित बैठकों में। गोलवलकर और मैं बड़े गहरे मित्र बन गये। लोगों को यह देख कर घोर आश्चर्य होता था कि जब भी गोलवलकर कमरे में मुझे आते देखते थे, वे तेजी से उठ कर मुझे बाहों में भर लेते थे। …


गोलवलकर छोटे कद के थे। बमुश्किल पांच फीट। पर जब वे गुस्सा हो जाते थे तो उनकी आंखें आग बरसाती थीं। जिस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया वह थी उनका अत्यन्त देशभक्त भारतीय होना। आप यह कह सकते हैं कि वे अपनी ब्राण्ड का राष्ट्रवाद फैला रहे थे और वह  भी गलत तरीके से, पर आप उनकी निष्ठा पर कभी शक नहीं कर सकते थे। एक दिन जब उन्होने पूरे जोश और भावना के साथ बैठक में गौ वध का विरोध किया था, वे मेरे पास आये और बोले – कुरियन, मैं तुम्हें बताऊं कि मैं गौ वध को इतना बड़ा मुद्दा क्यों बना रहा हूं?


मैने कहा, हां आप कृपया बतायें। क्यों कि, अन्यथा आप बहुत बुद्धिमान व्यक्ति हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?




[caption id="attachment_6220" align="alignleft" width="258"] माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी’[/caption]

"मैने गौ वध निषेध पर अपना आवेदन असल में सरकार को परेशानी में डालने के लिये किया था।’ उन्होने मुझे अकेले में बताना शुरू किया। "मैने निश्चय किया कि मैं दस लाख लोगों के हस्ताक्षर एकत्रित कर राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा। इस सन्दर्भ में मैने देश भर में यात्रायें की; यह जानने के लिये कि हस्ताक्षर इकठ्ठे करने का काम कैसे चल रहा है। इस काम में मैं उत्तर प्रदेश के एक गांव में गया। वहां मैने देखा कि एक महिला ने अपने पति को भोजन करा कर काम पर जाने के लिये विदा किया और अपने दो बच्चों को स्कूल के लिये भेज कर तपती दुपहरी में घर घर हस्ताक्षर इकठ्ठा करने चल दी। मुझे जिज्ञासा हुई कि यह महिला इस काम में इतना श्रम क्यों कर रही है? वह बहुत जुनूनी महिला नहीं थी। मैने सोचा तब भान हुआ कि यह वह अपनी गाय के लिये कर रही थी – जो उसकी रोजी-रोटी थी। तब मुझे समझ आया कि गाय में लोगों को संगठित करने की कितनी शक्ति है।"


"देखो, हमारे देश का क्या हाल हो गया है। जो विदेशी है, वह अच्छा है। जो देशी है वह बुरा। कौन अच्छा भारतीय है? वह जो कोट-पतलून पहनता है और हैट लगाता है। कौन बेकार भारतीय है? वह जो धोती पहनता है। वह देश जो अपने होने में गर्व नहीं महसूस करता और दूसरों की नकल करता है, वह कैसे कुछ बन सकता है? तब मुझे लगा कि गाय में देश को एक सूत्र में बांधने की ताकत है। वह भारत की संस्कृति का प्रतीक है। इस लिये कुरियन इस समिति में तुम मेरी गौ वध विरोध की बात का समर्थन करो तो भारत पांच साल में संगठित हो सकता है। … मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि गौ वध निषेध की बात कर मैं मूर्ख नहीं हूं, और न ही मैं धर्मोन्मादी हूं। मै  ठण्डे मन से यह कह रहा हूं – मैं गाय का उपयोग अपने लोगों की भारतीयता जगाने में करना चाहता हूं। इस लिये इस काम में मेरी सहायता करो।"


खैर, मैने गोलवलकर की इस बात से न तो सहमति जताई और न उस समिति में उनका समर्थन किया। पर मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि वे अपने तरीके से लोगों में भारतीयता और भारत के प्रति गर्व जगाना चाह रहे थे। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ये वह गोलवलकर थे, जिन्हे मैने जाना। लोगों ने उन्हे महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने वाला कहा, पर मैं इस में कभी यकीन नहीं कर पाया। मुझे वे हमेशा एक ईमानदार और स्पष्टवक्ता लगे और मुझे यह हमेशा लगता रहा कि अगर वे एक कट्टरवादी हिन्दू धर्मोन्मादी होते तो वे कभी मेरे मित्र नहीं बन सकते थे।


अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों में, जब वे बीमार थे और पूना में थे, तो उन्होने देश भर से राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के राज्य प्रमुखों को पूना बुलाया। वे जानते थे कि वे जाने वाले हैं। जब उनका देहावसान हो गया तब कुछ दिनों बाद मेरे दफ्तर में उनमें से एक सज्जन मुझसे मिलने आये। "श्रीमान् मैं गुजरात का आरएसएस प्रमुख हूं", उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा – "आप जानते होंगे कि गुरुजी अब नहीं रहे। उन्होने हम सब को पूना बुलाया था। जब मैने बताया कि मैं गुजरात से हूं तो उन्होने मुझसे कहा कि “वापस जा कर आणद जाना और मेरी ओर से कुरियन को विशेष रूप से मेरा आशीर्वाद कहना।” मैं आपको गुरुजी का संदेश देने आया हूं।"


मैं पूरी तरह अभिभूत हो गया। उन्हे धन्यवाद दिया और सोच रहा था कि वे सज्जन चले जायेंगे। पर वे रुके और कहने लगे – "सर, आप ईसाई हैं। पर गुजरात में सभी लोगों में से केवल आपको ही अपना आशीर्वाद क्यों भेजा होगा गुरुजी ने?"


मैने उनसे कहा कि आपने यह गुरुजी से क्यों नहीं पूछा? मैं उन्हे कोई उत्तर न दे सका, क्यों कि मेरे पास कोई उत्तर था ही नहीं!







श्री कुरियन की पुस्तक का यह अंश मुझे बाध्य कर गया कि मैं अपनी (जैसी तैसी) हिन्दी में उसका अनुवाद प्रस्तुत करूं। यह अंश गोलवलकर जी के बारे में जो नेगेटिव नजरिया कथित सेकुलर लोग प्रचारित करते हैं, उसकी असलियत दिखलाता है।

उस पुस्तक में अनेक अंश हैं, जिनके बारे में मैंने पुस्तक पढ़ने के दौरान लिखना या अनुवाद करना चाहा। पर वह करने की ऊर्जा नहीं है मुझमें। शायद हिन्दी ब्लॉगिंग का प्रारम्भिक दौर होता और मैं पर्याप्त सक्रिय होता तो एक दो पोस्टें और लिखता। फिलहाल यही अनुंशंसा करूंगा कि आप यह पुस्तक पढें।

मेरा अपना मत है कि साठ-सत्तर के दशक में भारतीय समाज को गाय के मुद्दे पर एक सूत्र में बांधा जा सकता था। अब वह स्थिति नहीं है। अब गाय या गंगा लोगों को उद्वेलित नहीं करते।

[कुरियन गौ वध निषेध के पक्षधर नहीं थे। वे यह मानते थे कि अक्षम गायों को हटाना जरूरी है, जिससे (पहले से ही कम) संसाधनों का उपयोग स्वस्थ और उत्पादक पशुओं के लिये हो सके; जो डेयरी उद्योग की सफलता के लिये अनिवार्य है। हां, वे उत्पादक गायों के वध निषेध के पक्ष में स्टेण्ड लेने को तैयार थे।]

Wednesday, October 3, 2012

अर्शिया

[caption id="attachment_6202" align="aligncenter" width="584"] अर्शिया की वेब-साइट का बैनर हेडिंग।[/caption]

अर्शिया एक “माल यातायात का पूर्ण समाधान” देने वाली कम्पनी है। इसके वेब साइट पर लिखा है कि यह सप्लाई-चेन की जटिलता को सरल बनाती है। विश्व में कहीं से भी आयात निर्यात, भारत में फ्री-ट्रेड वेयरहाउसिंग जोन, रेल यातायात नेटवर्क और ग्राहक के कार्यस्थल से सामान लाने ले जाने की सुविधायें प्रदान करती है यह कम्पनी।

[caption id="attachment_6199" align="alignright" width="300"] खुर्जा में आर्शिया का हरा भरा परिसर।[/caption]

हाल ही में इस कम्पनी ने खुर्जा में अपना एक टर्मिनल प्रारम्भ किया है। खुर्जा मेरे उत्तर-मध्य रेलवे का एक स्टेशन है। यह दिल्ली से लगभग ८० किलोमीटर पर है और उत्तरी राजधानी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। यह भविष्य में आने जा रहे पूर्वी और पश्चिमी डेडीकेटेड-फ्रेट कॉरीडोर के संगम के समीप है। निश्चय ही आर्शिया ने इस क्षेत्र के हो रहे और होने वाले लॉजिस्टिक विकास में अपना निवेश किया है। उनकी मानें तो डेढ़ हजार करोड़ का निवेश!

खुर्जा में इस कम्पनी के टर्मिनल में चार-पांच कण्टेनर लदी मालगाड़ियां डील करने की सुविधा बनाई गयी है। इसमें छ लाइनें हैं और पचास एकड़ में यह रेल टर्मिनल है। इसी रेल टर्मिनल से जुड़ा १३० एकड़ में इनलैण्ड कण्टेनर डीपो (जिसमें कस्टम क्लियरेंस की सभी सुविधायें होंगी) और १३५ एकड़ में फ्री-ट्रेड वेयरहाउसिंग जोन है। ये सभी सुविधायें (लगभग) तैयार हैं।

[caption id="attachment_6198" align="aligncenter" width="584"] अर्शिया की खुर्जा की रेलवे साइडिंग में रेल वैगनों पर कण्टेनर लादने-उतारने के लिये आर.टी.जी (रेल ट्रान्सपोर्ट गेण्ट्री)।[/caption]

चूंकि रेल सुविधायें रेलवे से तालमेल कर चलने वाली हैं, मैने पिछले सप्ताह वहां का एक दौरा किया – अपनी आखों से देखने के लिये कि वहां तैयारी कैसी है और सुविधायें किस स्तर की हैं।

और देखने पर मैने पाया कि बहुत ही भव्य लगता है यह पूरा परिसर। सभी सुविधायें बनाते समय कोई कंजूसी नहीं की गयी लगती। अभी चूंकि सुविधाओं का दोहन १०-१५% से ज्यादा नहीं हुआ है, तो सफाई का स्तर बहुत अच्छा पाया वहां मैने। आगे देखना होगा कि जब पूरी क्षमता से यह टर्मिनल काम करेगा, तब व्यवस्था ऐसी ही रहती है या चरमराती है।

मैने कम्पनी के प्रतिनिधियों से चर्चा करते समय अपना रेल अधिकारी का मुखौटा ही सामने रखा था; एक ब्लॉगर का नहीं। और किसी भी समय यह नहीं कहा था कि उनके बारे में ब्लॉग पर भी लिख सकता हूं। अत: यह उचित नहीं होगा कि मैं कुछ विस्तार से लिखूं/प्रस्तुत करूं।


आर्शिया के इस रेल टर्मिनल को देख बतौर ब्लॉगर तो मैं प्रसन्न था। पर बतौर उत्तर-मध्य रेलवे के माल यातायात प्रबंधक; मेरी अपेक्षा है कि इस परिसर से मुझे प्रतिदिन दो से तीन रेक का लदान मिलेगा। अर्थात महीने में लगभग लाख-सवा लाख टन का प्रारम्भिक माल लदान।

लेकिन अब कम्पनी वालों का कहना है कि आने वाले श्राद्ध-पक्ष के कारण लदान की कारवाई १५ अक्तूबर से पहले नहीं हो पायेगी! :-(


बतौर एक ब्लॉगर, अपना यह सोचना अवश्य व्यक्त करूंगा कि जिस स्तर पर आर्शिया ने निवेश किया है और जैसा भव्य इन्फ्रास्ट्रक्चर कायम किया है उन्होने; उससे लगता है कि इस कम्पनी को भारत की उभरती आर्थिक ताकत और भविष्य में आनेवाले पूर्वी-पश्चिमी डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के संगम पर खुर्जा में होने का बहुत भरोसा है।

लगता है, उन्होने भारत के भविष्य पर निवेश का दाव चला है। यह रिस्की हो सकता है; पर आकर्षित तो करता ही है!

[आशा करता हूं कि अगली बार अगर मैं वहां गया तो बतौर रेल अफसर ही नहीं, बतौर एक ब्लॉगर भी जाऊंगा। और वे कम्पनी वाले एक ब्लॉगर को देख असहज नहीं होंगे – स्वागत करेंगे!]

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Monday, March 26, 2012

गुटखा - पानमसाला

[caption id="attachment_5703" align="alignright" width="225" caption="श्री योगेश्वर दत्त पाठक। हमारे वाणिज्य निरीक्षक।"][/caption]

हमारे मुख्य वाणिज्य प्रबन्धक (माल यातायात) सुश्री गौरी सक्सेना के कमरे में मिले श्री योगेश्वर दत्त पाठक। श्री  पाठक उत्तर मध्य रेलवे मुख्यालय के वाणिज्य निरीक्षक हैं। उनके काम में पार्सल से होने वाली आय का विश्लेषण करना भी है।

श्री पाठक जागरूक प्रकार के इंसान हैं। अपने आस पास, रेलवे, खबरों आदि को देखते समझते रहते हैं। उन्होने बताया कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि पानमसाला बनाने वाली कम्पनियां उसे प्लास्टिक पाउच में नहीं बेच सकतीं। पानमसाला बनाने वाली कम्पनियां कानपुर में बहुत हैं। इस निर्णय से उनके व्यवसाय पर कस कर लात पड़ी। उन्हे अपने पाउच के डिजाइन बदलने में परिवर्तन करने में तीन महीने लगे। इन तीन महीनों में बाजार में गुटखा (या पानमसाला) की उपलब्धता कम हो जाने के कारण लोगों की गुटखा सेवन की प्रवृत्ति में अंतर आया। कई लोग गुटखा-पानमसाला से विमुख हो गये।

कानपुर से रेल पार्सल के रूप में बहुत सा गुटखा/पानमसाला बाहर जाता है। कानपुर की पार्सल आय लगभग एक करोड़ रुपये प्रतिमास हुआ करती थी, जो श्री पाठक के अनुसार अब पैंसठ लाख तक गिर गयी है। यह पानमसाला यातायात में भारी कमी होनेके कारण हुआ है। श्री पाठक ने बताया कि यह लोगों के पानमसाला सेवन की प्रवृत्ति में कमी के कारण भी हो सकता है। अब प्लास्टिक की बजाय पेपर के पाउच में बनने के कारण इसकी कीमत 1 रुपये से बढ़ कर दो रुपये हो गयी है। इसके अलावा पहले प्लास्टिक पाउच होने के कारण शेल्फ लाइफ आसानी से 6 महीने हुआ करती थी, पर अब पेपर पाउच में गुटखा डेढ़ महीने में ही खराब होने लगा है। निश्चय ही लोग गुटखा विमुख हुये हैं।

श्री पाठक ने बताया कि उत्तरप्रदेश में पिछली सरकार ने गुटखा पर उत्पादकर भी बहुत बढ़ा दिया था। अत: कुछ पानमसाला यूनिटें यहां से हट कर उत्तराखण्ड (या बेंगळूरु ?) चली गयी हैं।

[caption id="attachment_5704" align="aligncenter" width="584" caption="कोटेश्वर महादेव, शिवकुटी के प्रांगण में माला-फूल बेचने वाली मालिन। इनके पास गुटखा/पानमसाला के पाउच भी मिल जाते हैं। गुटखा भक्त सेवन करते हैं, शिव नहीं!"][/caption]

यह सूचना मिलने पर मैने कोटेश्वर महदेव मन्दिर के प्रांगण में फूल बेचने वाली महिला (जो सिगरेट-पानमसाला भी रखती है) से दो पाउच गुटखा खरीदा - राजश्री और आशिकी ब्राण्ड के। दोनो दो रुपये के थे। इनके पाउच पर मुख के केंसर का चित्र लगी चेतावनी भी थी। ये पाउच कागज के थे। आशिकी ब्राण्ड का पूर्णत: कागज था पर राजश्री ब्राण्ड के कागज पर एक चमकीली परत (शायद उसमें अल्यूमीनियम का अंश हो) थी।

[caption id="attachment_5705" align="alignleft" width="300" caption="मालिन जी से खरीदे दो रुपये वाले दो गुटखा पाउच।"][/caption]

मैने मालिन जी से पूछा गुटखा की बिक्री के बारे में। उन्होने बताया कि पिछले साल दो-तीन महीने तो ये पाउच आने बन्द हो गये थे। पर अब तो आ रहे हैं। लोग खरीदते भी है। उनके अनुसार बिक्री पिछले साल जैसी ही है - "सब खाते हैं, किसी को बीमारी की फिकर नहीं"!

खैर, मालिन का परसेप्शन अपनी जगह, पानमसाला यातायात कम जरूर हुआ है। दाम बढ़ने और पाउच की शेल्फ लाइफ कम होने से गुटखा कम्पनियों को लात अवश्य लगी है। दुकानों/गुमटियों पर जहां पानमसाला के लटकते पाउचों की लड़ियों के पीछे बैठा दुकानदार ठीक से दिखता नहीं था, अब उतनी लड़ियां नजर नहीं आती गुमटियों पर।

गुटखा नहीं खा रहे तो क्या खा रहे हैं लोग? सुश्री गौरी सक्सेना (जिन्होने हाल ही में चुनार तक की सड़क यात्रा की है) की मानें तो अब कस्बाई गुमटियों पर भी पाउच कम दीखे, उनमें सामने अंगूर रखे दिखे। अंगूर अब शहरी उच्च-मध्यम वर्ग की लग्जरी नहीं रहे - वे गांव-कस्बों तक  पंहुच गये हैं।

Tuesday, February 14, 2012

व्हाइटफील्ड

[caption id="attachment_5251" align="alignright" width="300" caption="व्हाइटफील्ड के कण्टेनर डीपो में रीचस्टैकर कण्टेनर उठाकर रखता हुआ।"][/caption]

बेंगळुरू आने का मेरा सरकारी मकसद था व्हाइटफील्ड का मालगोदाम, वेयरहाउसिग और कण्टेनर डीपो देखना। व्हाइटफील्ड बैगळुरु का सेटेलाइट स्टेशन है। आप यशवंतपुर से बंगारपेट की ओर रेल से चलें तो स्टेशन पड़ते हैं - लोट्टगोल्लहल्ली, हेब्बल, बैय्यप्पन हल्ली, कृष्णराजपुरम,  व्हाइटफील्ड का सेटेलाइट माल टर्मिनल और व्हाइटफील्ड। मैं वहां रेल से नहीं गया। अत: यह स्टेशन देख नहीं सका। पर जब सीधे सेटेलाइट गुड्स टर्मिनल पर पंहुचा तो उसे बंगळूर जैसे बड़े शहर की आवश्यकता के अनुरूप पाया।

यहां एक इनलैण्ड कण्टेनर डीपो है जिसमें प्रतिदिन लगभग तीन मालगाड़ियां कण्टेनरों की उतारी और लादी जाती हैं। इस डीपो में लगभग 6000 कण्टेनर उतार कर रखने लायक जमीन है। इसके अलावा आयात-निर्यात करने वालों का माल रखने के लिये पर्याप्त गोदाम हैं। कस्टम दफ्तर यहीं पर है, जहां आने जाने वाले माल का क्लियरेंस यहीं होता है।

कण्टेनरों में निर्यात के माल का स्टफिंग (क्लियरेंस के उपरांत) यहीं किया जाता है। स्टफिंग के लिये छोटी फोर्क लिफ्ट क्रेने (3 से 5 टन क्षमता) यहां उपलब्ध हैं। कण्टेनर में माल भरने के बाद उन्हे एक के ऊपर एक जमा कर रखने अथवा मालगाड़ी के फ्लैट वैगनों पर लादने के लिये रीच स्टैकर (32 टन क्षमता) प्रयोग में आते हैं। इन उपकरणों के चित्र आप स्लाइड शो में देख सकेंगे।

इसी प्रकार आयात किया गया कण्टेनर कस्टम क्लियरेंस के बाद रीच स्टेकरों के द्वारा ट्रेलरों में लादा जाता है और ट्रेलर कण्टेनरों को उनके गंतव्य तक पंहुचाने का काम करते हैं।

व्हाइटफील्ड के कण्टेनर डीपो में अंतर्देशीय कण्टेनर भी डील किये जाते हैं। पर उनका अंतर्राष्ट्रीय यातायात की तुलना में अनुपात लगभग 1:6 का है।

व्हाइटफील्ड में कण्टेनर डीपो के अलावा सामान्य मालगोदाम भी है, जहां सीमेण्ट, खाद, अनाज, चीनी और स्टील आदि के वैगन आते हैं। यहां रोज 6-8 रेक (एक रेक में 2500 से 3600टन तक माल आता है - उनकी क्षमतानुसार) प्रतिदिन खाली होते हैं। उसमें से सत्तर प्रतिशत का माल तो व्यवसायी तुरंत उठा कर ले जाते हैं, पर जो व्यवसायी अपना माल खराब होने के भय से अथवा बाजार की दशा के चलते मालगोदाम पर रखना चाहते हैं, उन्हे यहां उपलब्ध सेण्ट्रल वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन के वेयरहाउस वाजिब किराये पर रखने की सुविधा देते हैं। मुझे बताया गया कि सामान्यत सीमेण्ट के रेक के लिये यह वेयरहाउस प्रयोग किये जाते हैं।

मुझे प्रवीण पाण्डेय ने बताया कि यहां नित्य लगभग 2-3 रेक सीमेण्ट और 0.8 रेक स्टील उतरता है। भवन और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण में सीमेण्ट और स्टील के प्रयोग का लगभग यही अनुपात है। अर्थात बैंगळूरु सतत निर्मित होता चला जा रहा है और उसका इनपुट आ रहा है व्हाटफील्ड के सेटेलाइट गुड्सशेड से!


वापसी की यात्रा में इस पोस्ट को लिखना मैने प्रारम्भ किया था तब जब मेरी ट्रेन व्हाइटफील्ड से गुजर रही थी, और जब यह पंक्तियां टाइप कर रहा हूं, बंगारपेट आ चुका है। गाड़ी दो मिनट रुक कर चली है। ट्रेन में कुछ लोगों ने खाने के पैकेट लिये हैं। अन्यथा वहां न चढ़ने वाले थे यहां, न उतरनेवाले।

[बंगारप्पा बंगारपेट के ही रहे होंगे। अब तो ऊपर जा चुके। पार्टियां बहुत बदली हों, पैसा भले कमाया हो, बैडमिण्टन रैकेट थामे स्मार्ट भले लगते रहें हो, पर चले ही गये!]

खैर, अब मैं आगे की यात्रा के दौरान व्हाइटफील्ड के स्लाइड शो का काम खत्म करता हूं:

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[जैसा ऊपर से स्पष्ट है, यह पोस्ट बैंगळूरु से वापसी यात्रा के दौरान 8 फरवरी को लिखी थी]