जैसा सामान्य रूप से होता है, मेरे पास कहने को विशेष नहीं है। मिर्जापुर स्टेशन पर मैं नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस से उतरा था। मेरे साथ दो निरीक्षक, मिर्जापुर के स्टेशन मास्टर और तीन चार और लोग थे। वे साथ न होते तो मेरे पास देखने और लिखने को अधिक होता। अन्यथा अफसरी के तामझाम के साथ आसपास को देखना समझना अवरुद्ध हो जाता है। असहज होते हैं लोग।
वे चार गरीब महिलायें थीं। उनके पास पत्तों के गठ्ठर थे। हर एक गठ्ठर पर एक सींक की झाडू जैसा रखा था।
मैने अंदाज लगाया कि वे महुए के पत्ते होंगे। एक महिला से पूछा तो उसने हामी भरी। उसने बताया कि वे चुनार से ले कर आ रहे हैं ये पत्ते। पान बांधने के काम आते हैं।
मैने उनके चित्र लिये और चित्र दिखा कर अन्य लोगों से पूछा। अन्तत: मैं इस निष्कर्ष पर पंहुचा कि वह महिला पूर्ण सत्य नहीं कह रही थी।
[caption id="attachment_6944" align="aligncenter" width="584"] छिउल का पत्ता लिये महिलायें[/caption]
वे पत्ते महुआ के नहीं छिउल के थे। छिउल आदमी की ऊंचाई से कुछ बड़ा; छोटे कद का जंगली वृक्ष है। इसके पत्ते भी महुआ के पत्तों सरीखे होते हैं, पर ज्यादा नर्म और ज्यादा समय तक सूखते नहीं। पान का बीड़ा बंधने के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं। हर एक ढेरी पर जो सींक की झाडू रखी थी वह पान के बीड़े को खोंसने में काम आती है।
वे महिलायें इन्हें चुनार के आगे राबर्ट्सगंज की ओर की रेल लाइन के आस पास के जंगलों से चुन कर लाती हैं।
पान बांधने में छिउल के पत्तों का बहुतायत से प्रयोग होता है इस इलाके में।
मुझे मालुम है, यह बहुत सामान्य सी जानकारी लगेगी आपको। अगर मैं अफसर न होता, मेरे साथ कोइ अमला न होता, वे महिलायें मुझसे तब सहजता से बात करतीं शायद। और तब यह ब्लॉग पोस्ट नहीं, प्रेमचन्द की परम्परा वाली कोइ कहानी निकल आती तब।
पर जो नहीं होना होता, वह नहीं होता। मेरे भाग्य में आधी अधूरी जानकारी की ब्लॉग पोस्ट भर है।
वह यह है - छिउल के पत्तों पर पोस्ट और चित्र। बस।
[caption id="attachment_6945" align="aligncenter" width="584"] छिउल के पत्ते ले कर आयी महिलायें - मिर्जापुर स्टेशन पर बतियाती हुईं[/caption]
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छिउल की लकड़ी पवित्र मानी जाती है। यज्ञोपवीत के समय बालक इसी का दण्ड रखता है कन्धे पर। दण्डी स्वामी का प्रतीक इसी की लकड़ी का है। छिउल के पत्ते पत्तल बनाने, पान का बीड़ा बांधने और बीड़ी बनाने के काम आते हैं।
बाकी तो आप ज्यादा जानते होंगे! :-)
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सम्पादन - मेरे इंस्पेक्टर श्री एसपी सिंह कहते हैं - साहेब, मेरे गांव के पास दुर्वासा ऋषि के आश्रम में बहुत छिउल होते थे। उस जगह को कहते ही छिउलिया थे। एक बार चलिये चक्कर मार आइये उनके आश्रम में।
21 comments:
@ यज्ञोपवीत के समय बालक इसी का दण्ड रखता है कन्धे पर। दण्डी स्वामी का
प्रतीक इसी की लकड़ी का है।
जहाँ ये 'छिउल' के वृक्ष नहीं होते तों वहाँ एक सामान्य सी या फिर दादा जी
वाली छड़ी पकड़ा दी जाती है... हमारे यहाँ ऐसा ही होता है..
बाकि जानकारी और ये 'छिउल' मेरे लिए अजूबा है..... श्याद नाम ध्यान रहे या
नहीं.
दूसरी फोटो मे पत्ते तो महुआ के ही हैं, किसने आपको ढाक (छिउल) बता दिया?
छोटा, लेकिन अच्छा पोस्ट है. छिउल के बारे में मुझे नहीं मालूम था. हमारे यज्ञोपवीत में बालकवृंद को पलाश का दंड रखना होता है.
मैं भी सोचता था, पर वहां उपस्थित लोगों ने और बाद में चित्र का एनलार्ज देखने वालों ने बताया छिउल। बताया कि महुआ का पत्ता कुछ कम चौड़ा होता है और नरम भी नहीं होता।
नेट पर कहीं छिउल को पलाश और कहीं ढाक भी बताया गया है। पर यह छिउल शायद छोटा वृक्ष है।
क्या ढाक और छिउल एक ही है.
अब लगता है किसी वनस्पति विज्ञानी के कमेण्ट की जरूरत है!
बहुत अच्छी पोस्ट है।
सर मुझे भी पलाश दण्ड ही दिया गया था यज्ञोपवीत में, छिउल तो शायद गोरखपुर क्षेत्र मे नही दिया जाता
ढ़ाक और छिउल एक तो नहीं है. बाकी पाण्डेय साहब छिउलिया एक बार हो ही आइये.
ढाक, पलाश और छिउल Butea monosperma की उप प्रजातियाँ हैं। छिउल की पत्तियाँ चिकनी नही होतीं उन पर रोम आसानी से देखे जा सकते हैं।
अच्छा, तब तो शायद मेरा पहला अन्दाज सही था! लेकिन एक चक्कर छिउलिया का तो अब लगाना पड़ेगा! :)
झारखण्ड में एक केंदु पत्ता भी होता है. शायद वो बीड़ी बनाने के काम आता है। झारखण्ड में ऐसी महिलाएं दिखती तो हमें बताया जाता कि केंदु पत्ता है. पता नहीं दोनों में क्या समानता है :)
ढ़ाक या पलाश में तीन पत्ते एक साथ होते हैं, बिल्व पत्र की तरह। ढ़ाक या पलाश महुए के पत्ते से थोड़ा कड़ा होता है।
सभी कमेन्ट पढ़ने के बाद भी मेरे लिए वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ हुई है।
मैं इस पोस्ट को पढ़ने के पहले छीउल का नाम कभी सुना ही नहीं था। सुना भी तो कन्फ़्यूजन के साथ।
समाधान के लिए यहीं लौट कर आऊंगा।
इस पोस्ट से और इस पर आई टिप्पणियों से पहली बात जो मन में आई वह यह कि अन्तरराष्ट्रीय सन्दर्भों की जानकारियॉं हासिल करने के चक्कर मे हम अपने आसपास की, छोटी-छोटी और उपयोगी कितनी सारी जानकारियों की अनदेखी करते हैं।
मालवा में भी 'बटुक' को पलाश का ही 'दण्ड' थमाया जाता है और पलाश के पत्तों से ही पत्तलें भी बनाई जाती हैं।
सारी टिप्पणियॉं पढते-पढते अचानक ही, इस पोस्ट के लिए मन में एक शीर्षक उग आया - 'अपने-अपने पलाश।'
@मुझे मालुम है, यह बहुत सामान्य सी जानकारी लगेगी आपको
- इसके उलट, यह पोस्ट तो अन्वेषण का विषय हो गई। महिलाओं ने पत्तों के बारे में सरलता से सब बता दिया। अपने व्यवसाय से संबन्धित पत्ते और उसके पेड़ की जानकारी उनके लिए स्वाभाविक ही है। जबकि उस व्यवसाय या पत्ते से असंबंधित अन्य लोगों ने पत्तों के बारे में एक ऐसा भ्रम पैदा कर दिया जिस पर विस्तार से चिंतन हुआ। मुझे तो इस घटना से ऐसी कई सभाएं याद आईं जिनमें मैं अपना ज़रूरी काम पीछे छोडकर कई घंटों तक मौजूद था। अब तो आप अगली किसी पोस्ट में हमें इतना बताइये कि दुर्वासा ऋषि का छिउलिया आश्रम कहाँ है।
मालवा (मध्य प्रदेश) में तेन्दू पत्ता प्रयोग होता है बीड़ी बनाने में। शायद वही है केन्दू?
और उसका पत्ता भी लगभग वैसा ही दिखता है जैसा इस पोस्ट में है! इस हिन्दू के पेज पर देखें! http://bit.ly/15qw2GY
जानकारी छोटी है पर हम जैसोॆ को तो ज्ञात ही नहीं थी। हमें तो शतप्रतिशत लाभ हुआ यह पोस्ट पढ़कर।
यज्ञोपवित संस्कार तो हमारा भी हुआ और दण्ड हमने भी धारण किया , परंतु यह आज मालूम हुआ , जानकारी के लिये धन्यवाद....
छिउल का नाम तो पहली बार पढा । पलाश से दोने पत्तल बनते हैं यह पता है बल्कि जब हम नानाजी के यहां शिवपुरी जाते थे तो कोछी के आस पास से पलास के पत्ते चुन कर लाते थे और नाश्ते के लि.े अपनी ताजी पत्तल खुद बनाते थे । पर ये पत्ते पलाश से तो अलग हैं वे थोडे गोल से होते हैं । आपकी पोस्ट पर आक र हमेशा नया कुछ मिलता है ।
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