खैर, सुरेश विश्वकर्मा के वाहन में हम विण्ढ़म फॉल्स देखने को निकले थे।
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विण्ढ़म फॉल में पर्याप्त पानी था। किशोर वय के आठ दस लड़के नहा रहे थे। उनके बीच एक जींस पहने लड़की पानी में इधर उधर चल रही थी। उन्ही के गोल की थी। पर इतने सारे लड़कों के बीच एक लड़की अटपटी लग रही थी। यूपोरियन वातावरण मेँ यह खतरनाक की श्रेणी में आ जाता है। पर वे किशोर प्रसन्न थे, लड़की प्रसन्न थी। हम काहे दुबरायें? उसके बारे में सोचना झटक दिया।
रमणीय स्थान है विण्ढ़म प्रपात। पानी बहुत ऊंचाई से नहीं गिरता। पर कई चरणों में उतरता है - मानो घुमावदार सीढ़ियां उतर रहा हो। नदी - या बरसाती नदी/नाला - स्वयं भी घुमावदार है। कहां से आती है और कहां जाती है? गंगा नदी में जाता है पानी उतरने के बाद या शोणभद्र में? मेरे मन के इन प्रश्नों का जवाब वहां के पिकनिकार्थी नहीं जानते थे। लोग रमणीय स्थान पर घूमने आते हैं तो इस तरह के प्रश्न उन्हें नहीं कोंचते। इस तरह के प्रश्न शायद सामान्यत: कोंचते ही नहीं। यह तो मुझे बाद में पता चला कि कोई अपर खजूरी डैम है, जिससे पानी निकल कर बरसाती नदी के रूप में विण्ढ़म फॉल में आता है और वहां से लोअर खजूरी में जाता है। लोअर खजूरी में आगे भी पिकनिक स्थल हैं। अंतत: जल गंगा नदी में मिल जाता है।
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रमणीय स्थल था, पिकनिकार्थी थे और बावजूद इसके कि पत्थरों पर पेण्ट किया गया था कि कृपया प्लास्टिक का कचरा न फैलायें, थर्मोकोल और प्लास्टिक की प्लेटें, ग्लास और पन्नियों का कचरा इधर उधर बिखरा था। किसी भी दर्शनीय स्थल का कचरा कैसे किया जाता है, उसमें आम भारतीय पिकनिकार्थी की पी.एच.डी. है।
इतने रमणीय स्थल पर धरती पर उतारती एक इबारत किसी ने पत्थर पर उकेर दी थी - "सरकारी नौकरी के लिये सम्पर्क करें - मोबाइल नम्बर 93---------। इस वातावरण में भी बेरोजगारी और सरकारी नौकरी की अहमियत का अहसास! हुंह!
एक सज्जन दिखे। नहाने के बाद टर्किश टॉवल बान्धे थे। गले में एक मोटी सोने की चेन। मुंह में पान या सुरती। उनकी पत्नी और दो परिचारिका जैसी महिलायें साथ थीं। वे उपले की गोहरी जला कर उसपर एक स्टील की पतीली में अदहन चढ़ा रहे थे। मैने अनुरोध किया - एक फोटो ले लूं?
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वे सहर्ष हामी भर गये। एक हल्के से प्रश्न के जवाब में शुरू हो गये - बनारस से आये हैं यहां सैर करने। इस पतीली में दाल बनेगी। प्रोग्राम है चावल, चोखा और बाटी बनाने का। अगले तीन घण्टे यहां बिताने हैं। भोजन की सब सामग्री तो यहीं स्थानीय खरीदी है, पर उपले अपने साथ बनारस/सारनाथ से ही ले कर आये हैं। यहां वालों को ढ़ंग की उपरी बनाना नहीं आता!
विशुद्ध रसिक जीव! सैर में पूरा रस लेते दिखे। इस किच किच के समय में जहां पूरा देश भ्रष्टाचार पर चर्चा में आकण्ठ डूबा है, वहां इनको यह तक सूझ रहा है कि सौ किलोमीटर दूर सारनाथ से पिकनिक मनाते जाते समय घर से उपले भी ले चलें! एक शुद्ध बनारसी जीव के दर्शन हुये! सिल लोढ़ा और भांग होती तो सीन पूरा हो गया होता!
विंढम फॉल्स के वापस लौटते समय पैदल की दूरी पर एक ग्रामीण पाठशाला से वापस लौटते बच्चे दिखे। सभी स्कूल की यूनीफार्म पहने थे। सभी के पास बस्ते थे। पथरीली जमीन पर गर्मी में वे चल रहे थे पर उनमें से दो तिहाई के पैर में चप्पल या जूते नहीं थे। सुरेश विश्वकर्मा ने बताया कि स्कूल में यूनीफार्म बस्ता और किताबें फ्री मिलती हैं। दोपहर का भोजन भी मिलता है। इसलिये सभी स्कूल आ रहे हैं, यूनीफार्म भी पहने हैं और बस्ता भी लिये हैं। फ्री में जूता नहीं मिलता, सो नंगे पांव आ रहे हैं।
कुलमिला कर गरीबी है और स्कूल उस गरीबी को कुछ मरहम लगाता है - अत: स्कूल आबाद है। यही सही। बस सरकार जूते या चप्पल भी देने लगे तो नंगे पांव पत्थर पर चलने की मजबूरी भी खत्म हो जाये।
ओह! मैने बहुत ज्यादा ही लिख दिया! इतनी बड़ी पोस्टें लिखने लगा तो कहीं लेखक न मान लिया जाऊं, ब्लॉगर के स्थान पर! :lol: