Sunday, March 11, 2012

कछार रिपोर्ताज - 2

[caption id="attachment_5581" align="alignright" width="300" caption="शिवाकान्त जी मिले। सिर पर साफा बान्धे। हाथ में गंगाजल ले जाने के लिये जरीकेन। यह जगह उन्हे इतनी अच्छी लगती है कि गांव जाने का मन नहीं करता!"][/caption]

होली के बिहान (9 मार्च) सवेरे घूमने गया तो आसमान साफ था। सूर्योदय मेरे सामने हुआ। ललिमा नहीं थी - कुछ पीला पन लिये थे सूर्य देव। जवाहिरलाल ने अलाव जला लिया था। हवा में कल की अपेक्षा कुछ सर्दी थी। गंगाजी के पानी से भाप उठती दिख रही थी, अत: पानी के ऊपर दिखाई कम दे रहा था।

लौकी की बेलें अधिक फैल रही हैं। कुछ तो सरपत की बाड़ लांघ कर बाहर आ रही थीं। वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है - वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।

सरपत की आड़ से देखने पर सूर्योदय बहुत मोहक लग रहा था। गंगा नदी में काफी दूर हिल कर एक आदमी बहुत देर से शांत पानी में खड़ा पूजा कर रहा था और एक अन्य किनारे पर कोई स्तुति पढ़ रहा था।

[caption id="attachment_5578" align="aligncenter" width="584" caption="सरपत की बाड़ की ओट से निकलता सूरज - गंगा नदी के उसपार!"][/caption]

दूर शिवाकांत जी आते दीखे। उन्होने जब आवाज लगाई स्तुति पढ़ते सज्जन को तो पता चला कि स्तुति करने वाले कोई शुक्ला जी हैं।

शिवाकांत जी बैंक से रिटायर्ड हैं और यहीं शिवकुटी में रहते हैं। कभी कभी अपने पोते के साथ घूमते दीख जाते हैं। आज अकेले थे। सिर उनका गंजा है, पर आज गमछे का साफा बांध रखा था। बहुत जंच रहे थे। हाथ में गंगाजल ले जाने के लिये एक जरीकेन लिये थे। हम बड़ी आत्मीयता से होली की गले मिले। उन्होने बताया कि गंगा किनारे की यह जगह बहुत अच्छी लगती है उन्हे। इतनी अच्छी कि गांव में घर जमीन खेती होने के बावजूद वहां जाने का मन नहीं करता!

वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।


शिवाकांत पाण्डेय जी में मुझे अपना रिटायर्ड भविष्य दीखने लगा।

कल्लू  बहुत दिनों बाद नजर आया। बेल लगाने के लिये गड्ढ़ा खोद रहा था। बीच में पौधे के लिये परिधि में गहरे खाद डाली जायेगी गोबर और यूरिया की। कल्लू ने बताया कि उसकी मटर आन्धी-पानी-पाला के  कारण अच्छी नहीं हुई पर सरसों की फसल आशा से बेहतर हुई है। कल जो सरसों का कटा खेत मैने देखा था, वह कल्लू का ही था। जो ठेले पर पानी देने का पम्प देखा था, वह भी कल्लू का है। उसने बताया कि इस साल तीन जगह उसने खेती की है। एक तरफ लौकी-कोन्हड़ा है। दूसरी जगह नेनुआ, टमाटर करेला। एक अन्य जगह बींस (फलियां - बोड़ा) है। उसने खीरा-ककड़ी-हिरमाना (तरबूज) और खरबूजे की खेती की भी शुरुआत की है। तीन अलग अलग जगह होने के कारण ठेले पर पानी का पम्प रखे है - जहां पानी देने की जरूरत होती है, वहां ठेला ले जा कर सिंचाई कर लेता है।

एक खेत में एक बांस गड़ा था। उसपर खेती शुरू करते समय लोगों ने टोटके के रूप में मिर्च-नीम्बू बान्धे थे। उसी बांस पर बैठी थी एक चिड़िया। गा रही थी। मुझे देख कर अपना गाना उसने बन्द कर दिया पर अपना फोटो खिंचाने के बाद ही उड़ी!

वापसी में जवाहिरलाल से पूछा कि बाउण्ड्री बनाने का जो काम उसने झूंसी में किया था, उसका पैसा मिला या नहीं? अनिच्छा से जवाहिर ने (रागदरबारी के मंगलदास उर्फ लंगड़ जैसी दार्शनिकता से) जवाब दिया - नाहीं,  जाईं सारे, ओनकर पईसा ओनके लगे न रहे। कतऊं न कतऊं निकरि जाये (नहीं, जायें साले, उनका पैसा उनके पास नहीं रहेगा। कहीं न कहीं निकल जायेगा)। तिखारने पर पता चला कि मामला 900-1000 रुपये का है। गरीब का हजार रुपया मारने वाले पर बहुत क्रोध आया। पर किया क्या जा सकता है। पण्डाजी ने पुलीस की सहायता लेने की बात कही, पर मुझे लगा कि पुलीस वाला सहायता करने के ही हजार रुपये ले लेगा! एक अन्य सज्जन ने कहा कि लेबर चौराहे पर यूनियन है जो इस तरह का बकाया दिलवाने में मदद करती है। जवाहिरलाल शायद यूनियन के चक्कर लगाये। :-(

कुल मिला कर सवेरे की चालीस मिनट की सैर मुझे काफी अनुभव दे गयी - हर बार देती है!

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17 comments:

राहुल सिंह said...

प्रभाती पवित्रता.

काजल कुमार said...

...आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।

एकदम सही, रोज़ाना एक ही जगह आमने सामने मिलने वाले एक-दूसरे से इसी लिए कभी भी बात नहीं करते कि ताज़िंदगी दूसरे का अस्तित्व स्वीकार करना होगा

प्रवीण पाण्डेय said...

वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।

जो जितना जड़, वह उतना चेतन....अद्भुत अवलोकन..

विष्‍णु बैरागी said...

'वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।'

इस पोस्‍ट का उपरोक्‍त अंश तो सहेज कर रखने और प्रति पल याद रखने के योग्‍य है।

भारतीय नागरिक said...

जब भी मैं आपकी पोस्ट पढ़ता हूँ, मैं यह सोचने लगता हूँ कि अब से २००-५००-१००० वर्ष पहले गंगा का क्या स्वरूप रहा होगा. कितनी महत्ता रही होगी और कितनी ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई होंगी. बिलकुल किसी थ्रिलर उपन्यास की तरह.

अनूप शुक्ल said...

वाह! आज आपको भविष्य दिखा। बधाई! :)
पोस्ट चकाचक। फोटो शानदार! :) :)

ashish rai said...

मन की बाड वाली बात तो ऊँचे दर्जे का दार्शनिक सिद्धांत प्रतीत होता है .मन और सरपत दोनों बाड- पदार्थ है .सुघर बात .कलुआ की बात सहिये है सारे लोग के ऐसन पैसा कही ना कही निकरी जाई.

ashish rai said...

ये लो पैसा डूबा जवाहिर का और हमसे भूलवश कलुआ लिखा गया

Gyanendra said...

यहाँ आपने दार्शनिक की तरह ये बात कही है.........बिल्कुल सत्य

"वनस्पति बाड़ की भौतिक सीमा नहीं मानती। पशु काफी हद तक अपने को भौतिक बाड़ के लिये कण्डीशन कर लेते हैं और आदमी एक कदम आगे है – वह अपने मन में ही बाड़ बना लेता है जिसे वह लांघने का प्रयास ही नहीं करता।"

वनस्पति के लिए सीमा सिर्फ़ और सिर्फ़ प्राकृतिक नियमों की है...... बाकी कोई नियम नहीं है.पर प्राकृतिक नियम मे निहित स्वतंत्रता भी है प्रकृति की.
पशु के लिए कुछ और सीमायें हैं,क्यों की उनकी भी अपनी सोच है, भले ही मनुष्य की अपेक्षा कम, पर है और यही सोच उनकी सीमागत बाधाएँ भी है.
इंसान जितना अपनी बुद्धि का उपयोग करता है, बिना प्रकृति को समझे....... उतना प्रकृति से दूर होता जाता है.
और जितना प्रकृति से दूर होते जाता है,उतना खुद से दूर हो जाता है(खुद को समझ नहीं पाता),और मान की बाधाएँ बना लेता है.

Gyandutt Pandey said...

फिक्र न करें, हम समझ गये थे आपका आशय! :-)

सलिल वर्मा said...

होली की भंग चढाये सूरज भी पीला हो रहा था, लाल नहीं.. हरियाली फलियों की और कोंहडे का नारंगीपन, सरसों की फलियाँ.. कुल मिलाकर इन्द्रधनुषी छटा.. मगर जवाहर के हज़ार रुपये पचा जाने की बात पर क्षोभ हुआ.. और उसे गलत रास्ता भी बता दिया.. पुलिस के आसमान से निकालकर यूनियन के ताड़ में मत फंसाइए!!
सिम्पथी है उसके साथ.. सच्च्मुच लंगड!!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

रोजाना गंगाजी का दर्शन और उसी के भीतर से चकाचक ब्लॉगपोस्ट। हर पोस्ट में संग्रह करने लायक आप्तवचन मिल ही जाते हैं।

आपकी रचनाशीलता और सौभाग्य दोनो को सादर प्रणाम।

वाणी गीत said...

गंगा के किनारे सुबह सवेरे भ्रमण के सात दार्शनिकता का संगम बढ़िया है ...
अच्छी तस्वीरें , ये भी भविष्य बता रही है :)

Ranjana said...

इतने सुन्दर चित्र, यह रिपोर्ट और सबसे बढ़कर "बाड़ सूत्र", निःशब्दता की स्थिति में पहुंचा देती है, कहाँ कुछ कहने लायक छोडती है..

पा.ना. सुब्रमणियन said...

जवाहिर सयाना है. उसकी बात ही सच निकलेगी. सूर्योदय देख मन प्रसन्न हुआ.

समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार" said...

बहुत जबरदस्त अनुभव बटोर रहे हैं- बहुते काम आयेगा रिटायरमेन्ट के बाद!!

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

वाह, बहुत सुन्दर! याद आया कि एक बार एक शिवाकान्त जी ने मुझे डूब जाने से बचाया था।