Monday, July 30, 2012

ममफोर्डगंज के अफसर

[caption id="attachment_5947" align="alignleft" width="300"] "ममफोर्डगंज का अफसर" का प्रशस्ति कहता संपेरा सांप को हाथ में लेने का निमन्त्रण देता हुआ।[/caption]

एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ में बेटन। जींस की पैण्ट। ऊपर कुरता। अधपके बाल। यह आदमी मैं ही था, जो पत्नीजी के साथ गंगा किनारे जा रहा था। श्रावण शुक्लपक्ष अष्टमी का दिन। इस दिन शिवकुटी में मेला लगता है। मेलहरू सवेरे से आने लगते हैं पर मेला गरमाता संझा को ही है।

मैं तो सवेरे स्नान करने वालों की रहचह लेने गंगा किनारे जा रहा था। सामान्य से ज्यादा भीड़ थी स्नानार्थियों की। पहले सांप ले कर संपेरे शिवकुटी घाट की सीढ़ियों पर या कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास बैठते थे। अब किसी नये चलन के अनुसार स्नान की जगह पर गंगा किनारे आने जाने के रास्ते में बैठे थे। कुल तीन थे वे।

उनमें से एक प्रगल्भ था - हमें देख जोर जोर से बोलने लगा - जय भोलेनाथ। जय नाग देवता! आपका भला करेंगे...

[caption id="attachment_5948" align="aligncenter" width="800"] जय भोलेनाथ। जय नाग देवता! आपका भला करेंगे...[/caption]

दूसरा, जो दूसरी ओर बैठा था, उतनी ही ऊंची आवाज में बोला - अरे हम जानते हैं, ये ममफोर्डगंज के अफसर हैं। दुहाई हो साहब।

मैं अफसर जैसा कत्तई नहीं लग रहा था। विशुद्ध शिवकुटी का देशज बाशिंदा हूं। अत: मुझे यह ममफोर्डगंज के अफसर की थ्योरी समझ नहीं आयी। हम आगे बढ़ गये। स्नान करते लोगों के भिन्न कोण से मैने दो-चार चित्र लिये। गंगाजी बहुत धीमे धीमे बढ़ रही हैं अपनी चौडाई में अत: स्नान करने वालों को पानी में पचास कदम चल कर जाना होता है, जहां उन्हे डुबकी लगाने लायक गहराई मिलती है। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे। साल दर साल इस तरह के दृष्य देख रहा हूं। पर साल दर साल सम्मोहन बरकरार रहता है गंगाजी का, उनके प्रवाह का, उनके दांये बांये घूम जाने की अनप्रेडिक्टेबिलिटी का।

वापस लौटते समय मेरी पत्नीजी ने कहा कि दस पांच रुपये हों तो इन संपेरों को दे दिये जायें। मैने जब पैसे निकाले तो वे संपेरे सतर्क हो गये। मम्फोर्डगंज का अफसर बोलने वाले ने अपने दोनों पिटारे खोल दिये। एक में छोटा और दूसरे में बड़ा सांप था। बड़े वाले को उसने छेड़ा तो फन निकाल लिया उसने। संपेरे ने मेरी पत्नीजी को आमन्त्रण दिया कि उसको हाथ में ले कर देखें वे। हाथ में लेने के ऑफर को तुरत भयमिश्रित इनकार कर दिया पत्नीजी ने। पर उस सपेरे से प्रश्न जरूर पूछा - क्या खिलाते हो इस सांप को?

बेसन की गोली बना कर खिलाते हैं। बेसन और चावल की मिली गोलियां।  

दूध भी पिलाते हो? - यह पूछने पर आनाकानी तो किया उसने, पर स्वीकार किया कि सांप दूध नहीं पीता! या फिर सांप को वह दूध नहीं पिलाता।

[caption id="attachment_5949" align="aligncenter" width="800"] "बेसन की गोली बना कर खिलाते हैं (सांप को)। बेसन और चावल की मिली गोलियां।"[/caption]

वह फिर पैसा मिलने की आशा से प्रशस्ति गायन की ओर लौटा। अरे मेम साहब, (मुझे दिखा कर) आपको खूब पहचान रहे हैं। जंगल के अफसर हैं। ममफोर्डगंज के। मुझे अहसास हो गया कि कोई डी.एफ.ओ. साहब का दफ्तर या घर देखा होगा इसने ममफोर्डगंज में। उसी से मुझको को-रिलेट कर रहा है। उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया हमने। पर पत्नीजी ने उसे दस रुपये दे दिये।

दूसरी ओर एक छोटे बच्चे के साथ दूसरा सपेरा था। वह भी अपनी सांप की पिटारियां खोलने और सांपों को कोंचने लगा। जय हो! जय भोलेनाथ। यह बन्दा ज्यादा प्रगल्भ था, पर मेरी अफसरी को चम्पी करने की बजाय भोलेनाथ को इनवोक (invoke) कर रहा था। उसमें भी कोई खराबी नजर नहीं आयी मुझे। उसे भी दस रुपये दिये पत्नीजी ने।

[caption id="attachment_5950" align="aligncenter" width="800"] एक तीसरा, अपेक्षाकृत कमजोर मार्केटिंग तकनीक युक्त सपेरा भी बैठा था।[/caption]

एक तीसरा, अपेक्षाकृत कमजोर मार्केटिंग तकनीक युक्त सपेरा भी बैठा था। उसको देने के लिये हमारे पास पैसे नहीं बचे तो भोलेनाथ वाले को आधा पैसा उस तीसरे को देने की हिदायत दी। ... मुझे पूरा यकीन है कि उसमें से एक पाई वह तीसरे को नहीं देगा। पर हमारे संपेरा-अध्याय की यहीं इति हो गयी। घर के लिये लौट पड़े हम।

[caption id="attachment_5951" align="aligncenter" width="800"] लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे।[/caption]

Saturday, July 28, 2012

विकास हलवाई झूलेवाला

[caption id="attachment_5936" align="alignleft" width="300"] शिवकुटी लगे मेले में लगे झूले।[/caption]

कल था शिवकुटी का मेला। हर साल श्रावण मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को होता है यह। एक दिन पहले से झूले वाले आ जाते हैं। नगरपालिका के लोग सड़क सफ़ाई, उनके किनारे चूना बिखेरना, सड़क पर रोशनी-पानी की व्यवस्था करना आदि करते हैं। पुलीस वाले अपना एक अस्थाई नियन्त्रण कक्ष बनाते हैं। दो साल पहले तक तो एक दो घोड़े पर सवार पुलीस वाले भी रहते थे। अब घोड़े नहीं दिखते। उनका स्थान मोटर साइकल या चौपहिया वाहन ने ले लिया होगा।

तरह तरह की दुकानें लगती हैं - चाट, अनरसा, नानखटाई, बरतन, आलूदम, खिलौने, शीशा-कंघी, सस्ती किताबें, मेंहदी, पिपिहरी, गुब्बारे --- सब मिलते हैं।

बच्चों के लिये आकर्षण होता है झूले का। गोल चकरी वाला बड़ा झूला लगता है। हवा भर कर फिसलपट्टी वाला उपकरण और स्विंग करने वाले झूले भी होते हैं। जिस दिन झूला बिठाया जा रहा होता है, उसी समय से आस पास के बच्चे इधर उधर चक्कर काटने लगते हैं। झूला लगते ही झूले वालों की बिक्री प्रारम्भ हो जाती है। रेट सबसे ज्यादा मेले के दिन होते हैं। उससे एक दिन पहले कम रेट पर और एक दो दिन बाद और कम रेट पर बच्चों को झुलाते हैं ये झूले वाले। फिर ट्रक आदि में उन्हे डिसमेण्टल कर लाद कर वैसे ही ले जाते हैं वे लोग, जैसे लाये थे।

आज शाम के समय झूला चल रहा था। काफी बच्चे थे। बिजली नहीं आ रही थी, अत: हवा इन्फ्लेट कर बनने वाली फिसलपट्टी नहीं चल रही थी।

एक नाव के आकार के स्विंग करते झूले में आठ दस बच्चे बैठे थे। पास में एक सांवला सा आदमी खड़ा था। मैने उससे पूछा - यह झूला आपका है?

वह एक कदम पीछे हट गया और पास ही में खड़े दूसरे व्यक्ति की ओर इशारा कर बोला - इनका है। 
[caption id="attachment_5924" align="aligncenter" width="300"] विकास हलवाई झूलावाला का झूला और पास में खड़ी उसकी मोटर साइकल।[/caption]
वह दूसरा व्यक्ति पान खा रहा था। पैण्ट कमीज पहने था। देखने में प्रसन्नमन लगा। वह बोला -  जी, मेरा है। एक यह झूला है और एक रबड़ वाली फिसलपट्टी। वह वहां है। अभी बिजली नहीं आ रही, इस लिये वह नहीं चल रही। 

आत्मविश्वास से भरा वह व्यक्ति बात करने में भी तेज था। ज्यादा सवाल पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। बताने लगा कि यहां से वे अपना सामान ले कर सलोरी जायेंगे। वहां से फलानी जगह और उसके बाद ढिमाकी जगह।

सामान कैसे ले जाते हैं?

परसों गाड़ी में लाद कर ले जायेंगे। 

कितनी दूर तक जाते हैं?

उसने बताया कि तेलियरगंज का रहने वाला है वह। इलाहाबाद से २५०-३०० किलोमीटर के दायरे में करीब तीस चालीस जगह जाते हैं वे साल भर में। एक मेले से दूसरे में। पूरा शिड्यूल तय होता है। गाजीपुर, कानपुर, फतेहपुर आदि अनेक उत्तरप्रदेश के शहरों के नाम गिना दिये उसने जहां वे जाते हैं। इन सभी जगहों से तो अब काफी पहचान हो गयी है। हर जगह पर कहां रुकना है, किस दुकान से आटा-चावल खरीदना है और कहां से सब्जी - सब तय है। उसके साथ बारह कर्मचारी हैं जो साल भर एक जगह से दूसरी जाते रहते हैं।

मुझे लगा कि मैं आधुनिक घुमन्तू जाति के जीव - आधुनिक गाडुलिये लुहार से मिल रहा हूं - जिनका व्यवसाय, बोलचाल, पहनावा अलग है और जो अधिक आत्मविश्वास से भरे हैं।

आपका नाम क्या है?

उसने बताया - विकास हलवाई। तेलियरगंज में उसकी हलवाई की दुकान है। उसके अलावा एक चाट कॉर्नर भी है। दुकान, चाट कॉर्नर और झूले के व्यवसाय के अलावा वह केटरिंग का ठेका भी लेता है शादी-व्याह-समारोहों में।

फिर विकास हलवाई को लगा कि मैं उसे हल्के से न ले लूं - मैं आपसे मिलूंगा तो ऐसे ही कपड़ों में, भले ही घर पर फ्रिज टीवी और सुख सुविधा का सभी सामान है। चलने के लिये भी बहत्तर हजार की पल्सर है मेरे पास। 
[caption id="attachment_5925" align="aligncenter" width="300"] विकास हलवाई झूलावाला।[/caption]
बारह कर्मचारी, हलवाई, केटरिंग और झूले का व्यवसाय। आत्मविश्वास से लबालब बातचीत। विकास हलवाई को हल्के से लेने का कोई कारण नहीं था। मैने आत्मीयता से उसके कन्धे पर हाथ रखा और कहा कि उससे मिल कर वहुत प्रसन्नता हुई हमें। मेरी पत्नीजी ने भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

हमने चलते हुये परस्पर नमस्ते की। मैने विकास से हाथ मिलाया। उसके हाथ मिलाने में उसके आत्मविश्वास का पर्याप्त आभास होता था। एक संकोच में भरे छोटे कामकाजी का हाथ नहीं था वह, नये भारत के सेल्फ-कॉन्फीडेंस से लबालब नयी पीढ़ी के उद्यमशील व्यवसायी का हाथ था!

अच्छा लगा विकास हलवाई झूलेवाला से हाथ मिलाना और वह छोटी मुलाकात। आप भी कभी विकास से मिलियेगा तो उसे हल्के से लेने की गलती न करियेगा। ... वह नये भारत की तस्वीर है। स्मार्ट और स्ट्रीट स्मार्ट भी।

Thursday, July 26, 2012

लंगड़ जवाहिरलाल

[caption id="attachment_5909" align="alignright" width="300"] लंगड़ जवाहिरलाल[/caption]

कई दिन से घूमने नहीं जा पाया था। आज सयास पत्नीजी के साथ गंगा किनारे गया। आज श्रावण शुक्लपक्ष अष्टमी है। शिवकुटी के कोटेश्वर महादेव मन्दिर पर मेला लगता है। उसकी तैयारी देखने का भी मन था।

शिवकुटी घाट की सीढियों पर जवाहिरलाल अपने नियत स्थान पर था। साथ में बांस की एक खपच्ची लिये था। बांया पैर सूजा हुआ था।

क्या हुआ? पूछने पर उसने बताया - स्कूटर वाला टक्कर मार देहे रहा। हड्डी नाहीं टूटी बा। गरम तेल से सेंकत  हई। (स्कूटर वाले ने टक्कर मार दी थी। हड्डी नहीं टूटी है। गरम तेल से सिंकाई करता हूं।)

जवाहिर लाल जितना कष्ट में था, उतना ही दयनीय भी दिख रहा था। सामान्यत: वह अपने हालात में प्रसन्नमन दिखता है। कुत्तों, बकरियों, सूअरों से बोलता बतियाता। मुखारी करता और बीच बीच में बीड़ी सुलगाता। आज उसके पास एक कुत्ता - नेपुरा बैठा था, पर जवाहिर लाल वह जवाहिर नहीं था, जो सामान्यत: होता था।

मेरी पत्नी जी ने फिर पूछा - डाक्टर को दिखाये? दवाई कर रहे हो? 

उसका उत्तर टेनटेटिव सा था। पूछने पर बताया कि आठ नौ दिन हो गये हैं। डाक्टर के यहां गया था, उसने बताया कि हड्डी नहीं टूटी है। मेरी पत्नीजी ने अनुमान लगाया कि हड्डी वास्तव में नहीं टूटी होगी, अन्यथा चल नहीं पाता। सूजन के बारे में पूछने पर बताया - पहिले एकर डबल रही सूजन। अब कम होत बा। (पहले इसकी डबल सूजन थी, अब कम हो रही है।)

मैने सोचा, उसकी कुछ सहायता कर दूं। जेब में हाथ गया तो पर्स में कोई छोटा नोट नहीं मिला। पांच सौ रुपया था। एक बार विचार आया कि घर जा कर उसे सौ-पचास भिजवा दूं। फिर मन नहीं माना। उसे वह नोट थमा दिया - क्या पता घर जाते जाते विचार बदल जाये और कुछ भी न देना हो!

पत्नीजी ने इस कदम का मौन समर्थन किया। जवाहिरलाल को धमकाते हुये बोलीं - पी मत जाना, सीधे सीधे डाक्टर के पास जा कर इलाज कराना।

जवाहिरलाल ने पैसा लेते हुये हामी भरी। पत्नीजी ने हिदायत दुबारा री-इटरेट की। हम लोग घर लौटे तो जेब हल्की थी, मन जवाहिर की सहायता कर सन्तोषमय था। ... भगवान करें, जल्दी ठीक हो जाये जवाहिरलाल। [slideshow]

Monday, July 23, 2012

ज्ञान धर दुबे

मेरे समधी हैं श्री ज्ञान धर दुबे। मिर्जापुर के पास धनावल गांव है उनका। एक बरसाती नदी पर जलप्रपात बनता है - बिण्ढ़म फॉल। उससे लगभग तीन किलोमीटर पश्चिम-उत्तर में है उनका गांव। उनकी बिटिया बबिता से मेरे लड़के का विवाह हुआ है पिछले महीने की चौबीस तारीख को। विवाह के बाद कल वे पहली बार अपनी बिटिया (और हम सब से) मिलने आये थे हमारे घर शिवकुटी।

[caption id="attachment_5895" align="alignright" width="800"] हमारे घर आये श्री ज्ञानधर दुबे।[/caption]

श्री ज्ञानधर बहुत संकोची जीव हैं। बहुत ही कम बोलते हैं। उनके साथ उनके ताऊ जी के लड़के श्री सतीश साथ थे और अधिक बातचीत वही कर रहे थे। ज्ञानधर किसान हैं और जैसा लगता है, पूरी मेहनत से किसानी करते हैं। उनके पास एक ट्रेक्टर है - नया ही है। मैने पूछा कि उनकी खेती के अतिरिक्त ट्रेक्टर कितना काम करता है? अपना सवाल मुझे सही उत्तर के लिये री-मार्शल भी करना पड़ा। उनका जवाब था कि जितना समय वे अपनी खुद की खेती पर देते हैं, उतना ही ट्रेक्टर प्रबन्धन पर भी लगता है। वे सवेरे नौ बजे से काम पर लग जाते हैं और दोपहर के भोजन के समय एक घण्टा आराम के अलावा सूर्यास्त तक काम पर रहते हैं। यह जरूर है कि किसानी के लिये कई ज्यादा गतिविधि के समय होते हैं, और कई आराम के। यह फसल रोपाई का समय है - कस कर मेहनत करने का समय!

श्री ज्ञानधर मेहनती भी हैं और दूसरो की सहायता करने वाले भी। मुझे याद है कि एक बात, जिसके आधार पर मैने उनके परिवार से सम्बन्ध करने का निर्णय लिया था, वह थी बबिता का यह कहना कि उसके पिताजी रात बिरात भी अपने आस पास वालों की सहायता करने को तत्पर रहते हैं।

मैने ज्ञानधर जी से कहा कि गांव में रहने के अपने आकर्षण हैं। मेरे पिताजी ने टोका - गांव में बीमार होने पर इलाज करा पाना मुश्किल है। इसपर श्री ज्ञानधर का स्वत: स्फूर्त उत्तर था - पर गांव में आदमी बीमार भी कम होता है। कई लोग उनके कहे से सहमत न हों, पर जब मैं अपनी सात दवा की गोलियां सवेरे और तीन शाम को लेने की बात याद करता हूं, तो लगता है कि कहीं न कहीं उनकी बात में सच्चाई है।

उनके गांव में दिन में दो-तीन घण्टा बिजली आती है। घर के पास लगभग ६००-८०० मीटर तक पक्की सड़क नहीं है। किसानी के बाद अनाज रोक कर रखना - तब तक, जब तक दाम अच्छे न मिलें, उनके लिये बहुधा सम्भव नहीं होता। फिर भी, उनकी जीवन शैली मुझे ललचाती नजर आती है। उसमे एक विविधता पूर्ण अन्तर है और अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को कम करने की बाध्यता भी। दोनो में अपनी चुनौती भी है और एक तरह की मोनोटोनी तोड़ने का कम्पल्शन भी।
मुझे याद है कि एक बात, जिसके आधार पर मैने उनके परिवार से सम्बन्ध करने का निर्णय लिया था, वह थी बबिता का यह कहना कि उसके पिताजी रात बिरात भी अपने आस पास वालों की सहायता करने को तत्पर रहते हैं।

मेरे आस पार रेल की पटरियां हैं। उनके पास बिण्ढ़म और टाण्डा फॉल हैं, सिरसी डैम है, उत्तर में गंगा नदी हैं और दक्षिण में शोणभद्र...। मेरे पास सभ्यता की जंजीरें हैं, उनके पास प्रकृति का खजाना...

खैर, मैं मैं रहूंगा और ज्ञानधर ज्ञानधर रहेंगे। ज्ञानदत्त ज्ञानधर नहीं हो सकते। पर ज्ञानदत्त के पास सपने देखने की आजादी है, जो (शायद) जायेगी नहीं...

[caption id="attachment_5897" align="alignright" width="584"] गूगल अर्थ पर बिण्ढ़म फॉल का दृष्य। यह स्थान श्री ज्ञानधर दुबे के गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर है।[/caption]

Thursday, July 19, 2012

रतलाम की सड़क पर

[caption id="attachment_5871" align="alignright" width="300"] रतलाम स्टेशन का अन्दरूनी दृष्य। फुट ओवर ब्रिज स्टेशन के आरपार जाता है। पहले यह प्लेटफार्म पर नहीं उतरता था, अब यह उतरता है![/caption]

हमारे पास एक डेढ़ घण्टे का समय था और एक वाहन। सड़क पर घूमते हुये रतलाम का नौ वर्ष बाद का अहसास लेना था। आसान काम नहीं था - जहां चौदह-पन्द्रह साल तक पैदल अनन्त कदम चले हों वहां वाहन में डेढ़ घण्टे से अनुभूति लेना कोई खास मायने नहीं रखता। पर जैसे पकते चावल का एक टुकड़ा देख-दबा कर समूचे पतीले का अन्दाज लगाया जाता है, हमने वही करने का यत्न किया।

रतलाम स्टेशन पहले की तुलना में अधिक साफ और सुविधा सम्पन्न लगा। यह भी हो सकता है कि हमने भीड़ के समय प्लेटफार्म पर चहलकदमी नहीं की, अन्यथा गन्दगी दीखती। पहले छप्पनियां (५६अप) या मामा-रेल (१३०/१२९ पेसेन्जर) के समय भील लोगों की उपस्थिति में बहुत भीड़ होती थी। रात में भील लोग प्लेटफार्म पर ही सोते-जागते दीखते थे। अब जब स्टेशन देखा, तो साफ और रंग-रोगन से चमकता दीखा। स्टॉल भी पहले की अपेक्षा अधिक सामान के साथ और साफ नजर आये। प्लेटफार्म पर गाय बैल बकरी नहीं थे, जो पहले हुआ करते थे। यद्यपि स्टेशन के बाहर जरूर दीखे - सांड़ भी थे जो बनारस के टच की कमी मालवा के रतलाम में पूरी कर रहे थे।

स्टेशन के घोड़े (सज्जन सिंह बहादुर की चौराहे की घोड़े पर सवारी करती प्रतिमा) तक सड़क पहले की अपेक्षा ज्यादा चौड़ी और साफ थी। फ्रीगंज की सड़क भी पहले की अपेक्षा चौड़ी और साफ नजर आयी। मुझे बताया गया कि रेलवे मालगोदाम के ट्रक अब फ्रीगंज से आते जाते हैं - सो स्टेशन की सड़क पहले से ज्यादा खुली और हवादार लगी। कन्हैया (वाहन चालक) ने बताया कि कभी एक गार्ड साहब को एक ट्रक ने जख्मी कर दिया था। उसी के बाद मालगोदाम के ट्रक स्टेशन रोड से बन्द कर दिये गये। भला हो उन गार्ड साहब का...

कालिका माता मन्दिर का परिसर तो बहुत ही शानदार था, पहले की तुलना में। मन्दिर के पास का कुण्ड - जिसमें कभी सड़ते पानी की बदबू आया करती थी, अब स्वच्छ जल युक्त था और उसमें बीचोबीच फौव्वारा भी चल रहा था। बच्चों के मैरी-गो-राउण्ड और खिलौना गाड़ियां भी पहले से ज्यादा चमकदार लगे। एक परिवार कालिकामाता मन्दिर के सामने अपनी नयी मोटर साइकल की पूजा करवा रहा था। माता का आशीर्वाद उनकी मोटरसाइकल और उन्हे सुरक्षित रखे...

हम तीन दुकानों पर गये - एक था मेवाड़ स्टोर। यहां मुस्लिम दुकानदार और उनका लड़का बन्धेज के सूट के कपड़े बेंचते हैं। अधेड़ दुकानदार मेरी पत्नीजी को पहचान गये और मुझे भी। बार बार पूछ भी रहे थे कि मैं वापस यहीं पदस्थ हो कर आ गया हूं, क्या? वे और उनका लड़का बार बार कह रहे थे कि हम में कोई खास फर्क नहीं देखते वे उम्र के प्रभाव का (मेरे ख्याल से वे सही नहीं थे, पर हमने इसे कॉम्प्लीमेण्ट की तरह लिया)। मेवाड़ स्टोर वाले अपना बंधेज का सामान जोधपुर से लाते हैं। वहां उनके रिश्तेदार हैं। इस हिसाब से स्टोर को तो मारवाड़ स्टोर होना चाहिये था...

उमेश किराना स्टोर, जहां से हम किराने का सामान लिया करते थे और मैं पैदल चलते हुये वहां जाया करता था, एक छोटी सी दुकान है। उमेश मिल गये। उनका वजन पहले से बढ़ा हुआ था। वे हमें देख बहुत प्रसन्न हुये। बार बार आग्रह करने लगे कि शाम का भोजन उनके घर पर लें हम। बड़ी कठिनायी से हमने उन्हे मनाया कि भोजन तो मेरी अस्वस्थता के कारण हम कहीं कर नहीं पायेंगे। आतिथ्य के रूप में उमेश से हमने इलायची और टॉफी ग्रहण की। उनकी दुकान से चलते समय मेरी आंख का कोई कोना नम था...

जलाराम की दुकान से हमने दो महीने के लिये पर्याप्त नमकीन, मेथी की पूरी, सींगदाना आदि खरीदे। रतलाम में रहते हुये नमकीन हम उन्ही की दुकान से लिया करते थे। दुकान पहले से दुगनी बड़ी हो गयी थी। सर्वानन्द का जनरल स्टोर भी अब दो मंजिला हो गया है। उसमें एक चक्कर लगाने का मन था, पर समयाभाव के कारण वह टाल दिया।

डाट की पुलिया से रतलाम रहते रोज गुजरना हुआ करता था। सर्दियों के मौसम में मैं एक अमरूद खरीद कर खाते खाते पैदल दफ्तर आया जाया करता था - तब मेरे साथ के सभी अफसर वाहन से आते जाते थे। अत: डाट की पुलिया से मैं शायद सबसे ज्यादा पैदल गुजरने वाला अफसर हो सकता हूं। डाट की पुलिया यथावत दीखी। कन्हैया ने बताया कि पुलिया का एक और बुगदा (सुरंग) बनाने का प्लान था, पर वह हुआ नहीं। आगे शायद बन जाये। शायद न भी बने - बनने के लिये मुझे आस पास ज्यादा जमीन नजर नहीं आती।

हम रेलवे कालोनी के अन्त तक गये। चौदह नम्बर की सड़क के किनारे नमकीन मिठाई की दुकान देखने का मन था - जहां पहले एक मोटी तोंद और छोटी बनियान वाला काला भुजंग बद शक्ल हलवाई हुआ करता था और जिसकी दुकान से बहुत जलेबी हमने खाई थी। वह दुकान या तो बन्द थी, या गायब। उसके पास महू बेकरी जरूर दिखी।

कालोनी की सड़क पहले से कहीं अच्छी दशा में थी। कालोनी के अन्त में परफेक्ट पॉटरीज की बन्द फैक्टरी अभी भी कायम थी - उसकी जमीन की प्लॉटिंग हो कर रिहायशी क्षेत्र नहीं बढ़ा था और उसके दरवाजे पर विशाल बरगद का पेड़ अब भी कायम था।

रेलवे कालोनी में जब हम रहते थे, तो बच्चों के खेलने के पार्क की अधूरी योजना बरसों से चल रही थी। अब मैने एक अच्छा पार्क बने देखा।

समय काफी लग गया था। हम जल्दी स्टेशन वापस लौटे। रास्ते में स्टेशन रोड पर खण्डेलवाल की रतलामी सेव की दुकान यथावत चल रही थी, जिसपर नमकीन झारने वाला कारीगर वैसे ही काम कर रहा था, जैसा मै यहां से स्थानान्तरण के समय छोड कर गया था।

रतलाम वैसा ही है - रतलामी सेव अनवरत बनाता। पर पहले से ज्यादा साफ सुथरा। मन होता है यहीं एक फ्लैट ले कर रिटायरमेण्ट के बाद रहा जाये। पर मन की क्या चलती है?

[यह १६ जुलाई के दिन का भ्रमण था। बारिश का मौसम होने के कारण रतलाम की धूल और वातावरण में कम नमी नहीं मिली, अन्यथा वहां मैं श्वांस की समस्या से परेशान रहता था।

उसके बाद कल हम इलाहाबाद लौट आये।

हम लोग सन १९८५-१९९५ और फिर १९९८-२००३ के बीच रतलाम रहे थे।]

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Tuesday, July 17, 2012

कारू मामा की कचौरी

कल सवेरे मंसूर अली हाशमी जी रतलाम स्टेशन पर मिलने आये थे, तो स्नेह के साथ लाये थे मिठाई, नमकीन और रतलाम की कचौरियां। मैं अपनी दवाइयों के प्रभाव के कारण उदर की समस्या से पीड़ित था, अत: वह सब खोल कर न देखा। शाम के समय जब विष्णु बैरागी जी मिले तो उन्होने अपने “बतरस” में मुझे स्पष्ट किया कि हाशमी जी कारू राम जी की कचौरियां दे गये हैं और जानना चाहते हैं कि मुझे कैसी लगीं?

[caption id="attachment_5863" align="alignleft" width="584"] मंसूरअली हाशमी जी मुझसे मिलने आये। उनके मोबाइल से लिया चित्र जो मैने फेसबुक से डाउनलोड कर टच-अप किया है।[/caption]

कारूराम जी की कचौरियों के बारे में उन्होने बताया कि रतलाम में कसारा बाजार में कारू राम जी की साधारण सी दुकान है। कारूराम जी (कारूमामा या कारू राम दवे) समाजवादी प्राणी थे। उन्हे लोगों को बना कर खिलाने में आनन्द आता था। सत्तर के दशक की घटना बैरागी जी बता रहे थे कि २५ कचौरियां-समोसे मांगने पर कारूमामा ने तेज स्वरों में उनको झिड़क दिया था – “देख, ये जो कचोरियां रखी हैं न, वे एक दो कचौरी लेने वाले ग्राहकों के लिये हैं, पच्चीस एक साथ ले जाने वाले ग्राहक के लिये नहीं। तू भाग जा!”

[caption id="attachment_5862" align="alignleft" width="584"] हाशमी जी की लाई कारू मामा की कचौरी और समोसा।[/caption]

अनुमान लगाया जा सकता है कि कारू मामा कैसे दुकानदार रहे होंगे। बैरागी जी ने बताया कि अब कारू मामा की अगली पीढ़ी के लोग उन्ही उसूलों पर अपनी दुकान चला रहे हैं। उनकी दुकान पर जा कर लगता है कि पच्चीस पचास साल पीछे चले गये हैं काल-खण्ड में।

कैसे रहे होंगे कारू मामा? बैरागी जी की मानें तो अक्खड़ थे, कड़वा भी बोलते थे, पर लोग उस कड़वाहट के पीछे सिद्धान्तों पर समर्पण और स्नेह समझते थे। पैसा कमाना उनका ध्येय नहीं था – वे आटे में नमक बराबर कमाई के लिये दुकान खोले थे – दुकान से घाटा भी नहीं खाना था, पर दुकान से लखपति (आज की गणना में करोड़पति) भी नहीं बनना था।

अच्छा हुआ, मंसूर अली हाशमी जी कारू मामा की कचौरी (और समोसे) ले कर आये। अन्यथा इतने वर्षों रतलाम में रहने पर भी उन जैसी विभूति के बारे में पता नहीं चला था और अब भी न चलता…

कचौरी कैसी थीं? मेरी पत्नीजी का कहना है कि रतलाम में बहुत दुकानों की कचौरियां खाई हैं। यह तो उन सबसे अलग, सब से बढ़िया थीं। भरे गये मसाले-पीठी में कुछ बहुत खास था…

[caption id="attachment_5861" align="alignleft" width="584"] मुझसे शाम के समय मिलने आये श्री विष्णु बैरागी जी।[/caption]

Tuesday, July 3, 2012

प्रयाग फाटक का मोची

मैं उससे मिला नहीं हूं। पर अपने दफ्तर आते जाते नित्य उसे देखता हूं। प्रयाग स्टेशन से जब ट्रेन छूटती है तो इस फाटक से गुजर कर फाफामऊ जाती है। फाटक की इमारत से सटी जमीन पर चबूतरा बना कर वह बैठता है।

सवेरे जाते समय कई बार वह नहीं बैठा होता है। शाम को समय से लौटता हूं तो वह काम करता दिखता है। थोड़ा देर से गुजरने पर वह अपना सामान संभालता दिखता है। पता नहीं, अकेला रहता है या परिवार है इलाहाबाद में। अकेला रहता होगा तो शाम को यहां से जाने के बाद अपनी रोटियां भी बनाता होगा!

वह  जूते मरम्मत/व्यवस्थित करता है, मैं माल गाड़ियों की स्थिति ले कर उनका चलना व्यवस्थित करता हूं। शाम होने पर मुझे भी घर लौटने की रहती है। बहुत अन्तर नहीं है मुझमें और उसमें। अन्तर उसी के लिये है जो अपने को विशिष्ट जताना चाहे और उसकी पहचान बचा कर रखना चाहे।

अन्यथा, उसके आसपास से ट्रेनें गुजरती हैं नियमित। मेरे काम में ट्रेनों का लेखा-जोखा है, नियमित। मुझे तो बहुत समय तक सीटी न सुनाई दे ट्रेन की, तो अजीब लगता है। इस प्रयाग फाटक के मोची को भी वैसा ही लगता होगा।

मेरे जैसा है प्रयाग फाटक का मोची। नहीं?

[caption id="attachment_5853" align="alignleft" width="584"] प्रयाग फाटक का मोची[/caption]
[caption id="attachment_5856" align="alignleft" width="584"] प्रयाग फाटक का मोची जुलाई ५ को सवेरे पौने दस बजे बैठा मिला। बारिश (या धूप?) की आशंका से तिरपात लगाये था।[/caption]