Thursday, February 28, 2013

एक शाम की रपट

आज शाम जल्दी घर लौटना हो गया। यह साल में एक या दो ही दिन होता है। मैने अपना बेटन लिया और गंगा किनारे चल दिया। चाहता था कि धुंधलका होने से पहले गंगा जी तक पंहुच जाऊं तो जल्दी में कैमरा लेना भी भूल गया। पर जेब में मोबाइल फोन था, कामचलाऊ चित्र खींचने के लिये।

धुंधलका नहीं हुआ था, पर दूर संगम किनारे लाइटें जल गयी थीं। शिवकुटी घाट से यह तीन चार किलोमीटर दूर होगा - कौआ उड़ान के हिसाब से। अब अगले शनिवार को यत्न करूंगा वहां जाने का।

[caption id="attachment_6656" align="aligncenter" width="500"]दूर दिखती संगम क्षेत्र की लाइटें! दूर दिखती संगम क्षेत्र की लाइटें![/caption]

खेत में चिरंजीलाल दिखे। उनका आधे से ज्यादा खेत तो पानी बढ़ने के कारण नष्ट हो चुका है। उन्होने बताया कि बचे हुये में भी गंगा किनारे के एक तिहाई पौधे तो मरे बराबर हैं। उनकी जड़ों में काफी पानी आ गया है। किनारे से डेढ़ सौ गज दूर हट कर भी एक खेत बनाया है उन्होने जिसमें गड्ढा खोदने पर पानी मिल गया है और उसमें पौधे ठीक ठाक हैं। इसके अलावा नदी उसपार बोया है गेहूं। उसकी फसल भी अच्छी नहीं है। इस साल बारिश बहुत बाद में हुई, सो कुछ नुक्सान हो ही गया पानी की कमी से।

कुल मिला कर गंगा में पानी छोड़ना, किसी बन्धे की टूट से ज्यादा पानी आ जाना और बारिश की कमी से चिरंजीलाल की फसल अच्छी नहीं हो पाई इस साल। पिछली साल उन्होने बताया था कि वे जब खेती नहीं कर रहे होते तो बढ़ई का काम करते हैं। इस साल उस काम पर उनकी निर्भरता ज्यादा रहेगी।

चिरंजीलाल के खेत के आगे वह जगह है जहां दो दिन पहले तक कच्ची शराब का कारखाना चलता था। आज वहां कोई नहीं था। भट्टी हट चुकी थी। अधजली लकड़ियां पड़ी थीं। वातावरण में शराब की गंध थी। जमीन में गाड़ कर शराब जरूर दबी होगी वहां पर। धुंधलका हो चला था। फिर भी उस जगह का चित्र मैं ले पाया।

[caption id="attachment_6657" align="aligncenter" width="500"]कच्ची शराब बनाने का क्षेत्र। अधजली लकड़ियां। छोटे ढूह के नीचे संभवत: शराब दबी है। कच्ची शराब बनाने का क्षेत्र। अधजली लकड़ियां। छोटे ढूह के नीचे संभवत: शराब दबी है।[/caption]



कच्ची शराब की बात चली तो अपने मित्र का सुनाया एक चुटकला याद आ गया। एक कस्बाई नौजवान अंग्रेजी बोलने की कोचिंग क्लास में ट्रेनिंग ले रहा था। उसने सोचा अपनी मंगेतर को अंग्रेजी बोल कर इम्प्रेस करे। अकेले में उससे बोला - अंग्रेजी चलेगी?


लड़की शरमाई, मुस्कुराई। बोली - साथ में नमकीन और काजू हों तो देसी भी चलेगी! :lol:


मेरे ख्याल से उनका चुटकला शायद समय से पहले का है। आज से दस साल बाद यह शायद ज्यादा सहज लगे।







वापसी में देखा तो अंधेरा हो चला था। संगम की लाइटें और भी चमकदार हो गयी थीं। वातावरण में सर्दी नहीं थी। पैदल चलने से पसीना हो आया था। घर आते आते मैं थक गया था!

[caption id="attachment_6658" align="aligncenter" width="500"]वापसी में देखा तो अंधेरा हो चला था। संगम की लाइटें और भी चमकदार हो गयी थीं। वापसी में देखा तो अंधेरा हो चला था। संगम की लाइटें और भी चमकदार हो गयी थीं।[/caption]

Tuesday, February 26, 2013

लोग यात्रा क्यों करते हैं?

अभी अभी रेल मन्त्री महोदय ने नई ट्रेनें एनाउन्स की हैं। एक्स्प्रेस टेनें, पैसेंजर ट्रेनें, मेमू/डेमू सेवायें, यात्रा-विस्तार सेवायें और आवृति बढ़ाने वाली ट्रेन सेवायें। रेल बजट के पचास पेज में आठ पेज में यह लिस्ट है। हर रेल बजट में जनता और सांसद इस लिस्ट का इन्तजार करते हैं। कुछ सांसद तो अपने क्षेत्र की ट्रेन सेवायें जुड़वाने के लिये सतत लॉबीइंग करते रहते हैं। रेल सेवायें अगला चुनाव जीतने का रामबाण नुस्खा है। जनता को भी पांच परसेण्ट माल भाड़ा बढ़ने का ज्यादा गम नहीं होता; पर दो परसेण्ट किराया बढ़ जाये "मंहगाई डायन" वाले गीत बजाने की सूझने लगती है।

यात्रायें बहुत जरूरी लगती हैं लोगों को। जबकि वर्तमान युग में; जब संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि आदमी की वर्चुअल-प्रेजेंस का दायरा बहुत विस्तृत हो गया है; यात्रा की आवश्यकता उत्तरोत्तर कम होती जा रही है। इसके उलट लोग यात्रायें ज्यादा कर रहे हैं। शायद यह बढ़ती समृद्धि से जुड़ा मामला है।

[caption id="attachment_6650" align="aligncenter" width="500"]कुम्भ के यात्री। गंतव्य के आधार पर अलग अलग विश्रामालयों में रहते हैं और उनकी गाड़ी प्लेटफार्म पर लगने पर यहां से प्रस्थान करते हैं। कुम्भ के यात्री। गंतव्य के आधार पर अलग अलग विश्रामाश्रयों में रहते हैं और उनकी गाड़ी प्लेटफार्म पर लगने पर यहां से प्रस्थान करते हैं।[/caption]

अभी हमने देखा कि प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर बेशुमार भीड़ रही। यह धर्म से जुड़ा मामला था, या संस्कृति से - यह जानना समाजशास्त्रियों के डोमेन में आता होगा। पर कहीं यह सोच नहीं दिखी कि धर्म के आधार पर कुम्भ उस युग की आवश्यकता थी, जब सम्प्रेषण के बहुत एलॉबरेट साधन नहीं थे और एक स्थान पर इकठ्ठे हो कर ही विद्वत चर्चा सम्भव थी। आज एसएमएस, ईमेल, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग... जाने कितने तरीके से लोग जुड़ सकते हैं और धर्माचार्य लोग भी इन साधनों का प्रयोग कर कुम्भ के प्राचीन ध्येय को कहीं बेहतर तरीके से सम्पादित कर सकते हैं। तब भी उन्हे कुम्भ के स्नान की पवित्रता और स्वर्ग-प्राप्ति की आशा से जोड़ने की कथायें प्रचारित-प्रसारित करने की जरूरत महसूस होती है।

फ्रैंकली, मुझे इस तरह के विशाल जमावड़े का औचित्य समझ नहीं आता। मैं यह भी जानता हूं, कि मैं एक  अत्यन्त अल्पसंख्यक गुट में हूं इस मामले में। पर अगर मैं कभी किसी प्रकार का धर्माचार्य बना (हाईली अनलाइकली) तो इस तरह के जमावड़े को पूरी तरह अनावश्यक बनाऊंगा अपने धर्म में।

गुरुनानक या आदिशंकर की यात्रायें मुझे लुभाती हैं। आप घर से लोटा-डोरी-सतुआ ले कर निकल लें और अनचले रास्तों पर चलते चले जायें। कितना अच्छा हो वह। पर यह भी क्या कि एक ही जगह पर उफन पड़े मानवता - भगदड़, संक्रामक रोगों और अव्यवस्था को इण्ड्यूस करते हुये। पवित्र नदी को और गंदा करते हुये। .... हमारी धार्मिक सोच बदलनी चाहिये!

यात्रा की अनिवार्यतायें समय के साथ कम होनी चाहियें!

Saturday, February 9, 2013

बिसखोपड़ा

[caption id="attachment_6640" align="alignright" width="225"]बिसखोपड़ा पकड़ने वाला सपेरा - अछैबर! बिसखोपड़ा पकड़ने वाला सपेरा - अछैबर![/caption]

शिवकुटी जैसी गँहरी (गँवई + शहरी) बस्ती में घुस आया तो वह बिसखोपड़ा था। नहीं तो सुसंस्कृत विषखोपड़ा होता या फिर अपने किसी अंग्रेजी या बायोलॉजिकल नाम से जाना जाता।

मेरी पत्नीजी वाशिंग मशीन से कपड़े धो रही थीं तो परनाले की पाइप से एक पूंछ सा कुछ हिलता देखा उन्होने। सोचा कि सांप आ गया है। उसकी पूंछ को चिमटे से पकड़ कर खींचने का प्रयास किया गया तो लगा कि कोई पतला जीव नहीं है। मोटा सांप होगा या अजगर का बच्चा। वह पाइप में अपनी पूंछ सिकोड़ आगे निकलने का प्रयास कर रहा था - मानव अतिक्रमण से बचने के लिये।

बड़े सांप/अजगर के कल्पना कर घर के भृत्य ऋषि कुमार को दौड़ाया गया गड़रिया के पुरवा। मोतीलाल इन्जीनियरिंग कॉलेज के पास रेलवे फाटक पर है गांव गड़रिया का पुरवा। वहां संपेरों के सात आठ घर हैं। पता चला कि सारे संपेरे अपने जीव-जन्तु ले कर कुम्भ मेला क्षेत्र में गये हैं जीविका कमाने। एक बूढ़ा और बीमार अछैबर भर है। उसी को ले कर आया गया।

उसके सामने परनाले का पाइप तोड़ा गया। पाइप में चिपका दिखा बिसखोपड़ा। लगभग डेढ़ हाथ लम्बा। पाइप से चिपका हुआ था। बिसखोपड़ा की मुण्डी पकड़ कर काबू करने में अछैबर को मुश्किल से कुछ सेकेण्ड लगे होंगे। उसके बाद ड्रामा शुरू हुआ।

[caption id="attachment_6636" align="aligncenter" width="500"]अछैबर द्वारा पकड़ा गया डेढ़ हांथ लम्बा विषखोपड़ा। अछैबर द्वारा पकड़ा गया डेढ़ हांथ लम्बा विषखोपड़ा।[/caption]

सपेरे ने जीव के खतरनाक होने का विवरण बुनना प्रारम्भ किया। ’बड़ा जहरीला होता है। लपक कर काटता है। काटा आदमी लहर भी नहीं देता। समझो कि जान पर खेल कर पकड़ा है मैने। मेहनताने में इग्यारह सौ से कम नहीं लूंगा। धरो इग्यारह सौ तो मन्तर फूंक कर बोरा में काबू करूं इसे’।

आस पड़ोस वाले भी देखने के लिये आ गये थे। अमन की माई ने अकेले में कहा कि ये दो ढाई सौ से कम में मानेगा नहीं। गब्बर की माई ने निरीक्षण कर स्वीकार किया कि बहुत खतरनाक है ये बिसखोपड़ा। मेरे पिताजी ने कहा कि पैसा क्या देना। गांव में तो ऐसे ही पकड़ते हैं। इसे एक अंजुरी चावल दे दो।

अछैबर ने चावल लेने का प्रोपोजल तो समरी ली रिजेक्ट कर दिया। बिसखोपड़े की खूंखारियत का पुन: वर्णन किया। बार्गेनिंग में (पड़ोस के यादव जी की सलाह पर) उसे इग्यारह सौ की बजाय पचास रुपये दिये गये, जो उसने अस्वीकार कर दिये। अन्तत: उसे सौ रुपये दिये गये तो अछैबर संतुष्ट भया। फिर वह बोला - अच्छा, ऊ चऊरवा भी दई दिया जाये! (अच्छा, वह चावल भी दे दिया जाये)।

सौ रुपये और लगभग तीन पाव चावल पर वह बिसखोपड़ा पकडाया। अछैबर ने कहा कि बिसखोपड़ा को वह छोड़ देगा। पता नहीं क्या करेगा? या उसको भी मेला क्षेत्र में दिखा कर पैसा कमायेगा? एक बोरी में पकड़ कर ले गया वह बिसखोपड़े को। बोरी और रस्सी भी हमारी ले गया अछैबर।

सौ रुपये और तीन पाव चावल में हमें विषखोपड़ा का चित्र मिल गया। उसपर एक वाटरमार्क लगा दिया जाये?!

Wednesday, February 6, 2013

बत्तीस साल पहले की याद।

मेरे इन्स्पेक्टर श्री एस पी सिंह मेरे साथ थे और दिल्ली में मेरे पास डेढ़ घण्टे का खाली समय था। उनके साथ मैं निर्माण भवन के आसपास टहलने निकल गया। रेल भवन के पास ट्रेफिक पुलीस वाले की अन-सिविल भाषा में सलाह मिली कि हम लोग सीधे न जा कर मौलाना आजाद मार्ग से जायें। और पुलीस वाला हाथ दे तो उसकी सुनें

सुनें, माई फुट। पर मैने सुना। उस दिन वाटर कैनन खाते दिल्ली वाले भी सुन रहे थे। हे दैव, अगले जनम मोंहे की जो दारोगा!

निर्माण भवन जाने के लिये हम नेशनल आर्काइव के सामने से गुजरे। बत्तीस साल पहले मैं निर्माण भवन में असिस्टेण्ट डायरेक्टर हुआ करता था। तब इन जगहों पर खूब पैदल चला करता था। निर्माण भवन से बस पकड़ने के लिये सेण्ट्रल सेक्रेटेरियट के बस टर्मिनल तक पैदल जाया करता था रोज। करीब दस बारह किलोमीटर रोज की पैदल की आदत थी पैरों की। अब आदत नहीं रही।

मैं जाने अनजाने पहले और अब के समय की तुलना करने लगा। दफ्तरों में आती जाती स्त्रियां पहले से बदल गयी थीं। पहले एक दो ही दीखती थीं पैण्ट पहने। अब हर तीन में से दो जीन्स में थीं। परिधान बदल गये थे, मैनरिज्म बदल गये थे। पहले से अधिक भी थीं वे इन जगहों पर। और हर व्यक्ति मोबाइल थामे था। बत्तीस साल पहले फोन इक्का दुक्का हुआ करते थे। निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर एक पोलियोग्रस्त व्यक्ति पैन कार्ड बनाने की सेवा की तख्ती लगाये मोबाइल पर किसी से बतिया रहा था। "आप समझो कि परसों पक्के से मिल जायेगा। आप इसी नम्बर पर मुझसे कन्फर्म कर आ जाईयेगा।" एक मोबाइल होने से यह बिजनेस वह कर पा रहा था। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी बत्तीस साल पहले।

[caption id="attachment_6603" align="aligncenter" width="459"]पैन कार्ड बनाने की फुटपाथिया दुकान चलाता विकलांग व्यक्ति। पैन कार्ड बनाने की फुटपाथिया दुकान चलाता विकलांग व्यक्ति।[/caption]

निर्माण भवन के पास पहले सुनहरी मस्जिद की एक चाय की दुकान हुआ करती थी, जहां हम घर से आते ही चाय और समोसे का नाश्ता करते थे। दिन का यह पहला आहार हुआ करता था। हम तीन-चार नये भरती हुये अधिकारी थे। सभी अविवाहित। एक एक कमरा किराये पर ले अलग जगह रहते थे और भोजन की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी। सरकार की 700-1300 की स्केल में हजार रुपये से कम ही मिलती थी तनख्वाह। उतने में रोज अच्छे होटल में नहीं खाया जा सकता था। मैं सवेरे और दोपहर का खाना इधर उधर खाता था और रात में अपने कमरे पर चावल में सब तरह की सब्जी/दाल मिला कर तहरी या खिचड़ी खाया करता था।

[caption id="attachment_6605" align="aligncenter" width="277"]निर्माण भवन की इमारत। निर्माण भवन की इमारत।[/caption]

साथ में चलते एसपी सिंह जी ने पूछ लिया - ऊपरी कमाई के बिना भी जिन्दगी चल सकती है? मेरी आंखों में किसी कोने में पुरानी यादों से कुछ नमी आई। हां, जरूरतें न बढ़ाई जायें तो चल ही सकती है। तब भी चल गई जब सरकारी नौकरी में तनख्वाह बहुत कम हुआ करती थी। मैने आदर्शवाद को सलीब की तरह ढोया, और कभी कभी जब फैंकने का मन भी हुआ तो पता चला कि उनको उठाने के ऐसे अभ्यस्त हो चले हैं कन्धे कि उनके बिना अपनी पहचान भी न रहेगी! सो चल गया और अब तो लगभग चल ही गया है - कुछ ही साल तो बचे हैं, नौकरी के।

निर्माण भवन के पास पैदल न घूम रहा होता तो यह सब याद भी न आता।

[caption id="attachment_6606" align="aligncenter" width="463"]निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठा एक मोची। बत्तीस साल पहले से अब में मोची नहीं बदले! या बदले होंगे? निर्माण भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठा एक मोची। बत्तीस साल पहले से अब में मोची नहीं बदले! या बदले होंगे?[/caption]

Sunday, February 3, 2013

सफर रात में सैराता है - चंद्रशेखर यादव उवाच

[caption id="attachment_6594" align="alignright" width="225"]चंद्रशेखर यादव। उन्होने जब मुझे मेरे घर वापस उतारा तो मैने स्ट्रीट लाइट में उनका एक फोटो लिया ब्लॉग के लिये। चंद्रशेखर यादव। उन्होने जब मुझे मेरे घर वापस उतारा तो मैने स्ट्रीट लाइट में उनका एक फोटो लिया ब्लॉग के लिये।[/caption]

यह मेरी प्रकृति के विपरीत था कि मैने मिर्जापुर के पास एक गांव में शादी के समारोह में जाने की सोच ली। सामान्यत: ऐसी जगह मैं जाने में आना कानी करता हूं और हल्के से बहाने से वहां जाना टाल देता हूं। यहां मुझे मालुम भी न था कि वह गांव सही सही किस जगह पर है, किसके यहां जाना है और जाने आने में कितना समय लगेगा। फिर भी मैं इलाहाबाद में अपने दफ्तर से निकल ही लिया मिर्जापुर जाने को। ट्रेन से वहां जाने के बाद सड़क मार्ग से गांव जाना तय किया और देर रात वापस इलाहाबाद लौटना नियत किया।

मैं नीलकण्ठ एक्स्प्रेस के इंजन पर "फुटप्लेट इंस्पेक्शन" करते हुये इलाहाबाद से चला। घण्टे भर बाद सांझ ढ़लने लगी। खेत दिखे - जिनमें सरसों, अरहर, गेंहूं और कहीं कहीं गेंदे के पौधे थे। गेंदा शायद इस साल हो रहे महाकुम्भ में होने वाली फूलों की खपत को ध्यान में रख कर किसान लगा रहे थे। सांझ के समय किसान घरों को लौट रहे थे और चार-छ के झुण्ड में स्त्रियां संझा के निपटान के लिये खेतों की ओर जाती दिख रही थीं - यह स्पष्ट करते हुये कि गांवों में अभी भी घरों में शौचालय नहीं बने हैं।

मैं मिर्जापुर पंहुचा तो धुंधलका हो चुका था, फिर भी सब दिख रहा था। पर चाय पी कर जब हम गांव जाने के लिये रवाना हुये तो रात ढल गई थी। रवाना होने के कुछ देर बाद ही स्पष्ट हो गया कि जिस गांव हम लोग जाना चाहते थे, वहां का रास्ता ठीक ठीक मालुम नहीं है। हम लोग वह जगह बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर समझते थे, वह शायद पैंतीस-चालीस किलोमीटर दूर है। एक बारगी मैने कहा कि छोड़ो, वापस चला जाये। पर वाहन के ड्राइवर महोदय ने कहा कि आप फिक्र न करें, हम बहुत खोजू जीव हैं। खोज खोज कर पंहुच ही जायेंगे वहां! 

और जैसा ड्राइवर साहब ने कहा, वैसा ही पाया उन्हे मैने। उन्होने अपना नाम बताया चंद्रशेखर यादव। इलाहाबाद में ही रहते हैं। बात करने में झिझकने वाले नहीं। वाहन चलाने में भी दक्ष।

एक महीना में कितना चलते होगे?

यही कोई छ सात हजार किलोमीटर। 

अच्छा!? यहीं यूपी में ज्यादातर?

नहीं! दूर दूर तक! ऊड़ीसा, बदरीनाथ, गुजरात, रोहतांग तक हो आया हूं! सन् बानवे से गाड़ी चला रहा हूं। बहुत से लोग मुझे ही ड्राइवर के रूप में पसन्द करते हैं और मेरे न होने पर अपना यात्रा कार्यक्रम मुल्तवी कर देते हैं। 

अच्छा? ऐसा क्यों होता है?

कोई ड्राइवर जब लम्बी यात्रा पर निकलता है तो उसका मन अपने घर में लगा रहता है। इसके उलट घूमने जाने वाला पूरा मजा लेना चाहता है अपने टूर प्रोग्राम का। मैने यह जान लिया है कि उनसे जल्दी करने, वापस समय पर चलने की रट लगाना बेकार है। अत: मैं उनके साथ खुद सैलानी बन कर यात्रा का आनन्द लेना सीख गया हूं। लोग यह काफी पसंद करते हैं। 

चंद्रशेखर जाने अनजाने यह सीख गये हैं कि दक्ष होने के लिये यह जरूरी शर्त है कि व्यक्ति अपने काम में रस ले। ...

कभी काम में खतरा लगा?

पूरे समय में केवल एक बार! सन् १९९६ की बात है। मैं गाड़ी में काम खतम होने पर अकेले लौट रहा था; गया के पास शेरघाटी से गुजरते हुये। मन में लालच आ गया कि कोई सवारी बिठा लूं तो एक्स्ट्रा कमाई हो जायेगी। वे चार लोग थे - दो औरतें और दो आदमी। परिवार समझ कर मुझे कोई खतरा भी नहीं लगा। पर उनमें से तीन पीछे बैठे, एक आदमी आगे। कुछ दूर चल कर आगे बैठे आदमी ने कट्टा मेरी कनपटी से सटा दिया। मैने गाड़ी रोकी नहीं। चलते चलते यही बोलता रहा कि मुझे मारो मत। यह गाड़ी भले ले लो। वह मान गया। फिर जाने किस बात से वह नीचे उतरा। उसके नीचे उतरते ही मैने गीयर दबाया और गाड़ी तेज रफ्तार में करली। बाजी पलट गयी थी। पीछे बैठी सवारियों को मैने कहा कि अगर जान प्यारी हो तो चलती गाड़ी में दरवाजा खोल कर एक एक कर कूद जाओ। औरतें हाथ जोड़ने लगी थीं। वे एक एक कर कूदे। चोट जरूर लगी होगी। उनके कूदने के लिये मैने गाड़ी कुछ धीमे जरूर की थी, पर रोकी नहीं। बहुत दूर आगे निकल आने पर खैर मनाते हुये देखा तो पाया कि वे अपने थैले वहीं छोड़ कर कूदे थे। उसमें कपड़े थे और सोने के कुछ गहने। शायद पहले किसी को लूट कर पाये होंगे। मैं सीधे बनारस आया और कपड़े लत्ते पोटली बना कर गंगाजी को समर्पित कर दिये! 

और गहने?

चन्द्रशेखर ने एक मुस्कराहट भर दी। इतने बड़े एडवेंचर का कुछ पारितोषिक तो होना ही चाहिये। ... बस, इसके अलावा आज तक वैसी कोई घटना नहीं हुई मेरे साथ। 

चन्द्रशेखर यादव हमें उस गांव तक सकुशल ले गये। उनके कारण काफी रस मिला यात्रा में। वापसी में यद्यपि रात पौने नौ बज रहे थे जब हम रवाना हुये गांव से; पर चंद्रशेखर की दक्ष ड्राइविंग से सवा इग्यारह बजे मैं अपने घर वापस आ गया था। वापसी में चन्द्रशेखर ने एक पते की बात कही - साहेब, रात में चलना बहुत अच्छा रहता है। सड़क पर दूर दूर तक साफ दिखता है। सफर रात में ही सैराता है। 

(गांव की यात्रा का विवरण एक ठीक ठाक पोस्ट होती; पर मेरे ख्याल से चंद्रशेखर के बारे में यह पोस्ट कम महत्व की नहीं!)