Tuesday, April 30, 2013

हनुमान मंदिर के ओसारे में

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शादियों का मौसम है। हनुमान मंदिर के ओसारे में एक बरात रुकी थी। जमीन पर बिस्तर लगे थे। सवेरे सवेरे कड कड करता ढोल बज रहा था। लोग उठ चुके थे। संभवत: बिदाई का समय होने जा रहा था।

मैने देखा- बारातियों ने हनुमान मंदिर के नीम को नोच डाला था दतुअन के लिए। निपटान के लिए प्रयोग किया गंगाजी के कछार का मैदान। हाथ धोने को गंगाजी की रेती युक्त मिट्टी और उसके बाद वहीं गंगा स्नान का पुण्य।

बरात का इससे बेहतर इंतजाम नहीं हो सकता था। बस बारातियों का ऑन द स्पॉट इंटरव्यू लेना नहीं हुआ यह पूछते हुए कि इंतजाम कैसा रहा। यह चूक जरूर हुई। पर मैंने सोचा कि पोस्ट तो ठेली जा सकती है। :-D

Monday, April 22, 2013

आउ, आउ; जल्दी आउ!

वह सामान्यत: अपने सब्जी के खेत में काम करता दीखता है गंगाजी के किनारे। मेहनती है। उसी को सबसे पहले काम में लगते देखता हूं।

दशमी के दिन वह खेत में काम करने के बजाय पानी में हिल कर खड़ा था। पैण्ट उतार कर, मात्र नेकर और कमीज पहने। नदी की धारा में कुछ नारियल, पॉलीथीन की पन्नियों में पूजा सामग्री और फूल बह कर जा रहे थे। उसने उनके आने की दिशा में अपने आप को पोजीशन कर रखा था।

लोग नवरात्रि के पश्चात पूजा में रखे नारियल और पूजा सामग्री दशमी के दिन सवेरे विसर्जित करते हैं गंगाजी में। वह वही विसर्जित नारियल पकड़ने के लिये उद्यम कर रहा था।

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एक नारियल उसने लपक कर पकड़ा। फिर उसे हिला-बजा कर देखा। नारियल की क्वालिटी से संतुष्ट लगा वह। कुछ देर बाद बहते पॉलीथीन के पैकेट को पकड़ा उसने। पन्नी खोल कर नारियल देखा। ठीक नहीं लगा वह। सो पन्नी में रख कर ही वापस नदी में उछाल दिया उसने।

नारियल विषयक पुरानी पोस्टें -


हीरालाल की नारियल साधना


पकल्ले बे, नरियर



मै करीब सौ कदम दूर खड़ा था उससे - गंगा तट पर। जोर से चिल्ला कर पूछा  - हाथ लगा नारियल?

हां, कह कर उसने हाथ ऊपर उठा कर नारियल दिखाया मुझे। फिर वह आती नदी की धारा में ध्यान केन्द्रित करने लगा। कुछ दूर दो नारियल बहते आ रहे थे। उसको अपनी बेताबी के मुकाबले बहाव धीमा लगा नदी का।

जैसे हाथ हिला हिला कर किसी को बुलाया जाता है; वैसा ही वह धारा की दिशा में हाथ हिला कर कहने लगा - आउ, आउ; जल्दी आउ! (आओ, आओ, जल्दी आओ!)

सवेरे का आनन्ददायक समय, गंगा की धारा और नारियल का मुफ्त में हाथ लगने वाला खजाना - सब मिल कर उस तीस पैंतीस साल के आदमी में बचपना उभार रहे थे। मैं भी बहती धारा की चाल निहारता सोच रहा था कि जरा जल्दी ही पंहुचें नारियल उस व्यक्ति तक!

आउ, आउ; जल्दी आउ! (आओ, आओ, जल्दी आओ!)


जल्दी आओ नारियल!

Saturday, April 20, 2013

विन्ध्याचल और नवरात्रि

[caption id="attachment_6868" align="alignright" width="300"]विध्याचल स्टेशन के बाहर नवमी की शाम भोजन बनाते तीर्थयात्री। विध्याचल स्टेशन के बाहर नवमी की शाम भोजन बनाते तीर्थयात्री।[/caption]

चैत्र माह की नवरात्रि। नौ दिन का मेला विन्ध्याचल में। विन्ध्याचल इलाहाबाद से मुगलसराय के बीच रेलवे स्टेशन है। मिर्जापुर से पहले। गांगेय मैदान के पास आ जाती हैं विन्ध्य की पहाड़ियां और एक पहाडी पर है माँ विंध्यवासिनी का शक्तिपीठ।

जैसा सभी शक्तिपीठों में होता रहा है, यहाँ भी बलि देने की परम्परा रही है। संभवत: जारी भी है। बचपन में कभी वहां वधस्थल देखा था, सो वहां जाने का मन नहीं होता। माँ को दूर से, मन ही मन में प्रणाम कर लेता हूँ।

मेरे समाधी श्री रवींद्र पाण्डेय वहां नवरात्रि की नवमी को आते हैं अपने नवरात्रि अनुष्ठान की समाप्ति की पूजा के लिए। इस तरह साल में दो बार उनसे मिलना हो जाता है। या तो मैं उनसे विन्ध्याचल जा कर मिल लेता हूँ, या वे अपना अनुष्ठान पूरा कर रात में अपनी ट्रेन पकड़ने इलाहाबाद आ जाते हैं। इस बार मैं ही विन्ध्याचल आया।

शाम के समय विध्याचल पंहुचा तो धुंधलका हो गया था। स्टेशन के बाहर बहुत से तीर्थयात्री जमा थे। कई चूल्हे जले थे, या जलने की तैयारी में थे। लोग अपना भोजन बनाने जा रहे थे। उनकी सहायता के लिये कई लोग वहीं मिट्टी का चूल्हा, लकड़ी, सब्जी-भाजी और भोजन की अन्य सामग्री बेच रहे थे। टूरिज्म का विशुद्ध गंवई संस्करण।

चूल्हे पांच से दस रुपये के मिल रहे थे। लकड़ी (एक बार भोजन बनाने लायक) बीस रुपये में। एक बेंचने वाले से हमने बात की तो रेट पता चला। उसने बताया कि स्टेशन के बाहर बेचने की अनुमति देने वाला पुलीस वाला बीस रुपये लेता है। यह अनुमति आठ घण्टे के लिये होती है। उसके बाद पुलीस वाले की शिफ्ट बदल जाती है और नया आने वाला फिर से बीस रुपये लेता है। पूरे परिसर में करीब बारह- पन्द्रह ऐसी फुटपाथी दुकानें लगी थीं। अत: हर पुलीस वाला 200-300 रुपये इन्ही से रोजाना कमाता होगा नवरात्रि मेले के दौरान।

[caption id="attachment_6867" align="aligncenter" width="584"]चूल्हे, लकड़ी और सब्जी बेचने की जमीन पर लगी दुकानें। विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर। चूल्हे, लकड़ी और सब्जी बेचने की जमीन पर लगी दुकानें। विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर।[/caption]

उस बेचने वाले ने बताया कि लकड़ी तो लोग इस्तेमाल कर लेते हैं। चूल्हा जरूर छोड़ जाते हैं। उसे यह फिर से इकठ्ठा कर फिर से मिट्टी पोत कर नया कर लेता है और फिर बेचता है।

एक व्यक्ति तेल पिलाई लाठी बेच रहा था। बताया गया कि विन्ध्याचल मेले से बहुत लोग लाठी खरीद कर ले जाते हैं। एक खरीददार ने बताया कि उसने साठ रुपये की खरीदी है लाठी। हमारे छोटेलाल ने वह फेल कर दी - साहेब, तेल जरूर पिलाए है लाठी को, पर बाँस अभी हरियर ही है। पका नहीं। कच्चा बाँस कुछ दिन बाद सूख कर फट जायेगा। लाठी बेकार हो जायेगी। 

मेला टिकटघर में भीड़ थी। करीब पांच काउण्टर चल रहे थे। फिर भी टी.आई. साहेब ने बताया कि इस साल भीड़ कम ही रही है नवरात्रि मेले में। यह पता चला कि बगल में ही अष्टभुजा माता का एक और शक्तिपीठ है और उसके पास कालीखोह की गुफा में माँ काली का स्थान भी। श्रद्धालु वहां भी जाते हैं। कल वहां दशमी के दिन लोग बाटी चोखा बनायेंगे उन स्थानों पर।

शाम को स्टेशन पर आधा घण्टा घूम कर जो देखा, उससे पूरा अहसास हो गया कि किफायत में तीर्थ और पर्यटन का रस लेना बखूबी जानते हैं भारतवासी। भगवान करें यह परम्परा इसी रूप में जीवित रहे और विकसित हो!

माँ विन्ध्यवासिनी की जय हो!

[caption id="attachment_6866" align="aligncenter" width="584"]शाम को विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर जले चूल्हे। शाम को विन्ध्याचल स्टेशन के बाहर जले चूल्हे।[/caption]

Friday, April 19, 2013

फोड़ (हार्ड कोक) के साइकल व्यवसायी

मैं जब भी बोकारो जाता हूं तो मुझे फोड़ (खनन का कोयला जला कर उससे बने फोड़ - हार्ड कोक) को ले कर चलते साइकल वाले बहुत आकर्षित करते हैं। कोयले का अवैध खनन; उसके बाद उसे खुले में जला कर फोड़ बनाना और फोड़ को ले कर बोकारो के पास तक ले कर आना एक व्यवसायिक चेन है। मुझे यह भी बताया गया कि बोकारो में यह चेन और आगे बढ़ती है। यहां इस हार्ड कोक को खरीद कर अन्य साइकल वाले उसे ले कर बंगाल तक जाते हैं।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर पुरानी पोस्ट है - फोड़ का फुटकर व्यापार


मैं बोकारो में स्टील प्लाण्ट की ओर जा रहा था। रास्ते में ये साइकल व्यवसायी दिखे तो वाहन रुकवा कर एक से मैने बात की। मेरे साथ बोकारो के यातायात निरीक्षक श्री गोस्वामी और वहां के एरिया मैनेजर श्री कुलदीप तिवारी थे। कुलदीप तो वहां हाल ही में पदस्थ हुये थे, पर गोस्वामी ड़ेढ़ दो दशक से वहां हैं। उन्हे इन लोगों को पर्याप्त देखा है।

[caption id="attachment_6842" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का व्यवसायी  और यातायात करने वाला - बालूचन्द फोड़ का व्यवसायी और यातायात करने वाला - बालूचन्द[/caption]

वे एक के पीछे एक चलने वाले दो साइकल सवार थे। मेरे अनुमान से उनमें से प्रत्येक के पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला था। साइकल के दोनो ओर, बीच में और पीछे लादा हुआ। लगभग इतना कोयला, जिससे ज्यादा लाद कर चल पाना शायद सम्भव न हो। चित्र मैने दोनो के लिये पर बातचीत आगे चलने वाले साइकल व्यवसायी से की।

उसने बताया कि वह धनबाद क्षेत्र के जारीडिह से यह हार्ड कोक/फोड़ ले कर चले हैं। उसके पास लगभग तीन क्विण्टल कोयला है। वे आगे नया मोड़ तक जा रहे हैं बेचने के लिये। तीन क्विण्टल फोड़ उसने चार सौ रुपये में खरीदा है। इसे जब नया मोड़ पर वह बेचेगा, तब तक उसका लगभग 100 रुपया और खर्च होगा। बेचने पर उसे करीब 1200 रुपये प्राप्त होंगे। इस तरह दो दिन की मेहनत पर उसे सात सौ रुपये मिलेंगे। साढ़े तीन सौ रुपये प्रतिदिन।

मैं उसके लिये व्यवसायी शब्द का इस्तेमाल इसी लिये कर रहा हूं। वह मुझे 350 रुपये प्रतिदिन की आमदनी का अर्थशात्र बड़ी सूक्ष्मता से बता गया। फिर वह मात्र श्रम का इनपुट नहीं कर रहा था इस चेन में। वह (माल - फोड़) खरीद और बेचने का व्यवसाय करने वाला था। वह शारीरिक खतरा ले कर उत्खनन के काम में नहीं लगा था, वरन ट्रांसपोर्टेशन और उससे जुड़े पुलीसिया भ्रष्टाचार को डील कर कोयले के फुटकर व्यवसाय को एक अंजाम तक पंहुचा रहा था। मैने उसका नाम पूछा - उसने बताया - बालू चन्द।

फोड़ के फुटकर व्यवसाय पर मैं पहले भी इस ब्लॉग पर लिख चुका हूं। पर इस बार बालू चन्द से बात चीत में स्थिति मुझे और स्पष्ट हुई।

पिछली पोस्ट (15 मई 2009) में मैने यह लिखा था - 


कत्रासगढ़ के पास कोयला खदान से अवैध कोयला उठाते हैं ये लोग। सीसीएल के स्टाफ को कार्ड पर कोयला घरेलू प्रयोग के लिये मिलता है। कुछ उसका अंश होता है। इसके अलावा कुछ कोयला सिक्यूरिटी फोर्स वाले को दूसरी तरफ झांकने का शुल्क अदाकर अवैध खनन से निकाला जाता है। निकालने के बाद यह कोयला खुले में जला कर उसका धुआं करने का तत्व निकाला जाता है। उसके बाद बचने वाले “फोड़” को बेचने निकलते हैं ये लोग। निकालने/फोड़ बनाने वाले ही रातोंरात कत्रास से चास/बोकारो (३३-३४ किलोमीटर) तक साइकल पर ढो कर लाते हैं। एक साइकल के माल पर ४००-५०० रुपया कमाते होंगे ये बन्दे। उसमें से पुलीस का भी हिस्सा होता होगा।


बोकारो के रेलवे के यातायात निरिक्षक श्री गोस्वामी ने बताया कि कोयला अवैध उत्खनन करने वाले और उसे जला कर फोड़ बनाने वाले अधिकांशत: एक ही व्यक्ति होते हैं। उन्हे अपने रिस्क के लिये सवा सौ/ड़ेढ सौ रुपया प्रति क्विण्टल मिलता है। उसके बाद इसे कोयला आढ़तियों तक पंहुचाने वाले बालूचन्द जैसे दो सौ, सवा दो सौ रुपया प्रति क्विण्टल पाते हैं। बालू चन्द जैसे व्यवसायियों को स्थानीय भाषा में क्या कहा जाता है? मैने यह कई लोगों से पूछा, पर मुझे कोई सम्बोधन उनके लिये नहीं बता पाया कोई। उन्हे कुछ तो कहा ही जाता होगा!

मेरी बिटिया के वाहन ड्राइवर श्री किशोर ने इस चेन के तीसरे घटक की बात बतायी। नया मोड़/ बालीडीह से कोयला ढ़ोने वाले एक और साइकल व्यवसायी यह हार्ड कोक उठाते हैं और उसे ले कर पश्चिम बंगाल जाते हैं। बोकारो से पुरुलिया (पश्चिम बंगाल) अढ़सठ किलो मीटर है। वे तीन-चार दिन में अपना सफर पूरा करते होंगे। मैं अभी इस तीसरी स्तर के व्यवसायी से मिल नहीं पाया हूं। पर धनबाद - बोकारो की आगे आने वाली ट्रिप्स में उस प्रकार के व्यक्ति से भी कभी सामना होगा, जरूर। या शायद नया-मोड़/बालीडीह पर तहकीकात करनी चाहिये उसके लिये।

[caption id="attachment_6857" align="aligncenter" width="584"]जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर जारीडीह से पुरुलिया का रास्ता - 95 किलोमीटर[/caption]

हां, यह तब कर पाऊंगा, जब कि मेरे मन में जिज्ञासा बरकरार रहे और मैं इस ब्लॉग को यह सब पोस्ट करने के लिये जीवित रखे रखूं।

जरूरी यह है कि, अनुभव जो भी हों, उन्हे लिख डाला जाये!

[श्री गोस्वामी ने मुझे बताया कि लौह अयस्क को भी इसी तरह अवैध खनन और वहन करने वाले व्यवसायी होते हैं। वे निश्चय ही इतना अधिक/तीन क्विण्टल अयस्क ले कर नहीं चलते होंगे। पर वे कहां से कहां तक जाते हैं, इसके बारे में आगे कभी पता करूंगा।]

[caption id="attachment_6843" align="aligncenter" width="584"]फोड़ का दूसरा व्यवसायी फोड़ का दूसरा व्यवसायी[/caption]

Tuesday, April 16, 2013

मुस्कान

[caption id="attachment_6832" align="aligncenter" width="584"]मुस्कान (सबसे छोटी) व अन्य। फोटो खिंचाने दक्ष में खड़े! मुस्कान (सबसे छोटी) व अन्य। फोटो खिंचाने दक्ष में खड़े![/caption]

बैशाखी की सुबह थी। एक दिन पहले ही मैने देखा था पानी में पैदल चल कर सात आठ लोग गंगा पार कर टापू पर जा रहे थे सब्जियाँ उगाने के काम के लिये। आज भी मुझे अपेक्षा थी कि कुछ उसी तरह के लोग दिखेंगे।

और; वे चिल्ला (गंगा किनारे की बस्ती, जहां वे श्रमिक रहते हैं) से आते हुये दिखे। मैं गंगा तट पर उस जगह के लिये बढ़ा जहां वे पंहुचने वाले थे। इस समूह में कुछ महिलायें,बच्चे-बच्चियां और एक पुरुष था। समूह तट पर रुका। गंगाजी का निरीक्षण किया और फिर नदी पार करने की बजाय अपना सामान समेट किसी और जगह जाने लगा। आगे जा कर वे लोग प्रतीक्षा करने लगे। मैने उस नयी जगह पर पंहुच कर आदमी से पूछा - आज पैदल पार नहीं कर रहे? कल तो मैने लोगों को देखा था पार करते?

आदमी ने उत्तर दिया - नाव का इंतजार कर रहे हैं।

आदमी जमीन पर प्रतीक्षा में लेट गया था। सिर के नीचे कपड़े को तकिया बना कर रख भी लिया था। उन्हे लगता है मालुम था कि प्रतीक्षा में समय लगेगा। औरत जो अभी खड़ी थी, ने कहा - नदी में पानी एक दिन में बढ़ गया है। पैदल पार करना ठीक नहीं है।

[caption id="attachment_6838" align="aligncenter" width="584"]प्रतीक्षारत समूह। प्रतीक्षारत समूह।[/caption]

 

समूह की तीन लड़कियां समय का सदुपयोग करने के लिये मंजन करने लगीं गंगाजी के किनारे। मुझे फोटो खींचते देख औरत ने सबसे छोटी बालिका को कहा - जा फोटो हईंचत हयें। तुहूं खिंचाईले। (जा फोटो खींच रहे हैं, तू भी खिंचा ले।)

बालिका एक बनियान चड्ढ़ी पहने थी। समूह में सब से छोटी वही थी। मेरे पास आई तो मैने उसे गंगा तट पर सूर्य को सामना करते हुये खड़ा होने को कहा। फोटो खिंचता देख एक अन्य लड़की और लड़का तुरंत उस बालिका के साथ आ कर खड़े हो गये।

फोटो खींच कर मोबाइल की स्क्रीन पर मैने उन सभी को दिखाई। जितनी प्रसन्नता उन बच्चों को हुई वह शब्दों में नहीं लिख सकता मैं ( मैं अभी लेखक जो नहीं बन पाया हूं)।

बच्ची का नाम पूछा मैने। उसने बताया - मुस्कान। बहुत सही नाम रखा है उसकी माई ने!

इस बीच मेरे घर के पास रहने वाला दर्जी कछार के सवेरे के निपटान के बाद वहां से गुजर रहा था। वह बच्चों से बोला - जेकर जेकर फोटो खिंचान बा, ओनके पकड़ि लई जईहीं (जिस जिस की फोटो खींची है, उनको अब पकड़ ले जायेंगे!)। बच्चे खिलखिला कर हंसे। उन्हे विश्वास नहीं था दर्जी की बातों पर! या शायद मेरी शक्ल पर्याप्त डरावनी नहीं है! :lol:

घर आ कर मैं जब मोबाइल में खींचे चित्रों को ध्यान से देख रहा था, तो मैने पाया कि दिन भर टापू पर काम करने के लिये वे लोग अपना सामान लिये हुये थे। पोटली-गठरी, थैला, खाने के डिब्बे और पानी की बोतलें/जरीकेन।

यह मुझे विचित्र लगा - गंगा चारों तरफ रहेंगी उनके। पानी की कमी नहीं। पर पीने का पानी वे घर से ले कर जा रहे हैं। उन्हे भी यकीन नहीं रहा गंगाजी के पानी की निर्मलता का! :-(

वे अगर पानी में हिल कर चले जाते तो मुझे यह अवसर न मिलता उनसे बोलने-बतियाने का। अप्रेल के महीने में गंगाजी में पानी बढ़ता है, पहाड़ों पर बर्फ पिघलने के कारण। वही हो रहा है। सब्जियाँ बोने वाले यह फिनॉमिना जानते हैं। वे जानते हैं कि कब गंगा को हिल कर पार करना है और कब नाव पर। वे यह भी जानते हैं कि कछार के कितने हिस्से में कछार में सब्जियां बोनी हैं और कितना गंगाजी के घटने बढ़ने के लिये छोड़ना है!

हां, वे यह भी जानते हैं कि गंगाजी का पानी पीने योग्य नहीं रहा! :-(

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Sunday, April 14, 2013

माई, बुड़ि जाब!

[caption id="attachment_6820" align="aligncenter" width="533"]सूरज की पानी में परछाई से गुजर रहा है बच्चा! सूरज की पानी में परछाई से गुजर रहा है बच्चा![/caption]

सात आठ लोगों का समूह था। अपना सामान लिये गंगा में उभर आये टापू पर सब्जियाँ उगाने के काम के लिये निकला था घर से। एक रास्ता पानी में तय कर लिया था उन्होने जिसे पानी में हिल कर पैदल चलते हुये पार किया जा सकता था। यह सुनिश्चित करने के लिये कि एक ही रास्ते पर चलें; एक ही सीध में एक के पीछे एक चल रहे थे वे। सब की रफ्तार में अंतर होने के कारण एक से दूसरे के बीच दूरी अलग अलग थी।

सब से आगे एक आदमी था। उसके पीछे दो औरतें। उसके बाद एक बच्चा। बच्चा इतना छोटा नहीं था कि पार न कर सकता गंगा के प्रवाह को। पर था वह बच्चा ही। डर रहा था। उसकी मां उससे आगे थी और शायद मन में आश्वस्त थी कि वह पार कर लेगा; अन्यथा उसके आगे वह काफी दूर न निकल जाती। इतना धीरे चलती कि वह ज्यादा दूर न रहे।

बच्चा डरने के कारण बहुत बोल रहा था, और इतने ऊंचे स्वर में कि मुझे दूर होने पर भी सुनाई पड़ रहा था। मां भी उसी तरह ऊंची आवाज में जवाब दे रही थी।

माई, पानी बढ़त बा! (माँ, पानी बढ़ रहा है!)

कछु न होये, सोझे चला चलु। (कुछ नहीं होगा, सीधे चला चल)। 

पनिया ढेर लागत बा। (पानी ज्यादा लग रहा है।) 

न मरबे। (मरेगा नहीं तू।) 

अरे नाहीं! माई डर लागत बा। बुडि जाब। (अरे नहीं माँ, डर लग रहा है। डूब जाऊंगा।) 

न मरबे! चला आऊ! (नहीं मरेगा; चला आ।) 

आगे का आदमी और स्त्री टापू पर पंहुच चुके थे। लड़का एक जगह ठिठका हुआ था। मां को यकीन था कि वह चला आयेगा। टापू पर पंहुच कर उसने पीछे मुड़ कर लड़के की ओर देखा भी नहीं। धीरे धीरे लड़का गंगा नदी पार कर टापू पर पंहुच गया। उनकी गोल के अन्य भी एक एक कर टापू पर पंहुच गये।

नेपथ्य में सूर्योदय हो रहा था। हो चुका था। लड़के को सूरज की झिलमिलाती परछाईं पार कर आगे बढ़ते और टापू पर पंहुचते मैने देखा। ... अगले सीजन तक यह लड़का दक्ष हो जायेगा और शेखी बघारेगा अपने से छोटों पर। गंगा पार होना उसने सीख लिया। ऐसे ही जिन्दगी की हर समस्या पार होना सीख जायेगा।

माई डर लागत बा। बुडि जाब। (माँ, डर लग रहा है। डूब जाऊंगा।) 


न मरबे! चला आऊ! (नहीं मरेगा; चला आ।) 




[caption id="attachment_6818" align="aligncenter" width="584"]नदी पार करते लोग। नदी पार करते लोग।[/caption]

Wednesday, April 10, 2013

तीन बनी

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नत्तू पांडे के पास तीन खरगोश हैं - ह्वाईट बनी, ब्लैक बनी और बदमाश बनी। ह्वाईट और बदमाश बनी सफेद रंग के हैं। बदमाश बनी शराराती और कटखना है। उसकी बदमाशी के कारण उसे अलग पिंजरे में रखा जाता है। वह नत्तू पांड़े को दो तीन बार खरोंच चुका है।

ब्लैक बनी मादा है। वह दो बार बच्चे दे चुकी है, पर वे जी नहीं पाए।

नत्तू पांडे अपने खरगोशों से बहुत प्यार करते हैं। ये तीनों खरगोश नत्तू पांड़े के गांव, फुसरो (बोकारो से तीस किलोमीटर दूर) रहते हैं!

Monday, April 8, 2013

मन्दिर पर छोटी छोटी चीजें गुम जाने का समाजशास्त्र

[caption id="attachment_6806" align="alignright" width="584"]कोटेश्वर महादेव पर फूल-माला-पूजा सामग्री देने वाली महिला। कोटेश्वर महादेव पर फूल-माला-पूजा सामग्री देने वाली महिला।[/caption]

मालिन बैठती है कोटेश्वर महादेव मन्दिर के प्रांगण में। घिसा चन्दन, बिल्वपत्र, फूल, मालायें और शंकरजी को चढ़ाने के लिये जल देती है भक्तजनों को। एक तश्तरी में बिल्वपत्र-माला-फूल और साथ में एक तांबे की लुटिया में जल। भक्तों को पूजा के उपरांत तश्तरी और लुटिया वापस करनी होती है।

मैने उससे पूछा - लुटिया और तश्तरी वापस आ जाती है?

आ जाती है। साल भर में तीन चार लुटियाँ और आधादर्जन तश्तरियाँ लोग ले कर चल देते हैं। वापस नहीं आतीं। ज्यादातर भीड़भाड़ वाले दिनों में होता है।

मैं मालिन का चित्र लेता हूं। उसे कौतूहल होता है - फोटो कैसी आयी। अपनी फोटो मोबाइल में देख कर संतुष्ट हो जाती है वह!

[caption id="attachment_6808" align="alignright" width="300"]कोटेश्वर महादेव मन्दिर। कोटेश्वर महादेव मन्दिर।[/caption]

उधर सीढ़ियों के नीचे पण्डाजी की चौकी है। गंगा स्नान के बाद भक्तगण पहले उनकी चौकी पर आ कर शीशे-कंघी से अपनी सद्य-स्नात शक्ल संवारते हैं। फिर हाथ में कुशा ले कर संकल्प करते हैं। पण्डाजी करीब 20 सेकेण्ड का मंत्र पढ़ते हैं संकल्प के दौरान। उसके पश्चात संकल्प की राशि और/या सामग्री सहेजते हैं। भक्त वहां संकल्प से निवृत्त हो कर कोटेश्वर महादेव मन्दिर में शिवलिंग को जल चढ़ाले के लिये अग्रसर हो जाते हैं।

पण्डाजी से मैं पूछता हूं - साल भर में कितनी कंघियां शीशे गायब होते हैं?

यही कोई दस-पन्द्रह। नया शीशा ज्यादा गायब होता है। नयी कन्घी भी। लोग बालों में  कंघी फेरते फेरते चल देते हैं। ज्यादातर मुख्य स्नान के दिनों में।

मजे की बात है, शीशा कंघी गायब होते हैं। संकल्प करने की कुशा नहीं गायब होती। कुश की दूब में किसको क्या आसक्ति! :lol:

[caption id="attachment_6807" align="aligncenter" width="584"]पण्डाजी की चौकी पर सजी कंघियां और शीशे! पण्डाजी की चौकी पर सजी कंघियां और शीशे![/caption]

गायब होने की मुख्य चीज है - मन्दिर पर उतारे चप्पल-जूते! या तो गायब होते हैं या नये चले जाते हैं, पुराने वहीं रह जाते हैं! वासांसि जीर्णानि यथा विहाय की तर्ज पर... भक्तों की आत्मायें पुरानी-जीर्ण चप्पलें त्याग कर नई चप्पलें ग्रहण करते हैं भगवान शिव के दरबार में। कुछ लोग इस प्रॉसेस में मुक्ति पा जाते हैं और बिना चप्पल जूते के अपने धाम लौटते हैं धर्म का "यशोगान" करते हुये।

जूते चप्पल गुमने के आंकड़े देने वाला मुझे कोई नजर नहीं आया। वैसे वहां इसकी चर्चा छेड़ी जाये तो पण्डाजी की चौकी के पास जुटने वाली सवेरे की गोष्ठीमण्डली रोचक कथायें बता सकती है चप्पल चौर-पुराण से!

उसके लिये; आप समझ सकते हैं; मेरे पास इत्मीनान से व्यतीत करने वाला समय होना चाहिये। जो अभी तो नहीं है मेरे पास। पर आशा है, भविष्य में कभी न कभी मिलेगा जरूर!

Saturday, April 6, 2013

जवाहिरलाल एकाकी है!

scaled_image_1तीन महीने से ऊपर हुआ, जवाहिरलाल और पण्डाजी के बीच कुछ कहा सुनी हो गयी थी। बकौल पण्डा, जवाहिरलाल बीमार रहने लगा है। बीमार और चिड़चिड़ा। मजाक पर भी तुनक जाता है और तुनक कर वह घाट से हट गया। आजकल इधर आता नहीँ पांच सौ कदम दूर रमबगिया के सामने के मैदान मेँ बैठ कर मुखारी करता है।

बीच में एक दो बार दिखा था मुझे जवाहिर। यह कहने पर कि यहीं घाट पर आ कर बैठा करो; वह बोला था - आये से पण्डा क घाट खराब होई जाये। (आने से पण्डा का घाट खराब हो जायेगा)। वह नहीं आया।

बीच में हम नित्य घाट पर घूमने वालों ने आपस में बातचीत की कि एक दिन चल कर जवाहिरलाल को मना कर वापस लाया जाये; पर वह चलना कभी हो नहीं पाया। कभी हम लोग साथ नहीं मिले और कभी जवाहिर नहीं नजर आया। अलबत्ता, जवाहिर के बिना शिवकुटी घाट की रहचह में वह जान नहीं रही। पूरा कुम्भ पर्व बिना जवाहिरलाल के आया और निकल गया।

आज मैने देखा - जवाहिर अकेले रमबगिया के सामने बैठा है। तेज कदमों से उसकी तरफ बढ़ गया मैं। अकेला था, वह, कोई बकरी, कुकुर या सूअर भी नहीँ था। मुखारी कर रहा था और कुछ बड़बड़ाता भी जा रहा था। मानो कल्पना की बकरियों से बात कर रहा हो - जो वह सामान्यत: करता रहता है।

तुम घाट पर आ कर बैठना चालू नहीं किये?

का आई। पण्डा के ठीक न लागे। (क्या आऊं, पण्डा को ठीक नहीं लगेगा।)

नहीं, घाट पण्डा का थोड़े ही है। वहां बैठना शुरू करो। तबियत तो ठीक है न?

तबियत का हाल पूछने पर वह कुछ हरियराया। मुखारी मुंह से निकाल खंखारा और फिर बोला - तबियत ठीक बा। अब काम लगाई लेहे हई। ईंट-गारा क काम। (तबियत ठीक है। अब काम करने लगा हूं। ईंट गारा का काम।)

चलो, अच्छा है। अब कल से वहीं घाट पर आ कर बैठना। ... ध्यान से देखने पर लगा कि पिछले कई महीने कठिन गुजरे होंगे उसके। पर अब ठीक लग रहा है।

ठीक बा! (ठीक है)। उसने हामी भरी।

कल से आओगे न?! पक्का?

मेरी मनुहार पर वह बोला - हां, कालि से आउब! (हां, कल से आऊंगा।)

मैं चला आया। कल के लिये यह काम हो गया है कि अगर वह सवेरे घाट पर नहीं आया तो एक बार फिर उसे मनाने जाना होगा। ... जवाहिरलाल महत्वपूर्ण है - मेरे ब्लॉग के लिये भी और मेरे लिये भी!

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छनवर

[caption id="" align="alignnone" width="599"]image छनवर/छानबे का कछार। फसल की सुनहली चादर के साथ।[/caption]

इलाहाबाद-मिर्जापुर रेल मार्ग पर स्टेशन पड़ते हैं - गैपुरा और बिरोही। गैपुरा से बिरोही की ओर बढ़ते हुये बांयी ओर गंगा नदी हैं। रेल लाइन और गंगा नदी ले बीच बहुत बड़ा कछार पड़ता है। यह छानबे या छनवर के नाम से जाना जाता है।

Gaipura

बहुत बड़ा है यह कछार। इतना बड़ा कि रेल लाइन से गंगा की घारा नजर नहीं आती। दूर दूर तक बिना किसी पेड़ की सपाट भूमि नजर आती है। कछार काफी उर्वर है गंगाजी की लाई मिट्टी से। बारिश के मौसम में तो गंगाजी रेलवे लाइन तक बढ़ आती हैं। अनेक जीव-जन्तु रेल लाइन पर आसरा पाते हैं। कभी कभी तो यह दशा होती है कि केबिन के बाहर बेंच पर पोर्टर बैठा होता है और नीचे सांप गुजर रहे होते हैं। पर वर्षा के मौसम के बाद सर्दियों में गेंहूं, अरहर और सरसों की फसल झमक कर होती है इस छनवर के कछार में।

अभी कुछ दिन पहले - उनतीस मार्च को मैं इलाहाबाद से चुनार के लिये यहां से गुजरा। गेंहू की फसल एक सुनहरी चादर की तरह लहलहा रही थी छनवर के कछार में। मुग्ध कर देने वाला दृष्य। घर वापस लौटने के बाद इस क्षेत्र की घर में चर्चा की तो मेरी अम्माजी ने बताया यहीं राजा दक्ष ने यज्ञ किया था, जिसमें शिव की अवज्ञा होने के कारण सती ने आत्मदाह किया था। श्रापवश इस स्थान में कोई वृक्ष नहीं होते। वीरान श्रापग्रस्त स्थल है यह। लोगों के पास यहां की व्यक्तिगत जमीन है। यहां रिहायशी इमारतें, यहां तक कि मड़ई भी नहीं दिखती। अपनी अपनी जमीन लोग कैसे चिन्हित करते होंगे, यह भी कौतूहल का विषय है।

[caption id="" align="alignnone" width="600"]image छनवर के कुछ दृष्य।[/caption]

मैं यहां के एक दो चित्र ले पाया था। आप वही देखें!

Wednesday, April 3, 2013

वह मुस्कराती मुसहर बच्ची

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चुनार के प्लेटफार्म पर दिखी वह। जमीन पर बैठी थी और मुझे देख रही थी। मैं उसे देख मुस्कराया तो वह भी मुस्करायी। क्या निश्छल बच्ची की मुस्कान थी। रंग उसका ताम्बे का था - वह ताम्बा, जिसे अर्से से मांजा न गया हो। चार से छ साल के बीच उम्र रही होगी उसकी। पास में उसकी मां थी और मां की गोद में उसकी छोटी बहन।

मैने उसकी मुस्कान को मोबाइल के कैमरे में लेना चाहा - और यह कृत्य उसे असहज कर गया। फिर बोलने पर भी वह मुस्कान नहीं आ पायी उसके चेहरे पर।

साथ चलते स्टेशन मैनेजर साहब ने बताया - ये बहुत गरीब हैं। पत्तियां ला कर बेंचते हैं यहां चुनार में और पैसेंजर से वापस लौट जाते हैं। यहीं, चोपन वाली लाइन से लूसा, खैराही, अघोरी खास तक से आते हैं। आदिवासी हैं। ज्यादातर मुसहर।

स्टेशन मैनेजर साहब के यह कहने पर कि ये बहुत गरीब हैं, मैने पर्स खोल कर दस बीस रुपये देने की कोशिश की। पर उसमें छुट्टे पैसे न थे। बाद में पत्नीजी से ले कर बीस रुपये भिजवाये। प्वाइण्ट्समैन साहब ने उन्हे प्लेटफार्म पर खोज कर दिये और आ कर बताया कि बहुत खुश थी वह महिला।

वह मुस्कराती मुसहर बच्ची मुझे भी मुस्कराहट दे गयी।

यही जीवन है, मित्र!