Wednesday, February 29, 2012

सब्जियां निकलने लगी हैं कछार में

[caption id="attachment_5538" align="alignright" width="300" caption="रेत में खोदे कुयें से पानी ले कर निकलती महिला। दो मिट्टी की गागर हाथ में लिये है।"][/caption]

गंगाजी का पानी क्वार के महीने में उतरता है। कार्तिक में दीपावली के बाद चिल्ला वाले शिवकुटी के कछार में खेती प्रारम्भ करते हैं सब्जियों की। कुछ लोग गेहूं, सरसों की भी खेती करते हैं। काफी श्रमसाध्य काम है यह। गंगाजी की लाई मिट्टी की परत से जो परिवर्तन होता है, वह शुरू में धीमा दीखता है। कोहरे के मौसम में और धीमा नजर आता है। पर मकर संक्रांति के बाद जब सूरज की गरमी कुछ बढ़ती है, पौधे पुष्ट होने लगते हैं और परिदृष्य़ तेजी से बदलने लगता है।

फरवरी के मध्य तक कछार की हरियाली व्यापक हो जाती है। लौकी के सफेद और कोन्हड़े के पीले फूल दिखने लगते हैं। फूल फल में परिवर्तित होने में देर नहीं लगाते। और फल बढ़ने, टूटने और बाजार तक पंहुचने में सप्ताह भर से ज्यादा समय नहीं लेते। इस समय लौकी और कोन्हड़ा बहुत बड़े बड़े नहीं हैं, पर बाजार में टूट कर आने लगे हैं। अभी उनका रेट ज्यादा ही होगा।  उनकी अपेक्षा सर्दी की सब्जियां - बन्द और फूल गोभी - जो कछार में नहीं होतीं - कहीं ज्यादा सस्ती हैं। कोन्हड़ा अभी बाजार में बीस रुपया किलो है, लौकी का एक छोटा एक फिट का पीस 12 रुपये का है। इसके मुकाबले गोभी के दो बड़े फूल या बन्द गोभी के दो बड़े बल्ब पन्द्रह रुपये में आ जाते हैं।

[caption id="attachment_5512" align="alignleft" width="584" caption="अपने कछार के लौकी-कोन्हड़ा के पौधों को सींचती महिला। रेत वाले सफेद हिस्से में कुआं खोदा हुआ है, जिसमें से वह दो गागरों से पानी निकाल कर लाती है। उसके पीछे है सरपत की टटरी, जिसके नीचे रखवाली करने वाले सुस्ताते हैं!"][/caption]

शिवकुटी के घाट की सीढ़ियों से गंगाजी तक जाने के रास्ते में ही है उन महिलाओं का खेत। कभी एक और कभी दो महिलाओं को रेत में खोदे कुंये से दो गगरी या बाल्टी हाथ में लिये, पानी निकाल सब्जियों को सींचते हमेशा देखता हूं। कभी उनके साथ बारह तेरह साल की लड़की भी काम करती दीखती है। उनकी मेहनत का फल है कि आस पास के कई खेतों से बेहतर खेत है उनका।

[caption id="attachment_5521" align="alignleft" width="584" caption="यही खेत एक महीना पहले इस दशा में था।"][/caption]

आज एक ही महिला थी गगरी से पानी निकाल कर सींचती हुई। कई लौकी के पौधों में टूटे फलों की डण्ठल दीख रही थी - अर्थात सब्जी मार्किट तक जा रही है।

मैने यूंही पूछा - मड़ई में रात में कोई रहता है?

छोटी और नीची सी मड़ई। मड़ई क्या है, एक छप्पर नुमा टटरी भर है। सब तरफ से फाल्गुनी हवा रात में सर्द करती होगी वातावरण को। रात में रहना कठिन काम होगा।

महिला अपनी गगरी रख कर जवाब देती है - रहना पड़ता ही है। नहीं तो लोग तोड़ ले जायें लौकी-कोन्हड़ा। दिन में भी इधर उधर हो जाने पर लोग निकाल ले जाते हैं।

एक ब्लाउज नुमा स्वेटर पहने और थोड़ी ऊपर उठी साड़ी पहने है वह महिला। साड़ी पुरानी है और बहुत साफ भी नहीं। काम करते करते उसे कितना साफ रखा जा सकता है। मैं उस महिला के चेहरे की ओर देखता हूं। सांवला, तम्बई रंग। सुन्दर नहीं, पर असुन्दर भी नहीं कही जा सकती। मुझे देख कर उत्तर देने में उसे झिझक नही थी - शायद जानती है कि इसी दुनियां का जीव हूं, जिसे जानने का कौतूहल है।




वहीं, गंगाजी के उथले पानी में एक चुम्बक से पानी से पैसे निकालते देखा राहुल को। बारह तेरह साल का लगता है वह। साथ में एक छोटा लड़का भी है - दिलीप। दिलीप गंगा तट से फोटो, मिट्टी की मूर्तियां और चुनरी आदि इकठ्ठा कर रहा है।


राहुल ने बताया कि आज तो उसे कुछ खास नहीं मिला, पर शिवरात्रि के दिन थोड़े समय में ही बीस रुपये की कमाई हो गयी थी।

मैं डोरी से बन्धा उसका चुम्बक देखता हूं - लोहे का रिंग जैसा टुकड़ा था वह। राहुल ने बताया कि पुराने स्पीकर में से निकाला है उसने।

[caption id="attachment_5513" align="alignleft" width="584" caption="राहुल डोरी से बन्धा चुम्बक फैंक रहा है गंगाजी के उथले पानी में। पास में खड़ा है पीली बुश-शर्ट पहने दिलीप।"][/caption]

मछेरे गंगाजी से मछली पकड़ते हैं। राहुल चुम्बक से पैसा पकड़ रहा है।

Monday, February 27, 2012

यह 2G घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ?

[श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की यह अतिथि पोस्ट है। पोस्ट क्या है, एक पहेली है। आप अपना दिमाग लगायें, टिप्पणी करें और इंतजार करें कि श्री विश्वनाथ उनपर क्या कहेंगे। मैं कोई हिण्ट या क्ल्यू नहीं दे सकता - मुझे खुद को नहीं मालुम कि सही उत्तर क्या है!]

यह 2G घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ?

माननीय कपिल सिब्बल जी कहते है जीरो (०) करोड।

अन्य लोग कहते हैं १,७०,००० करोड।


किसपर यकीन करूँ?

अच्छा हुआ कि हम इंजिनीयर बने और चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट नहीं बने।

एक किस्सा सुनिए।

इतने सालों के बाद हम एक छोटी सी अकाउण्टिंग समस्या का सही हल नहीं दे सके । हमें शर्मिन्दा होना पडा और अपने आप को कोस रहें हैं। तो इतने बडे घोटाले से हुए नुकसान का अनुमान यदि कोई नहीं कर सका तो कोई अचरज की बात नहीं।

आप शायद सोच रहे होंगे कि बात क्या है?

लीजिए, सुनिए मेरी एक काल्पनिक कहानी।

हाल ही में मैंने एक पुस्तक खरीदी।

एक दोस्त ने मुझ से कहा।

"तुम्हारी यह पुस्तक बडे काम की है। कितने में खरीदी?" मैंने उत्तर दिया: "७० रुपये।"

दोस्त ने कहा: "अरे भाई मुझे यह पुस्तक बहुत पसन्द है। मुझे दे दो। अपने लिए तुम दूसरी खरीद लेना। इस पुस्तक की कीमत मैं तुम्हें दे देता हूँ।"

यह कहकर मेरे दोस्त ने मेरे हाथ में एक सौ का नोट थमा दिया और ३० रुपये वापस लेने के लिए रुका।

मेरे पास छुट्टे पैसे नहीं थे। पास में एक दूकानदार के पास जाकर उसे यह सौ का नोट देकर उससे दस रुपये के दस नोट लेकर, अपने दोस्त के ३० रुपये वापस किए।

दोस्त चला गया। उसके जाने के बाद, दूकानदार ने मेरे पास आकर कहा, "यह सौ का नोट तो नकली है!"। मैंने परेशान होकर, उससे वह नकली नोट वापस  लेकर, अपनी जेब से एक असली १००रु का नोट उसे देकर उसे किसी तरह मना लिया। नकली नोट को मैंने फ़ाडकर फ़ेंक दिया।

अब सवाल है: मेरा कितना घाटा हुआ?

७० ? १००?, १३०? २००? या अन्य कोई रकम?

अच्छी तरह सोचने के बाद मैंने इनमे में से एक उत्तर चुना। वह गलत निकला। कुछ देर बाद एक और उत्तर दिया। वह भी गलत निकला।

आज मुझे सही उत्तर मिल गया और तर्क भी।

क्या आप या अन्य कोई मित्र बता सकते हैं सही उत्तर क्या है और कैसे आपने तय किया?

आशा करता हूँ कि इस दुनिया में मैं अकाउण्ट्स के मामले में अकेला बुद्धू नहीं हूँ और अन्य साथी भी मिल जाएंगे।

शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ

[caption id="attachment_5490" align="alignleft" width="180" caption="गोपालकृष्ण विश्वनाथ।"][/caption]

Friday, February 24, 2012

महाशिवरात्रि की भीड़

[caption id="attachment_5467" align="alignright" width="225" caption="कोटेश्वर महादेव मन्दिर। इसका डोम एक नेपाली मन्दिर सा लगता है।"][/caption]

हर हर हर हर महादेव!

कोटेश्वर महादेव का मन्दिर पौराणिक है और वर्तमान मन्दिर भी पर्याप्त पुराना है। शिवकुटी में गंगा किनारे इस मन्दिर की मान्यता है कि भगवान राम ने यहां कोटि कोटि शिवलिंग बना कर शिवपूजन किया था। पास में है शिवजी की कचहरी, जहां अनेकानेक शिवलिंग हैं।

यहां मुख्य शिवलिंग के पीछे जो देवी जी की प्रतिमा है, उनकी बहुत मान्यता है। नेपाल के पद्मजंगबहादुर राणा जब वहां का प्रधानमंत्रित्व छोड़ कर निर्वासित हो यहां शिवकुटी, इलाहाबाद में रहने लगे (सन 1888) तब ये देवी उनकी आराध्य देवी थीं - ऐसा मुझे बताया गया है। पद्मजंगबहादुर राणाजी के 14 पुत्र और अनेक पुत्रियां थीं। उसके बाद उनका परिवार कई स्थानों पर रहा। उसी परम्परा की एक रानी अब अवतरित हो कर शिव जी की कचहरी पर मालिकाना हक जता रही हैं। ... शिव कृपा!

उसी शिव मन्दिर, कोटेश्वर महादेव पर आज (20 फरवरी को) महाशिवरात्रि का पर्व मनाया गया। सामान्यत: शांत रहने वाला यह स्थान आज भीड़ से अंटा पड़ा था। लोग गंगा स्नान कर आ रहे थे। साथ में गंगाजल लेते आ रहे थे। वह गंगाजल, बिल्वपत्र, धतूरा के फूल, गेन्दा, दूध, दही, गुड़, चीनी --- सब भोलेनाथ के शिवलिंग पर उंडेला जा रहा था।
मेरी और मेरे परिवार की मान्यता है कि इस भीषण पूजा से घबरा कर महादेव जी जरूर भाग खड़े होते होंगे और पास के नीम के वृक्ष की डाल पर बैठे यह कर्मकाण्ड ऐज अ थर्ड पर्सन देखते होंगे। देवी भवानी को भी अपने साथ पेड़ पर ले जाते होंगे, यह पक्का नहीं है; चूंकि भवानी के साथ कोई पूजात्मक ज्यादती होती हो, ऐसा नहीं लगता!

कोई भी आराध्य देव अपने भक्तों की ऐसी चिरकुट पूजा कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं? फेसबुक पर हर हर महादेव के लिये एक सिम्पैथी कैम्पेन चलाने का मन होता है।

खैर! गंगा स्नान कर आते मैने एक बन्दे को चार जरीकेन गंगाजल लाते देखा - अगर वह सारा शिवलिंग पर उंडेलने जा रहा हो तो कोटेश्वर महादेव को शर्तिया जुकाम दे बैठेगा।

मदिर के बाहर तरह तरह की दुकाने लगी थीं। दोने में पूजा सामग्री - बिल्वपत्र, गेन्दा, गेहूं की बाल, छोटे साइज का बेल और धतूरा - रखे बेचने वाला बैठा था। सांप ले कर संपेरा विद्यमान था। एक औरत आलू दम बेचने के लिये जमीन पर पतीला-परात और दोने लिये थी। ठेलों पर रामदाने और मूंगफली की पट्टी, पेठा, बेर, मकोय (रैस्पबेरी) आदि बिक रहा था। मन्दिर में तो तिल धरने की भी जगह नहीं थी।
मेरी पत्नीजी का कहना है कि नीम के पेड़ से शिवजी देर रात ही वापस लौटते होंगे अपनी प्रतिमा में। कोई रुद्र, कोई गण आ कर उन्हे बताता होगा - चलअ भगवान जी, अब एन्हन क बुखार उतरा बा, अब मन्दिर में रहब सेफ बा (चलें भगवान जी, अब उन सबका पूजा करने का बुखार शांत हुआ है और अब मन्दिर में जाना सुरक्षित है! :lol: )|

[हिन्दू धर्म में यही बात मुझे बहुत प्रिय लगती है कि आप अपने आराध्य देव के साथ इस तरह की चुहुलबाजी करने के लिये स्वतंत्र हैं!]

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Wednesday, February 22, 2012

ऊँट से गोबर की खाद की ढुलाई

[caption id="attachment_5446" align="alignright" width="225" caption="गंगाजी के तट पर खाद ले कर जाता ऊंट।"][/caption]

गंगाजी के कछार में ढुलाई का सुगम तरीका है ऊंट। रेती में आसानी से चल लेता है। गंगाजी में पानी कम हो तो उसकी पतली-लम्बी टांगें उसे नदी के आरपार भी ले जाती हैं। उसका उपयोग सब तरह की ढुलाई में देखा है मैने।

वर्षा का मौसम खत्म होने पर चिल्ला गांव वाले कछार की जमीन पर अपना अपन कब्जा कर सब्जी की खेती प्रारम्भ करते हैं। यह काम दशहरा-दिवाली के आस पास शुरू हो जाता है। उस समय से ऊंट इस काम में लगे दीखते हैं। गोबर की खाद की जरूरत तभी से प्रारम्भ हो जाती है और फरवरी-मार्च तक चलती रहती है। ऊंट एक बार में दो तीन क्विण्टल खाद ले कर चल सकता है।

आज शिवरात्रि का दिन था। मैं अपना सवेरे का मालगाड़ी परिवहन नियंत्रण का काम खत्म कर कोटेश्वर महादेव मन्दिर और उसके आगे गंगाजी की रह चह लेने निकला। पड़ोस के यादव जी की गायों के गोबर की खाद लद रही थी एक ऊंट पर। उसके बाद कोटेश्वर महादेव की शिवरात्रि की भीड़ चीर कर गंगाजी की ओर बढ़ने में मुझे देर लगी, पर ऊंट खाद लाद कर अपने तेज कदमों से मुझसे आगे पंहुच गया गंगाजी की रेती में।

रेत में सब्जी के खेतों में दायें बायें मुड़ता एक खेत में रुका वह। वहां उसे बैठने के लिये कहा उसके मालिक ने। बैठने पर जैसे ही उसके ऊपर लदे बोरे को मालिक ने खेत में पल्टा, ऊंट दाईं करवट पसर कर लेट गया। चार पांच मिनट लेटा ही रहा। मालिक के निर्देशों को अनसुना कर दिया उसने। जब मालिक ने उसकी नकेल कस कर खींची तब वह अनिच्छा से उठा और चल पड़ा। उसके पीछे पीछे खेत का किसान और उसके दो छोटे बच्चे भी चले। बच्चों के लिये ऊंट एक कौतूहल जो था।

पीछे पीछे हम भी चले, पर तेज डग भरता ऊंट जल्दी ही आगे निकल गया।

ऊंट यहां खाद की ढुलाई करता है। जब सब्जियां और अनाज तैयार हो जाता है तो वह भी ले कर बाजार में जाता है। ऊंट पर लौकियां का कोंहड़ा लदे जाते कई बार देखता हूं मैं।

कछार में अवैध शराब बनाने का धन्धा भी होता है। उस काम में भी ऊंट का प्रयोग होते देखता हूं। शराब के जरीकेन लादे उसे आते जाते कई बार देखा है दूर से। शराब का धन्धा अवैध चीज है, सो उसके पास जाने का मन नहीं होता। न ही उसमें लिप्त लोग चाहते हैं कि मैं आस पास से गुजरूं और ताक झांक करूं। यहां सवेरे भ्रमण करने वाले भी "कारखाने" की ओर जाते कतराते हैं।

खैर, बात ऊंट की हो रही थी। बहुत उपयोगी है यह गंगाजी के कछार में परिवहन के लिये। आप फेसबुक पर यहां अपलोड किया एक वीडियो देखें, जिसमें ऊंट गंगाजी में हिल रहा है।

जितना उपयोगी है, उसके हिसाब से बेचारे ऊंट को भोजन नहीं मिलता प्रतीत होता। बेचारा अस्वस्थ सा लगता है। तभी शायद मौका पाते ही काम खत्म कर रेती में लेट गया था।

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ज्ञानेन्द्र त्रिपाठी जी ने पिछली पोस्ट पर टिप्पणी में ब्लॉग के मूल स्वरूप की बात उठाई है:
जवाहिर लाल, नत्तू पांड़े ये दोनो लोग तो आपके ब्लॉग के सशक्त किरदार हैं, एकदम से उपन्यास के किरदार की तरह.
बाकी सारी बातें इनके इर्द-गिर्द घूमती रहती है, और ये जो आपका यात्रा वर्णन है, ये पूरे कहानी पर जब फिल्म बनती है तो बीच-बीच में foreign location का काम करते हैं.

शायद एक ब्लॉग शुरू में अपना चरित्र खोजता है। पोस्टों को लिखने - बनाने की सुगमता, उनके पाठकों की प्रतिक्रियायें और लम्बे समय तक उन विषयों पर पाठकों की रुचि सस्टेन करने की क्षमता तय करती है ब्लॉग चरित्र। और एक बार चरित्र तय हो जाने के बाद उसमें बहुत हेर फेर न तो सम्भव होता है, न ब्लॉग की दीर्घजीविता के लिये उपयुक्त। यह जरूर है कि "चरित्र" तय होने के बाद भी ब्लॉगर के पास प्रयोग करने के लिये बहुत से आयाम खुले रहते हैं। इस बारे में चर्चा सम्भव है।

इस पोस्ट के ऊंट का विवरण इस ब्लॉग के चरित्र के अनुकूल है, ऐसा मेरा सोचना है! :lol:

Monday, February 20, 2012

सेवाग्राम - साफ सुथरा स्टेशन

[caption id="attachment_5403" align="alignright" width="300" caption=""सेवाग्राम आश्रम के लिये यहां उतरीये" - अच्छा ग्लो साइनबोर्ड। हिन्दी की मात्रा से कोई भी खेल लेता है! :-)"][/caption]

बैंगळूरु से वापस आते समय सेवाग्राम स्टेशन पर ट्रेन रुकी थी। सेवाग्राम में बापू/विनोबा का आश्रम है। यहां चढ़ने उतरने वाले कम ही थे। लगभग नगण्य़। पर ट्रेन जैसे ही प्लेटफॉर्म पर आने लगी, पकौड़ा[1] बेचने वाले ट्रेन की ओर दौड़ लगाने लगे। सामान्यत वे अपने अपने डिब्बों के रुकने के स्थान को चिन्हित कर बेचने के लिये खड़े रहते हैं, पर लगता है इस गाड़ी का यहां ठहराव नियत नहीं, आकस्मिक था। सो उन्हे दौड़ लगानी पड़ी।

पिछली बार मैं जुलाई'2011 के अंत में सेवाग्राम से गुजरा था। उस समय भी एक पोस्ट लिखी थी - सेवाग्राम का प्लेटफार्म


सेवाग्राम की विशेष गरिमा के अनुरूप स्टेशन बहुत साफ सुथरा था। प्लेटफार्म पर सफाई कर्मी भी दिखे। सामान्यत अगर यह सूचित करना होता है कि "फलाने दर्शनीय स्थल के लिये आप यहां उतरें" तो एक सामान्य सा बोर्ड लगा रहता है स्टेशनों पर। पर सेवाग्राम में गांधीजी के केरीकेचर वाले ग्लो-साइन बोर्ड लगे थे - "सेवाग्राम आश्रम के लिये यहां उतरीये।"

स्टेशन के मुख्य द्वार पर किसी कलाकार की भित्ति कलाकृति भी बनी थी - जिसमें बापू, आश्रम और सर्वधर्म समभाव के आदर्श स्पष्ट हो रहे थे।

अच्छा स्टेशन था सेवाग्राम। ट्रेन लगभग 5-7 मिनट वहां रुकी थी।
सेवाग्राम वर्धा से 8 किलोमीटर पूर्व में है। यहां सेठ जमनालाल बजाज ने लगभग 300एकड़ जमीन आश्रम के लिये दी थी। उस समय यहां लगभग 1000 लोग रहते थे, जब बापू ने यहां आश्रम बनाया।

तीस अप्रेल 1936 की सुबह बापू यहां आये थे। शुरू में वे कस्तूरबा  के साथ अकेले यहां रहना चाहते थे, पर कालांतर में आश्रम में साबरमती की तर्ज पर और लोग जुड़ते गये। बापू ने जाति व्यवस्था के बन्धन तोड़ने के लिये कुछ हरिजनों को आश्रम की रसोई में खाना बनाने के लिये भी रखा था।

इस गांव का नाम शेगांव था। पर उनकी चिठ्ठियां शेगांव (संत गजानन महाराज के स्थान) चली जाया करती थीं। अत: 1940 में इस जगह का नाम उन्होने सेवाग्राम रख दिया।

यहीं पर विनोबा भावे का परम धाम आश्रम धाम नदी के तट पर है।

सेवाग्राम के मुख्य गांव से लगभग 6 किलोमीटर दूर है सेवाग्राम स्टेशन। पहले यह वर्धा पूर्व स्टेशन हुआ करता था।

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[1] यह बताया गया कि यहां का पत्तागोभी का पकौड़ा/बड़ा प्रसिद्ध है।

पिछली पोस्ट पर श्री मनोज कुमार जी ने सेवाग्राम के इतिहास को ले कर एक विस्तृत टिप्पणी की है। आप शायद देखना चाहें। उस पोस्ट पर श्री विवेक रस्तोगी और श्री राहुल सिंह ने जिज्ञासायें व्यक्त की हैं; उनके उत्तर शायद इस पोस्ट में मिल सकें।

Saturday, February 18, 2012

सोनतलाई

[caption id="attachment_5313" align="alignright" width="300" caption="सोनतलाई से ट्रेन चली तो नदी। शायद तवा।"][/caption]

घण्टे भर से ज्यादा हो गया, यहां ट्रेन रुकी हुई है। पहले सरसों के खेत देखे। कुछ वैसे लगे जैसे किसी मुगल बादशाह का उद्यान हो। दो पेड़ आपस में मिल कर इस तरह द्वार सा बना रहे थे जैसे मेहराबदार दरवाजा हो उस उद्यान का। उनसे हट कर तीन पेड़ खड़े थे - कुछ कुछ मीनारों से।

एक छोटा कुत्ता जबरी बड़े कुकुर से भिड़ा। जब बड़के ने झिंझोड़ दिया तो किंकियाया और दुम दबा कर एक ओर चला गया। बड़े वाले ने पीछा नहीं किया। सिर्फ विजय स्वरूप अपनी दुम ऊर्ध्वाकार ऊपर रखी, तब तक, जब तक छोटा वाला ओझल नहीं हो गया।

स्टेशन के दूसरी ओर ट्रेन के यात्री उतर उतर कर इधर उधर बैठे थे। स्टेशन का नाम लिखा था बोर्ड पर सोनतलाई। नाम तो परिचित लगता है! वेगड़ जी की नर्मदा परिक्रमा की तीनों में से किसी पुस्तक में जिक्र शायद है। घर पंहुचने पर तलाशूंगा पुस्तकों में।[1]

दूर कुछ पहाड़ियां दीख रही हैं। यह नर्मदा का प्रदेश है। मध्यप्रदेश। शायद नर्मदा उनके उस पार हों (शुद्ध अटकल या विशफुल सोच!)। यहां से वहां उन पहाड़ियों तक पैदल जाने में ही दो घण्टे लगेंगे!

एक ट्रेन और आकर खड़ी हो गयी है। शायद पैसेंजर है। कम डिब्बे की। ट्रेन चल नहीं रही तो एक कप चाय ही पी ली - शाम की चाय! छोटेलाल चाय देते समय सूचना दे गया - आगे इंजीनियरिंग ब्लॉक लगा था। साढ़े चार बजे क्लियर होना था, पर दस मिनट ज्यादा हो गये, अभी कैंसल नहीं हुआ है।

बहुत देर बाद ट्रेन चली। अरे! अचानक पुल आया एक नदी का। वाह! वाह! तुरंत दन दन तीन चार फोटो ले लिये उस नदी के। मन में उस नदी को प्रणाम तो फोटो खींचने के अनुष्ठान के बाद किया!

कौन नदी है यह? नर्मदा? शायद नर्मदा में जा कर मिलने वाली तवा!

अब तो वेगड़ जी की पुस्तकें खंगालनी हैं जरूर से![slideshow]

[फरवरी 9'2012 को लिखी यात्रा के दौरान यह पोस्ट वास्तव में ट्रेन यात्रा में यात्रा प्रक्रिया में उपजी है। जैसे हुआ, वैसे ही लैपटॉप पर दर्ज हुआ। मन से बाद में की-बोर्ड पर ट्रांसफर नहीं हुआ। उस समय मेरी पत्नी जी रेल डिब्बे में एक ओर बैठी थीं। उन्होने बताया कि जब सोनतलाई से ट्रेन चली तो एक ओर छोटा सा शिवाला दिखा। तीन चार पताकायें थी उसपर। एक ओर दीवार के सहारे खड़ा किये गये हनुमान जी थे। बिल्कुल वैसा दृष्य जैसा ग्रामदेवता का गांव के किनारे होता है। ]




[1] सोनतलाई को मैने अमृतलाल वेगड़ जी के तीनो ट्रेवलॉग्स - सौन्दर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा - में तलाशा। मिला नहीं। गुजरे होंगे वे यहां से? उनकी पुस्तकों में जबलपुर से होशंगाबाद और होशंगाबाद से ओँकारेश्वर/बड़वाह की यात्रा का खण्ड खण्ड मैने तलाशा। वैसे भी वेगड़ जी तवा के नजदीक कम नर्मदा के किनारे किनारे अधिक चले होंगे। सतपुड़ा के अंचल में तवा की झील के आस पास जाने की बात तो उनकी पुस्तकों में है नहीं। :-(

खैर वेगड़ जी न सही, मैने तो देखा सोनतलाई। छानने पर पता चलता है कि यह इटारसी से लगभग 20-25 किलोमीटर पर है। आप भी देखें।

Thursday, February 16, 2012

जवाहिरलाल का बोण्ड्री का ठेका

जवाहिरलाल कई दिन से शिवकुटी घाट पर नहीं था। पण्डाजी ने बताया कि झूंसी में बोण्ड्री (बाउण्ड्री) बनाने का ठेका ले लिया था उसने। उसका काम खतम कर दो-तीन दिन हुये वापस लौटे।

आज (फरवरी 14'2012) को जवाहिरलाल अलाव जलाये बैठा था। साथ में एक और जीव। उसी ने बताया कि "कालियु जलाये रहे, परऊं भी"। अर्थात कल परसों से वापस आकर सवेरे अलाव जलाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया है उसने। अलाव की क्वालिटी बढ़िया थी। ए ग्रेड। लोग ज्यादा होते तो जमावड़ा बेहतर होता। पर आजकल सर्दी एक्स्टेण्ड हो गयी है। हल्की धुन्ध थी। सूर्योदय अलबत्ता चटक थे। प्रात: भ्रमण वाले भी नहीं दीखते। गंगा स्नान करने वाले भी इक्का दुक्का लोग ही थे।

[caption id="attachment_5368" align="aligncenter" width="584" caption="जवाहिरलाल अलाव के पास चुनाव का पेम्फलेट निहारते हुये।"][/caption]

जवाहिरलाल के ठेके के बारे में उसीसे पूछा। झूंसी में कोई बाउण्ड्री वॉल बनाने का काम था। जवाहिरलाल 12-14 मजदूरों के साथ काम कराने गया था। काम पूरा हो गया। मिस्त्री-मजदूरों को उनका पैसा दे दिया है उसने पर उसको अभी कुछ पैसा मिलना बकाया है। ... जवाहिरलाल को मैं मजदूर समझता था, वह मजदूरी का ठेका भी लेने की हैसियत रखता है, यह जानकर उसके प्रति लौकिक इज्जत भी बढ़ गयी। पैर में चप्पल नहीं, एक लुंगी पहने सर्दी में एक चारखाने की चादर ओढ़ लेता है। पहले सर्दी में भी कोई अधोवस्त्र नहीं पहनता था, इस साल एक स्वेटर पा गया है कहीं से पहनने को। सवेरे अलाव जलाये मुंह में मुखारी दबाये दीखता है। यह ठेकेदारी भी कर सकता है! कोटेश्वर महादेव भगवान किसके क्या क्या काम करवा लेते हैं!

एक बसप्पा का आदमी कल होने वाले विधान सभा के चुनाव के लिये अपने कैण्डीडेट का पर्चा बांट गया। जवाहिरलाल पर्चा उलट-पलट कर देख रहा था। मैने पूछा - तुम्हारा नाम है कि नहीं वोटर लिस्ट में?

नाहीं। गाऊं (मछलीशहर में बहादुरपुर गांव है उसका) में होये। पर कब्भौं गये नाहीं वोट देई। (नहीं, गांव में होगा, पर कभी गया नहीं वोट देने)। पण्डाजी ने बताया कि रहने की जगह पक्की न होने के कारण जवाहिर का वोटर कार्ड नहीं बना।
रहने के पक्की जगह? हमसे कोई पूछे - मानसिक हलचल ब्लॉग और शिवकुटी का घाट उसका परमानेण्ट एड्रेस है। :lol:

खैर, बहुत दिनों बाद आज जवाहिर मिला तो दिन मानो सफल शुरू हुआ!

[caption id="attachment_5369" align="aligncenter" width="584" caption="गंगाजी के कछार में कल्लू के खेत में सरसों में दाने पड़ गये हैं। एक पौधे के पीछे उगता सूरज।"][/caption]

Tuesday, February 14, 2012

व्हाइटफील्ड

[caption id="attachment_5251" align="alignright" width="300" caption="व्हाइटफील्ड के कण्टेनर डीपो में रीचस्टैकर कण्टेनर उठाकर रखता हुआ।"][/caption]

बेंगळुरू आने का मेरा सरकारी मकसद था व्हाइटफील्ड का मालगोदाम, वेयरहाउसिग और कण्टेनर डीपो देखना। व्हाइटफील्ड बैगळुरु का सेटेलाइट स्टेशन है। आप यशवंतपुर से बंगारपेट की ओर रेल से चलें तो स्टेशन पड़ते हैं - लोट्टगोल्लहल्ली, हेब्बल, बैय्यप्पन हल्ली, कृष्णराजपुरम,  व्हाइटफील्ड का सेटेलाइट माल टर्मिनल और व्हाइटफील्ड। मैं वहां रेल से नहीं गया। अत: यह स्टेशन देख नहीं सका। पर जब सीधे सेटेलाइट गुड्स टर्मिनल पर पंहुचा तो उसे बंगळूर जैसे बड़े शहर की आवश्यकता के अनुरूप पाया।

यहां एक इनलैण्ड कण्टेनर डीपो है जिसमें प्रतिदिन लगभग तीन मालगाड़ियां कण्टेनरों की उतारी और लादी जाती हैं। इस डीपो में लगभग 6000 कण्टेनर उतार कर रखने लायक जमीन है। इसके अलावा आयात-निर्यात करने वालों का माल रखने के लिये पर्याप्त गोदाम हैं। कस्टम दफ्तर यहीं पर है, जहां आने जाने वाले माल का क्लियरेंस यहीं होता है।

कण्टेनरों में निर्यात के माल का स्टफिंग (क्लियरेंस के उपरांत) यहीं किया जाता है। स्टफिंग के लिये छोटी फोर्क लिफ्ट क्रेने (3 से 5 टन क्षमता) यहां उपलब्ध हैं। कण्टेनर में माल भरने के बाद उन्हे एक के ऊपर एक जमा कर रखने अथवा मालगाड़ी के फ्लैट वैगनों पर लादने के लिये रीच स्टैकर (32 टन क्षमता) प्रयोग में आते हैं। इन उपकरणों के चित्र आप स्लाइड शो में देख सकेंगे।

इसी प्रकार आयात किया गया कण्टेनर कस्टम क्लियरेंस के बाद रीच स्टेकरों के द्वारा ट्रेलरों में लादा जाता है और ट्रेलर कण्टेनरों को उनके गंतव्य तक पंहुचाने का काम करते हैं।

व्हाइटफील्ड के कण्टेनर डीपो में अंतर्देशीय कण्टेनर भी डील किये जाते हैं। पर उनका अंतर्राष्ट्रीय यातायात की तुलना में अनुपात लगभग 1:6 का है।

व्हाइटफील्ड में कण्टेनर डीपो के अलावा सामान्य मालगोदाम भी है, जहां सीमेण्ट, खाद, अनाज, चीनी और स्टील आदि के वैगन आते हैं। यहां रोज 6-8 रेक (एक रेक में 2500 से 3600टन तक माल आता है - उनकी क्षमतानुसार) प्रतिदिन खाली होते हैं। उसमें से सत्तर प्रतिशत का माल तो व्यवसायी तुरंत उठा कर ले जाते हैं, पर जो व्यवसायी अपना माल खराब होने के भय से अथवा बाजार की दशा के चलते मालगोदाम पर रखना चाहते हैं, उन्हे यहां उपलब्ध सेण्ट्रल वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन के वेयरहाउस वाजिब किराये पर रखने की सुविधा देते हैं। मुझे बताया गया कि सामान्यत सीमेण्ट के रेक के लिये यह वेयरहाउस प्रयोग किये जाते हैं।

मुझे प्रवीण पाण्डेय ने बताया कि यहां नित्य लगभग 2-3 रेक सीमेण्ट और 0.8 रेक स्टील उतरता है। भवन और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण में सीमेण्ट और स्टील के प्रयोग का लगभग यही अनुपात है। अर्थात बैंगळूरु सतत निर्मित होता चला जा रहा है और उसका इनपुट आ रहा है व्हाटफील्ड के सेटेलाइट गुड्सशेड से!


वापसी की यात्रा में इस पोस्ट को लिखना मैने प्रारम्भ किया था तब जब मेरी ट्रेन व्हाइटफील्ड से गुजर रही थी, और जब यह पंक्तियां टाइप कर रहा हूं, बंगारपेट आ चुका है। गाड़ी दो मिनट रुक कर चली है। ट्रेन में कुछ लोगों ने खाने के पैकेट लिये हैं। अन्यथा वहां न चढ़ने वाले थे यहां, न उतरनेवाले।

[बंगारप्पा बंगारपेट के ही रहे होंगे। अब तो ऊपर जा चुके। पार्टियां बहुत बदली हों, पैसा भले कमाया हो, बैडमिण्टन रैकेट थामे स्मार्ट भले लगते रहें हो, पर चले ही गये!]

खैर, अब मैं आगे की यात्रा के दौरान व्हाइटफील्ड के स्लाइड शो का काम खत्म करता हूं:

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[जैसा ऊपर से स्पष्ट है, यह पोस्ट बैंगळूरु से वापसी यात्रा के दौरान 8 फरवरी को लिखी थी]

Sunday, February 12, 2012

बेंगळूरु - कांक्रीट और वृक्ष का मल्लयुद्ध

[caption id="attachment_5278" align="alignright" width="300" caption="यशवंतपुर स्टेशन के पास बनती बहुमंजिला इमारत। विशालकाय निर्माण उपकरण ऐसे लगता है मानो बंगलोर का झण्डा-निशान हो!"][/caption]

बेंगळूरु में मैने अनथक निर्माण प्रक्रिया के दर्शन किये। फ्लाईओवर, सड़कें, मैट्रो रेल का जमीन से उठा अलाइनमेण्ट, बहुमंजिला इमारतें, मॉल ... जो देखा बनते देखा। रिप वॉन विंकल बीस साल सोने के बाद उठा तो उसे दुनियां बदली नजर आई; पर बेंगळूरु के रिप वान विंकल को तो मात्र तीन चार साल में ही अटपटा लगेगा - कहां चले आये! कुछ ऐसा श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ ने व्यक्त किया - जो बैंगळूरु में ही रहते हैं बहुत अर्से से, पर स्टेशन क्षेत्र में हमसे मिलने बहुत अंतराल के बाद आये थे। उन्होने कहा कि देखते देखते सड़कें वन वे हो गयी हैं। जहां क्रॉसिंग हुआ करते थे, वहां फ्लाईओवर मिलते हैं। नये/काफी समय बाद आये व्यक्ति को अगर ड्राइव करना हो तो समझ नहीं आता कि कैसे किधर जाये!

महायज्ञ हो रहा है यहां, जिसमें हवि है सीमेण्ट, स्टील, बालू, पत्थर, ईंट ... और यज्ञफल है भवन, अट्टालिकायें, मॉल, सड़क, प्लॉईओवर, रेल, सड़क ...

हाईराइज टॉवर बनाती ऊंची क्रेने मुझे बैंगळूरु शहर की नव पताकायें सी लगती हैं। जहां देखो, वहां इन्हे पाते हैं हम। कितनी सशक्त निर्माण की मांसपेशियां बनाये जा रहा है यह महानगर, उत्तरोत्तर!

ऐसे में भी यहां की हरियाली जीवंत है। कॉक्रीट से मुकाबला करते सभी आकार प्रकार के वृक्ष अपने लिये जगह बनाये हुये हैं। बैंगळूरु में कैण्टोनमेण्ट हुआ करता था और है, उसके क्षेत्र में हरियाली बरकरार है। सड़कें चौड़ी करने के लिये वृक्ष कटे होंगे जरूर, पर फिर भी बाग बगीचों, सड़कों के किनारे या किसी भी लैण्डस्केप की बची जगह में वृक्ष सांस लेते दीखे। वाहनों ने प्रदूषण बढ़ाया होगा, पर वृक्षों की पत्तियों पर मुझे हरीतिमा अधिक दिखी। अन्यथा, इस महानगर के मुकाबले कहीं छोटे शहर-कस्बों में कहीं अधिक दुर्द्शा देखी है वृक्षों की। वहां पत्तों पर उनकी मोटाई से ज्यादा धूल कालिख जमा होती है, बिजली के तारों की रक्षा के लिये हर मानसून से पहले वृक्षों का जो बोंसाईकरण साल दर साल वहां होता है, वह वन्ध्याकरण जैसा ही होता है वृक्षों के लिये।

बैंगळूरु सिटी स्टेशन पर मैं प्रवास के दौरान रह रहा था। वहां रहने के कारण प्रवीण पाण्डेय ने मुझे सवेरे कब्बन पार्क और फ्रीडम पार्क की सैर का सुझाव दिया। उन्होने अपना वाहन भी वहां तक जाने के लिये सवेरे सवेरे भेज दिया। उस सुझाव के लिये उनका जितना धन्यवाद हम दम्पति दें, कम ही होगा। उन पार्कों में वृक्षों, वनस्पति और पक्षियों की विविधता देख कर मन आनन्दित हो गया! उनके कुछ चित्र भी मैने इस पोस्ट के लिये चुन लिये हैं।

कुल मिला कर निर्माण और हरीतिमा में मल्लयुद्ध हो रहा है बैंगळूरु में। मल्लयुद्ध ही कहा जायेगा। निर्माण के लिये वृक्षों का नादिरशाही कत्लेआम नहीं हो रहा। अन्यथा, पाया है कि छोटे शहरों, कस्बों में; घर सड़क, फैक्टरी बनाने वाले, जमीन हथियाने वाले; अपने वृक्षों, लैण्डस्केप, जीवों, जल और नदियों के प्रति कहीं अधिक निर्मम और कसाई होते हैं तथा वहां की नगरपालिकायें कहीं अधिक मूक-बधिर-पंगु, धूर्त और अन्धी होती हैं। वहां एक स्वस्थ मल्लयुद्ध की कोई सम्भावना ही नहीं होती।

जीतो, प्यारे वृक्षों, जीतो बैंगळूरु में! फिर कभी आऊंगा तुम्हें देखने!

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Thursday, February 9, 2012

विश्वनाथ जी की जय हो!

ओह, मैं काशी विश्वनाथ की बात नहीं कर रहा। मैं बंगलौर से हो कर आ रहा हूं और श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ज्योति विश्वनाथ की बात कर रहा हूं! उनको अपने ब्लॉग के निमित्त मैं जानता था। मेरे इस ब्लॉग पर उनकी अनेक अतिथि पोस्टें हैं। उनकी अनेक बड़ी बड़ी, सारगर्भित टिप्पणियां मेरी कई पोस्टों का कई गुणा वैल्यू-एडीशन करती हुई मौजूद हैं। उनके ऑक्सफोर्ड में पढ़ रहे रोड्स स्कॉलर सुपुत्र नकुल के बारे में आप दो-तीन पोस्टों में जान पायेंगे। कुल मिला कर विश्वनाथ जी के परिचय के रूप में इस ब्लॉग पर बहुत कुछ है।

पर जब बंगलौर जा कर उनसे साक्षात मिलना हुआ तो उन्हे जितना सोचा था, उससे कहीं ज्यादा जुझारू और ओजस्वी व्यक्ति पाया। वे सपत्नीक अपने घर से रेलवे स्टेशन के पास दक्षिण मध्य रेल के बैंगळूरु मण्डल के वरिष्ठ मण्डल रेल प्रबन्धक श्री प्रवीण पाण्डेय के चेम्बर में आये। पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार मैं वहां पंहुचा हुआ था। आते ही उनके प्रसन्न चेहरे, जानदार आवाज और आत्मीयता से कमरा मानो भर गया। हमने हाथ मिलाने को आगे बढ़ाये पर वे हाथ स्वत: एक दूसरे को आलिंगन बद्ध कर गये - मानों उन्हे मस्तिष्क से कोई निर्देश चाहिये ही न थे इस प्रक्रिया में।

श्री विश्वनाथ बिट्स पिलानी में मेरे सीनियर थे। मैं जब वहां गया था, तब वे शायद 4थे या 5वें वर्ष में रहे होंगे। वहां हम कभी एक दूसरे से नहीं मिले। अब तक मेल मुलाकात भी वर्चुअल जगत में थी। प्रवीण के चेम्बर में हम पहली बार आमने सामने मिल रहे थे। विश्वनाथ जी ने मुझसे कहा कि उनके मन में मेरी छवि एक लम्बे कद के व्यक्ति की थी! यह बहुधा होता है कि हम किसी की एक छवि मन में बनते हैं और व्यक्ति कुछ अलग निकलता है। पर विश्वनाथ जी या उनकी पत्नीजी की जो छवि मेरे मन में थी, उसके अनुसार ही पाया मैने उन्हें!

श्री विश्वनाथ जी ने अपने कार्य के दिनों को कुछ अर्सा हुआ, अलविदा कह अपने "जूते टांग दिये" हैं। उनके सभी दस-पन्द्रह कर्मचारियों को टेकओवर करने वाली कम्पनी ने उसी या उससे अधिक मेहनताने पर रख लिया है। फिलहाल उनके घर का वह हिस्सा, जो उनकी कम्पनी का दफ्तर था, अब भी है - टेकओवर करने वाली कम्पनी ने किराये पर ले लिया है। नये उपकरण आदि लगाये हैं और कार्य में परिवर्धन किया है। काफी समय विश्वनाथ जी उस नयी कम्पनी के सलाहकार के रूप में रहे। पर अपने स्वास्थ्य आदि की समस्याओं, अपनी उम्र और शायद यह जान कर कि कार्य में जुते रहने का कोई औचित्य नहीं रहा है, उन्होने रिटायरमेण्ट ले लिया।

श्री विश्वनाथ ने डेढ़ साल पहले अपनी अतिथि पोस्ट में लिखा था - 


अप्रैल महीने में अचानक मेरा स्वास्थ्य बिगड गया था। सुबह सुबह रोज़ कम से कम एक घंटे तक टहलना मेरी सालों की आदत थी। उस दिन अचानक टहलते समय छाती में अजीब सा दर्द हुआ। कार्डियॉलोजिस्ट के पास गया था और ट्रेड मिल टेस्ट से पता चला कि कुछ गड़बडी है। एन्जियोग्राम करवाया, डॉक्टर ने। पता चला की दो जगह ९९% ओर ८०% का ब्लॉकेज है। डॉक्टर ने कहा कि हार्ट अटैक से बाल बाल बचा हूँ और किसी भी समय यह अटैक हो सकता है। तुरन्त एन्जियोप्लास्टी हुई और तीन दिन के बाद मैं घर वापस आ गया पर उसके बाद खाने पीने पर काफ़ी रोक लगी है। बेंगळूरु में अपोल्लो होस्पिटल में मेरा इलाज हुआ था और साढे तीन लाख का खर्च हुआ। सौभाग्यवश मेरा इन्श्योरेंस "अप टु  डेट" था और तीन लाख का खर्च इन्श्योरेंस कंपनी ने उठाया था।


अब वे रिटायरमेण्ट का आनन्द ले रहे हैं।

उन्हे हृदय की तकलीफ हुई थी। काफी समय वे अस्पताल में  भी रहे। उनके एक पैर में श्लथता अभी भी है। उसके अलावा वे चुस्त दुरुस्त नजर आते हैं।

प्रवीण के चैम्बर में हम लोगों ने कॉफी-चाय के साथ विविध बातचीत की। श्रीमती विश्वनाथ बीच बीच में भाग लेती रहीं वार्तालाप में। बैंगळूरु में बढ़ते यातायात और बहुत तेज गति से होते निर्माण कार्य पर उन दम्पति की अपनी चिंतायें थीं। वाहन चलाना कठिन काम होता जा रहा है। कुछ ही समय में सड़कों का प्रकार बदल जा रहा है। अब बहुत कम सड़कें टू-वे बची हैं। पार्किंग की समस्या अलग है।

साठ के पार की अपनी उम्र में भी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के प्रति अपनी जिज्ञासा और समझ को प्रदर्शित करने में श्री विश्वनाथ एक अठ्ठारह साल के किशोर को भी मात दे रहे थे। बहुत चाव से उन्होने अपने आई-पैड और सेमसंग गेलेक्सी नोट को मुझे दिखाया, उनके फंक्शन बताये। इतना सजीव था उनका वर्णन/डिमॉंस्ट्रेशन कि अगर वे ये उपकरण बेंच रहे होते और मेरी जेब में उतने पैसे होते तो मैं खरीद चुका होता - देन एण्ड देयर!

हम लोग लगभग डेढ़ घण्टा प्रेम से बतियाये। श्री विश्वनाथ को अस्पताल में भर्ती अपने श्वसुर जी के पास जाना था; सो, प्रवीण, मैं और प्रवीण के तीन चार कर्मचारी उन्हे दफ्तर के बाहर छोड़ने आये। यहां उनकी इलेक्ट्रिक कार रेवा खड़ी थी। रेवा के बारे में आप जानकारी मेरी पहले की पोस्ट पर पा सकते हैं। श्री विश्वनाथ ने सभी को उसी ऊर्जा और जोश से रेवा के बारे में बताया, जैसे वे चेम्बर में अपने आई-पैड और गेलेक्सी टैब के बारे में बता रहे थे।

मैने कहा कि आप तो किसी भी चीज के स्टार सेल्समैन बन सकते हैं। वह काम क्यों नहीं किया?

उत्तर विश्वनाथ जी की पत्नीजी ने दिया - कभी नहीं बन सकते! जब वह सामान बेचने की डील फिक्स करने का समय आयेगा तो ये उस गैजेट के एक एक कर सारे नुक्स भी बता जायेंगे। सामान बिकने से रहा! :-)

मुझे लगता है कि श्रीमती विश्वनाथ के इस कमेण्ट में श्री विश्वनाथ की नैसर्गिक सरलता झलकती है। वे मिलनसारिता की ऊष्मा-ऊर्जा से लबालब एक प्रतिभावान व्यक्तित्व हैं, जरूर; पर उनमें दुनियांदारी का छद्म नहीं है। जो वे अन्दर हैं, वही बाहर दीखते हैं। ट्रांसपेरेण्ट!

उनसे मिल कर जैसा लगा, उसे शब्दों में बांधना मुझ जैसे शब्द-गरीब के लिये सम्भव नहीं।

श्रीमती और श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की जय हो!

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Tuesday, February 7, 2012

छ लोगों के ब्लॉगिंग (और उससे कुछ इतर भी) विचार

कल शाम हम छ लोग मिले बेंगळुरू में। तीन दम्पति। प्रवीण पाण्डेय और उनकी पत्नी श्रद्धा ने हमें रात्रि भोजन पर आमंत्रित किया था। हम यानि श्रीमती आशा मिश्र और उनके पति श्री देवेन्द्र दत्त मिश्र तथा मेरी पत्नीजी और मैं।

[caption id="attachment_5223" align="aligncenter" width="584" caption="बांये से - प्रवीण, देवेन्द्र और आशा"][/caption]

प्रवीण पाण्डेय का सफल ब्लॉग है न दैन्यम न पलायनम। देवेन्द्र दत्त मिश्र का भी संस्कृतनिष्ठ नाम वाला ब्लॉग है - शिवमेवम् सकलम् जगत। श्रद्धा पाण्डेय और आशा मिश्र फेसबुक पर सक्रिय हैं। मेरी पत्नीजी (रीता पाण्डेय) की मेरे ब्लॉग पर सक्रिय भागीदारी रही ही है। इस आधार पर हम सभी इण्टरनेट पर हिन्दी भाषियों के क्रियाकलाप पर चर्चा में सक्षम थे।

सभी यह मानते थे कि हिन्दी में और हिन्दी भाषियों की सोशल मीडिया में सक्रियता बढ़ी है। फेसबुक पर यह छोटी छोटी बातों और चित्रों को शेयर करने के स्तर पर है और ब्लॉग में उससे ज्यादा गहरे उतरने वाली है।

[caption id="attachment_5225" align="aligncenter" width="584" caption="देवेन्द्र और आशा मिश्र (सम्भवत: सिंगापुर में) चित्र आशा मिश्र के फेसबुक से डाउनलोड किया गया।"][/caption]

देवेन्द्र दत्त मिश्र बेंगळुरू रेल मण्डल के वरिष्ठ मण्डल विद्युत अभियंता हैं। वे एक घण्टा आने जाने में अपने कम्यूटिंग के समय में अपनी ब्लॉग-पोस्ट लिख डालते हैं। चूंकि उन्होने लिखना अभी ताजा ताजा ही प्रारम्भ किया है, उनके पास विचार भी हैं, विविधता भी और उत्साह भी। वे हिन्दी ब्लॉगिंग को ले कर संतुष्ट नजर आते हैं। अपने ब्लॉग पर पूरी मनमौजियत से लिखते भी नजर आते हैं।

आशा मिश्र के फेसबुक प्रोफाइल पन्ने पर पर्याप्त सक्रियता नजर आती है। वहां हिन्दी भाषा की पर्याप्र स्प्रिंकलिंग है। वे उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल के उन भागों से जुड़ी हैं, जहां अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता हवा में परागकणों की तरह बिखरी रहती है।

प्रवीण हिन्दी ब्लॉगरी में अर्से से सक्रिय हैं और अन्य लोगों की पोस्टें पढ़ने/प्रतिक्रिया देने में इस समय शायद लाला समीरलाल पर बीस ही पड़ते होंगे (पक्का नहीं कह सकता! :lol: )। प्रवीण ने विचार व्यक्त किया कि बहुत प्रतिभाशाली लोग भी जुड़े हैं हिन्दी ब्लॉगिंग से। लोग विविध विषयों पर लिख रहे हैं और उनका कण्टेण्ट बहुत रिच है।

[caption id="attachment_5224" align="aligncenter" width="584" caption="प्रवीण और श्रद्धा पाण्डेय अपने बच्चों के साथ। चित्र श्रद्धा पाण्डॆय के फेसबुक से डाउनलोड किया गया।"][/caption]

मेरा कहना था कि काफी अर्से से व्यापक तौर पर ब्लॉग्स न पढ़ पाने के कारण अथॉरिटेटिव टिप्पणी तो नहीं कर सकता, पर मुझे यह जरूर लगता है कि हिन्दी ब्लॉगरी में प्रयोगधर्मिता की (पर्याप्त) कमी है। लोग इसे कागज पर लेखन का ऑफशूट मानते हैं। जबकि इस विधा में चित्र, वीडियो, स्माइली, लिंक, टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी की अपार सम्भावनायें हैं, जिनका पर्याप्त प्रयोग ब्लॉगर लोग करते ही नहीं। लिहाजा, जितनी विविधता या जितनी सम्भावना ब्लॉग से निचोड़ी जानी चाहियें, वह अंश मात्र भी पूरी नहीं होती।

हमने श्रद्धा पाण्डेय का वेस्ट मैनेजमेण्ट पर उनके घर-परिवेश में किया जाने वाला (अत्यंत सफल) प्रयोग देखा। उन्होने बहुत उत्साह से वह सब हमें बताया भी। रात हो गयी थी, सो हम पौधों और उपकरणों को सूक्ष्मता से नहीं देख पाये, पर इतना तो समझ ही पाये कि जिस स्तर पर वे यह सब कर रही हैं, उस पर एक नियमित ब्लॉग लिखा जा सकता है, जिसमें हिन्दी भाषी मध्यवर्ग की व्यापक रुचि होगी। ... पर ऐसा ब्लॉग प्रयोग मेरे संज्ञान में नहीं आया। मुझे बताया गया कि श्री अरविन्द मिश्र ने इसपर एक पोस्ट में चर्चा की थी। वह देखने का यत्न करूंगा। पर यह गतिविधि एक नियमित ब्लॉग मांगती है - जिसमें चित्रों और वीडियो का पर्याप्त प्रयोग हो।

तो, ब्लॉगिंग/सोशल मीडिया से जुड़े लोगों की कलम और सोच की ब्रिलियेंस एक तरफ; मुझे जो जरूरत नजर आती है, वह है इसके टूल्स का प्रयोग कर नयी विधायें विकसित करने की। और उस प्रॉसेस में भाषा  के साथ प्रयोग हों/ परिवर्तन हों तो उससे न लजाना चाहिये, न भाषाविदों की चौधराहट की सुननी चाहिये!

Monday, February 6, 2012

बेंगळुरु

कल सवेरे ट्रेन आन्ध्र के तटीय इलाके से गुजर रही थी। कहीं कहीं सो समुद्र स्पष्ट दिख रहा था। कोवली के पास तो बहुत ही समीप था। सूर्योदय अपनी मिरर इमेज़ समुद्र के पानी में ही बना रहा था। धान के खेत थे। कहीं कहीं नारियल ताड़ के झुरमुट। आगे चल कर रेनेगुण्टा से जब ट्रेन समुद्र तट छोड़ने लगती है तो पहाड़ या पहाड़ियां भी बैकग्राउण्ड में आने लगे। अगर मेरा स्वास्थ टिचन्न रहा होता तो बहुत आनन्द लिया होता यह सब देखने में। अब वापसी में वह करने की अपेक्षा करता हूं।

अन्दाज था कि ट्रेन डेढ़ दो घण्टा लेट थी, पर जब यशवंतपुर पंहुची तो समय पर थी। सांझ उतर चुकी थी। फिर भी लगभग दो घण्टे का समय था सूरज की रोशनी में शहर निहारने का। इतने सारे फ्लाईओवर बन गये हैं कि यातायात रुकता नहीं। केवल रात में बेंगळूरू सिटी स्टेशन के पास ट्रैफिक जाम दिखा।

बेंगळुरू स्टेशन पर अनवरत होने वाले ट्रेनों के आवागमन के अनाउंसमेण्ट में मैं यही अन्दाज लगाता रहा कि अंकों को कन्नड़ में क्या कहा जाता है। हर ट्रेन का और उसके प्लेटफॉर्म का नम्बर उद्घोषित होता था। [slideshow]