Friday, August 31, 2012

विण्ढ़म प्रपात के आस पास

सुरेश विश्वकर्मा के मोबाइल पर फोन आते ही रिंगटोन में एक महिला अपने किसी फिल्मी पैरोडी के गायन में आश्वस्त करने लगती थी कि भोलेनाथ ने जैसे अनेकानेक लोगों का उद्धार किया है; उसी तरह तुम्हारा भी करेंगे। समस्या यह थी कि यह उद्धार उद्घोषणा बहुत जल्दी जल्दी होती थी। वह मेरे वाहन का ड्राइवर था और उसका मालिक उसके मूवमेण्ट के बारे में जब तब पूछता रहता था। इतनी बार फोन करने के स्थान पर अगर वाहन पर ट्रैकिंग डिवाइस लगा देता तो शायद कम खर्चा होता! शायद। मुझे उस डिवाइस के लगाने का अर्थशास्त्र नहीं मालुम! पर मुझे सुरेश विश्वकर्मा पसन्द आ रहा था बतौर वाहन चालक। और बार बार शंकर जी का उद्धार का आश्वासन घूमने में विघ्न ही डाल रहा था। ऑफ्टर ऑल, यह तो तय है ही कि भोलेनाथ उद्धार करेंगें ही - उसे बार बार री-इटरेट क्या करना।

खैर, सुरेश विश्वकर्मा के वाहन में हम विण्ढ़म फॉल्स देखने को निकले थे।

[caption id="attachment_6107" align="alignright" width="800"] विण्ढ़म फॉल्स का एक दृष्य[/caption]

विण्ढ़म फॉल में पर्याप्त पानी था। किशोर वय के आठ दस लड़के नहा रहे थे। उनके बीच एक जींस पहने लड़की पानी में इधर उधर चल रही थी। उन्ही के गोल की थी। पर इतने सारे लड़कों के बीच एक लड़की अटपटी लग रही थी। यूपोरियन वातावरण मेँ यह खतरनाक की श्रेणी में आ जाता है। पर वे किशोर प्रसन्न थे, लड़की प्रसन्न थी। हम काहे दुबरायें? उसके बारे में सोचना झटक दिया।

रमणीय स्थान है विण्ढ़म प्रपात। पानी बहुत ऊंचाई से नहीं गिरता। पर कई चरणों में उतरता है - मानो घुमावदार सीढ़ियां उतर रहा हो। नदी - या बरसाती नदी/नाला - स्वयं भी घुमावदार है। कहां से आती है और कहां जाती है? गंगा नदी में जाता है पानी उतरने के बाद या शोणभद्र में? मेरे मन के इन प्रश्नों का जवाब वहां के पिकनिकार्थी नहीं जानते थे। लोग रमणीय स्थान पर घूमने आते हैं तो इस तरह के प्रश्न उन्हें नहीं कोंचते। इस तरह के प्रश्न शायद सामान्यत: कोंचते ही नहीं। यह तो मुझे बाद में पता चला कि कोई अपर खजूरी डैम है, जिससे पानी निकल कर बरसाती नदी के रूप में विण्ढ़म फॉल में आता है और वहां से लोअर खजूरी में जाता है। लोअर खजूरी में आगे भी पिकनिक स्थल हैं। अंतत: जल गंगा नदी में मिल जाता है।

[caption id="attachment_6113" align="alignright" width="225"] "सरकारी नौकरी के लिये सम्पर्क करें - मोबाइल नम्बर 93---------। इस वातावरण में भी बेरोजगारी और सरकारी नौकरी की अहमियत का अहसास! हुंह![/caption]

रमणीय स्थल था, पिकनिकार्थी थे और बावजूद इसके कि पत्थरों पर पेण्ट किया गया था कि कृपया प्लास्टिक का कचरा न फैलायें, थर्मोकोल और प्लास्टिक की प्लेटें, ग्लास और पन्नियों का कचरा इधर उधर बिखरा था। किसी भी दर्शनीय स्थल का कचरा कैसे किया जाता है, उसमें आम भारतीय पिकनिकार्थी की पी.एच.डी. है।

इतने रमणीय स्थल पर धरती पर उतारती एक इबारत किसी ने पत्थर पर उकेर दी थी - "सरकारी नौकरी के लिये सम्पर्क करें - मोबाइल नम्बर 93---------। इस वातावरण में भी बेरोजगारी और सरकारी नौकरी की अहमियत का अहसास! हुंह!

एक सज्जन दिखे। नहाने के बाद टर्किश टॉवल बान्धे थे। गले में एक मोटी सोने की चेन। मुंह में पान या सुरती। उनकी पत्नी और दो परिचारिका जैसी महिलायें साथ थीं। वे उपले की गोहरी जला कर उसपर एक  स्टील की पतीली में अदहन चढ़ा रहे थे। मैने अनुरोध किया - एक फोटो ले लूं?

[caption id="attachment_6108" align="alignright" width="800"] पिकनिक मनाने आये बनारस/सारनाथ के दम्पति। भोजन का इंतजाम हो रहा है![/caption]

वे सहर्ष हामी भर गये। एक हल्के से प्रश्न के जवाब में शुरू हो गये - बनारस से आये हैं यहां सैर करने। इस पतीली में दाल बनेगी। प्रोग्राम है चावल, चोखा और बाटी बनाने का। अगले तीन घण्टे यहां बिताने हैं। भोजन की सब सामग्री तो यहीं स्थानीय खरीदी है, पर उपले अपने साथ बनारस/सारनाथ से ही ले कर आये हैं। यहां वालों को ढ़ंग की उपरी बनाना नहीं आता!

विशुद्ध रसिक जीव! सैर में पूरा रस लेते दिखे। इस किच किच के समय में जहां पूरा देश भ्रष्टाचार पर चर्चा में आकण्ठ डूबा है, वहां इनको यह तक सूझ रहा है कि सौ किलोमीटर दूर सारनाथ से पिकनिक मनाते जाते समय घर से उपले भी ले चलें! एक शुद्ध बनारसी जीव के दर्शन हुये! सिल लोढ़ा और भांग होती तो सीन पूरा हो गया होता!

विंढम फॉल्स के वापस लौटते समय पैदल की दूरी पर एक ग्रामीण पाठशाला से वापस लौटते बच्चे दिखे। सभी स्कूल की यूनीफार्म पहने थे। सभी के पास बस्ते थे। पथरीली जमीन पर गर्मी में वे चल रहे थे पर उनमें से दो तिहाई के पैर में चप्पल या जूते नहीं थे। सुरेश विश्वकर्मा ने बताया कि स्कूल में यूनीफार्म बस्ता और किताबें फ्री मिलती हैं। दोपहर का भोजन भी मिलता है। इसलिये सभी स्कूल आ रहे हैं, यूनीफार्म भी पहने हैं और बस्ता भी लिये हैं। फ्री में जूता नहीं मिलता, सो नंगे पांव आ रहे हैं।

कुलमिला कर गरीबी है और स्कूल उस गरीबी को कुछ मरहम लगाता है - अत: स्कूल आबाद है। यही सही। बस सरकार जूते या चप्पल भी देने लगे तो नंगे पांव पत्थर पर चलने की मजबूरी भी खत्म हो जाये।

ओह! मैने बहुत ज्यादा ही लिख दिया! इतनी बड़ी पोस्टें लिखने लगा तो कहीं लेखक न मान लिया जाऊं, ब्लॉगर के स्थान पर! :lol:

Monday, August 27, 2012

कुर्सियाँ बुनने वाला

मेरे दफ्तर में कॉरीडोर में बैठा मोनू आज कुर्सियाँ बुन रहा है। पुरानी प्लास्टिक के तार की बुनी कुर्सियों की फिर से बुनाई कर रहा है।

बताता है कि एक कुर्सी बुनने में दो घण्टे लगते हैं। एक घण्टे में सीट की बुनाई और एक घण्टे में बैक की। दिन भर में तीन से चार कुर्सियां बुन लेता है। एक कुर्सी पर मिलते हैं उसे 200 रुपये और सामान लगता है 80 रुपये का। अर्थात लगभग 500 रुपये प्रतिदिन की कमाई! रोज काम मिलता है? मैं जानने के लिये मोनू से ही पूछ लेता हूं।
हां, काम मिलने में दिक्कत नहीं। छौनी (मिलिटरी केण्टोनमेण्ट - छावनी) में हमेशा काम मिलता रहता है।

मुझे नहीं मालुम था कि मिलिटरी वाले इतनी कुर्सियां तोड़ते हैं। :lol:

बहरहाल मोनू का काम देखना और उससे अपडेट लेना अच्छा लग रहा है। कॉरीडोर में आते जाते वह काम करते दिख ही जा रहा है!

[caption id="attachment_6095" align="alignright" width="800"] मोनू, कुर्सी बीनता हुआ।[/caption]

Thursday, August 16, 2012

मितावली स्टेशन के जीव

मितावली टुण्डला से अगला स्टेशन है दिल्ली की ओर। यद्यपि यहां से तीन दिशाओं में ट्रेने जाती हैं – दिल्ली, कानपुर और आगरा की ओर, पर तकनीकी रूप से इसे जंक्शन नहीं कहा जा सकता – आगरा की ओर यहां से केवल मालगाड़ियां जाती हैं। छोटा स्टेशन है यह – रेलवे की भाषा में रोड साइड।

कुल पौने तीन सौ टिकट बिकते हैं मितावली रेलवे स्टेशन में हर रोज। केवल सवारी गाड़ियां रुकती हैं। आस पास गांव दूर दूर दिखाई नहीं पड़ते। खेत हैं। ज्यादातर खेतों में धान जैसी चीज नहीं, चारा उगा दिखता है।

मैं पुशट्राली पर निरीक्षण करते हुये यहां पंहुचा। स्टेशन मास्टर साहब को लगता है पहले से खबर रही होगी – एक व्यक्ति हमारे पंहुचते ही कोका कोला छाप पेय की बोतलें ले आया। मेरे लिये शर्करा युक्त पेय उचित नहीं है। यह कहने पर भी दिये ग्लास में पेय आधा कर दो – उस व्यक्ति ने थोड़ा ही कम किया। मेहमाननवाजी स्वीकारनी ही पड़ी स्टेशन मास्टर साहब की।

कुछ ही समय हुआ है स्टेशन में सिगनलिंग प्रणाली में परिवर्तन हुये। पहले लीवर से चलने वाले सिगनल थे – जिन्हे लीवर मैन दोनो ओर बने कैबिनों पर स्टेशन मास्टर साहब के निर्देशानुसार खींच कर आने-जाने वाली गाड़ियों के लिये कांटा सेट करते और सिगनल देते थे। कुल मिला कर कम से कम तीन व्यक्ति इस काम में स्ंलग्न होते थे – स्टेशन मास्टर और दो लीवर/कैबिन मैन।

[caption id="attachment_6064" align="aligncenter" width="584"] मितावली स्टेशन का परित्यक्त केबिन। अब लीवर की प्रणाली का स्थान सॉलिड स्टेट इंटरलॉकिंग ने ले लिया है।[/caption]

अब लीवर हटा कर सारा काम सॉलिड स्टेट इण्टरलॉकिंग से होने लगा है। स्टेशन मास्टर साहब के पास एक कम्प्यूटर् लगा है, जिसके मॉनीटर पर पूरे स्टेशन का नक्शा है। उसी नक्शे पर क्लिक कर वे रूट सेट करने और सिगनल देने का काम करते हैं।

[caption id="attachment_6067" align="aligncenter" width="584"] सॉलिड स्टेट इण्टरलॉकिंग का मॉनीटर।[/caption]

स्टेशन मास्टर साहब हमारे सामने एक मॉनीटर से दूसरे (स्टेण्ड बाई) पर स्विच-ओवर करने का डिमॉन्स्ट्रेशन कर रहे थे तो माउस सरक कर गिर गया। कोल्ड ड्र्ंक लाने वाला जवान तुरत बोला – अरे कछुआ गिर गया नीचे।  

[caption id="attachment_6069" align="alignright" width="148"] शिवशंकर।[/caption]
वाह! बेकार ही इस उपकरण को माउस कहा जाता है। देसी भाषा में कछुआ बेहतर शब्द है और इसका आकार भी कछुये से ज्यादा मिलता जुलता है।

उस नौजवान का नाम पूछा मैने – शिवशंकर। यहां के किसी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी का लड़का है और रेलवे के कामकाज के बारे में अपने पिता से कम नहीं जानता होगा शिवशंकर! स्टेशन मास्टर साहब का नाम था सीपी शर्मा।

निरीक्षण कर चलते हुये मैने स्टेशन मास्टर साहब से पूछा – और कोई समस्या? मकान वगैरह तो ठीक हैं यहां पर?

कहां साहब यह तो जंगल है। दिन में भी चले आते हैं। कमरे के बाहर तो दिखते हैं ही; कमरे में भी चले आते हैं। परसों ही आ गया था…

मुझे किसी ने बताया था कि यहां जंगली सूअर हैं नीलगाय के अलावा। मैने सोचा मास्टर साहब शायद किसी चौपाया की बात कर रहे हैं। पूछा – कौन आ जाता है? उत्तर शिवशंकर ने दिया – जी, सांप और बिषखोपड़ा। कमरे में भी चले लाते हैं। घर रहने लायक नहीं हैं। इस कमरे में काम करना भी संभल कर रह कर हो सकता है।

[caption id="attachment_6065" align="aligncenter" width="584"] मितावली के प्लेटफार्म पर बकरियां चराता गड़रिया।[/caption]

सांप, बिषखोपड़ा और नीलगाय् तो यहां आते हुये मैने देखे थे। जंगली सूअर देखने में नहीं आये। मुझे बताया गया कि वे खरतनाक हैं। हिंसा पर उतर आयें तो आदमी को मार सकते हैं। … मितावली स्टेशन के जीव!

फिर भी मैने आस पास घूम कर देखा तो स्टेशन पर कुछ परिवार रहते पाये। एक खटिया पर कुछ स्त्रियां-लड़कियां बैठी कंधी-चोटी करती दीखीं। उनकी प्राइवेसी भंग न हो, मैं वापस आ कर स्टेशन से रवाना हो गया।

चलते हुये स्टेशन मास्टर साहब से हाथ मिलाना और शिवशंकर के कन्धे पर आत्मीयता से हाथ रखना नहीं भूला मैं![slideshow]


Monday, August 13, 2012

पी.जी. तेनसिंग की किताब से

पी.जी. तेनसिंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के केरल काडर के अधिकारी थे। तिरालीस साल की उम्र में सन् २००६ में कीड़ा काटा तो सरकारी सेवा से एच्छिक सेवानिवृति ले ली। उसके बाद एक मोटर साइकल पर देश भ्रमण किया। फ्रीक मनई! उनके सहकर्मी उनके बारे में कहते थे - दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी, पार्टी जाने वाले "पशु", चुपचाप काम में घिसने वाले, विजटिंग प्रोफेसर, अनैक्षुक अफसर, सफल होटल चलानेवाला और सबसे ऊपर - एक ग्रेट दोस्त!

देश भ्रमण में तीन साल लगे। एक किताब लिखी - डोण्ट आस्क एनी ओल्ड ब्लोक फॉर डेरेक्शन्स (Don't ask any old bloke for DIRECTIONS)। और फिर इस दुनियां से चले गये सन् २०१० में! :sad:

आप उनकी किताब बतैर ट्रेवलॉग पढ़ सकते हैं। यहां मैं एक छोटा अंश सिविल सेवा की दशा के बारे में प्रस्तुत कर रहा हूं, जो उन्होने रांची प्रवास के दौरान के वर्णन में लिखा है। (कहना न होगा कि मेरा हिन्दी अनुवाद घटिया होगा, आखिर आजकल लिखने की प्रेक्टिस छूट गयी है! :-) ):

मुझे मालुम है कि हर राज्य में ईमानदार और बेईमान अफसरों के बीच खाई बन गयी है। ईमानदार नित्यप्रति के आधार पर लड़ाई हारते जा रहे हैं। कुछ सामाना कर रहे हैं रोज दर रोज। बाकी दूसरी दिशा में देखते हुये अपनी नाक साफ रखने की जद्दोजहद में लगे हैं। कई इस सिस्टम से येन केन प्रकरेण निकल जाने की जुगत में लगे हैं। झारखण्ड में मृदुला (पुरानी सहकर्मी मित्र/मेजबान) के कारण मैने कई नौकरशाहों से मुलाकात की। अन्य राज्यों में मैं (एक व्यक्तिगत नियम के तहद) उनसे मिलता ही नहीं। 


एक सीनियर अफसर ने भड़ास निकाली कि समाजवादी व्यवस्था का शासन नौकरशाही की वर्तमान बुराइयों के लिये जिम्मेदार है। पॉलिसी बनाने वालों ने शासन चलाने का दिन प्रति दिन का काम संभाल लिया है। और जिनका काम पॉलिसी के कार्यान्वयन का था, वे राजनेताओं के समक्ष अपनी सारी ताकत दण्डवत कर चुके हैं। 


इस देश में पॉलिसी-मेकर्स की जबरदस्त कमी हो गयी है - वे लोग जो लम्बी दूरी की सोचें और गवर्नेंस के थिंक टैंक हों। मसलन, आप ट्रान्सपोर्ट विभाग को लें। मन्त्री और सचिव को अपना दिमाग एक साथ मिला कर राज्य की लम्बे समय की यातायात समस्याओं को हल करने के लिये लगाना चाहिये। उसकी बजाय मन्त्री बहुत रुचि लेता है कर्मचारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर में। और सचिव इसमें उसके साथ मिली भगत रखता है। यह काम ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के दफ्तर को करना चाहिये। इससे ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की स्थिति कमजोर होती है। उसका अपने कर्मचारियों पर प्रभाव क्षरित होता है। बस ऐसे ही चलता रहता है और देश लटपटाता चलता जाता है। 


मुझे अपनी तरफ से कुछ जोड़ना चाहिये?! नो चांस। अभी कुछ साल नौकरी करनी है मुझे - मोटर साइकल चलाना नहीं आता मुझे, और मैं तेनसिंग की तरह "दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी" आदि नहीं हूं। :lol:


Friday, August 10, 2012

टूण्डला - एतमादपुर - मितावली - टूण्डला

टूण्डला से आगरा जाने की रेल लाइन पर अगला स्टेशन है एतमादपुर। और टूण्डला से दिल्ली जाने के रास्ते में पहला स्टेशन है मितावली। इन तीनों स्टेशनों को जोडने वाला एक रेल लाइन का त्रिभुज बनता है। मैंने आठ अगस्त को उस त्रिभुज की यात्रा की।

[caption id="attachment_6045" align="aligncenter" width="584"] गूगल अर्थ पर दिखता रेल पटरियों का टूण्डला-एतमादपुर-मितावली का त्रिभुज।[/caption]

टूण्डला से हम एक पुश-ट्रॉली पर रवाना हुये। पुश ट्रॉली को चार व्यक्ति धक्का देते हैं चार पहियों की यह ट्रॉली जब पर्याप्त गति पकड़ लेती है तो वे उछल कर ट्रॉली पर सवार हो जाते हैं। जब ट्रॉली रुकने लगती है तो वे पुन: उतर कर धक्का लगाते हैं। इस तरह यह ट्रॉली औसत २०-२५ किमीप्रघ की रफ्तार से चलती है। हमारी ट्रॉली पर धक्का लगाने वाले छरहरे बदन के स्वस्थ लोग थे। उनमें से एक अधेड़ था और वाचाल भी। वह बीच बीच में स्थान के बतौर गाइड अपनी टिप्पणियां भी करता जा रहा था। उससे काफी जानकारी मिली।

टूण्डला से एतमादपुर के रास्ते में सरपत की बड़ी बड़ी घास है ट्रैक के दोनो ओर। उनमें से निकल कर जीव ट्रैक पार करते दिखे। तीन जगह तो विषखोपड़ा (गोह की प्रजाति का जीव - साइज में काफी बड़ा - लगभग पौना मीटर लम्बा) सरसराता हुआ पटरी पार कर गया हमारे आगे। एक जगह एक पतला पर काफी लम्बा सांप गुजरा। यूं लगा कि टूण्डला से बाहर निकलते ही अरण्य़ प्रारम्भ हो गया हो।

[caption id="attachment_6053" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला से निकलते ही ऊंची ऊंची घास दिखी ट्रैक के किनारे।[/caption]

टूण्डला एक छोटा कस्बा जैसा स्थान है। इसका अस्तित्व रेलवे का एरिया ऑफिस होने के कारण ही है। हमारे डिविजनल ट्रैफिक मैनेजर श्रीयुत श्रीकृष्ण शुक्ल, जो टूण्डला में नियुक्त हैं और मेरे साथ थे, ने बताया कि टूण्डला की बाजार की अर्थव्यवस्था रेलवे स्टाफ की लगभग बीस-पच्चीस करोड़ की सालाना सेलेरी पर निर्भर है। उसके अलावा कोई उद्योग यहां नहीं है। इस जगह के आसपास के किसान (टूण्डला-फिरोज़ाबाद-इटावा-मैनपुरी का इलाका) जरूर आलू की पैदावार से सम्पन्न हैं। अत: इलाके में कई कोल्ड स्टोरेज मिल जायेंगे। इस इलाके में आलू के चिप्स की युनिटें और आलू से बनने वाली शराब की ब्रुवरी लगाने की सम्भावनायें है। इसके अलावा डेयरी के लिये पशुपालन और उनके लिये चारा बोने का प्रचलन है आस पास के गांवों में - ऐसा श्रीकृष्ण ने बताया।

पर मुझे आस पास की कृषि भूमि पर छुट्टा घूमते बहुत स्वस्थ नीलगाय दिखे। हमारे विद्युत अभियन्ता श्री ओम प्रकाश पाठक ने बताया कि नीलगाय के ट्रैक पर आने और इन्जन से टकराने के कारण इन्जन फेल होने की घटनायें बहुत होती हैं।

मेरे पास अच्छा कैमरा न होने के कारण विषखोपड़ा, सांप या नीलगाय के चित्र नहीं ले पाया। पर उनके चित्र जेहन में गहरे से उतर गये। ये जीव जितने भयानक थे, उतने ही सुन्दर भी। एतमादपुर से मितावली के बीच मुझे एक दो पेड़ों पर बया के ढेरों घोंसले दिखे।  पुश ट्रॉली रुकवा कर मैने पेड़ के पास जा कर उनके चित्र लेने चाहे तो एक ट्रॉली मैन आगे आगे चला। वास्तव में घास के बीच कुछ सरसराता हुआ आगे चला गया। एक बड़ा जानवर - शायद नीलगाय भी आगे चरी के खेत में जाता दिखा। घास में बहुत से भुनगे-टिड्डे उड़ते दिखे। अगर वह ट्रॉली मैन आगे न होता तो मैं आगे के गढ्ढे को भांप न पाता और एकबारगी तो उसमें गिर ही जाता।

[caption id="attachment_6058" align="aligncenter" width="584"] पेंड पर लगे बया के घोंसले।[/caption]

खैर, बया के घोंसलों के चित्र ले ही लिये - यद्यपि थोड़ा दूर से। ट्रॉली मैन ने बया का एक घोंसला तोड़ कर लाने का प्रस्ताव रखा - पर मैने जोर दे कर मना कर दिया - किसी का घर उजाड़ना कोई अच्छी बात थोड़े ही है।

मितावली और टूण्डला के बीच नेशनल हाईवे अथॉरिटी के इन्जीनियर रेल के ऊपर रोड ओवर ब्रिज के निर्माण के लिये ट्रैक का ब्लॉक ले कर काम कर रहे थे। उन्होने बताया कि अभी सत्तर-सत्तर मिनट के बीस पच्चीस ब्लॉक की और जरूरत पड़ेगी। ब्लॉक निर्धारण का अधिकार श्रीकृष्ण के पास है। अत: इस दौरान उन्होने हमसे बहुत मैत्री युक्त बातचीत की।

[caption id="attachment_6056" align="aligncenter" width="584"] रोड ओवर ब्रिज के नीचे नेशनल हाईवे अथॉरिटी के इन्जीनियर्स से पुश ट्रॉली से उतर कर बात करते श्रीयुत श्रीकृष्ण शुक्ल।[/caption]

टूण्डला आने के पहले एक बड़ा कैम्पस दिखा - डा. जाकिर हुसैन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी एण्ड मैनेजमेण्ट। भव्य बिल्डिंग। उसका बोर्ड बता रहा था कि ZHITM के १५ कैम्पस, २० कोर्सेज और पच्चीस हजार से अधिक विद्यार्थी हैं। ... आज कल इस तरह के सन्थानों की जो दशा है, उसके अनुसार इन पच्चीस हजार में से कम से कम बाईस हजार विद्या की अर्थी ढोने वाले ही होंगे, विद्यार्थी नहीं।

खाड़ी के देशों की कमाई से खड़े किये गये ये सन्थान, जिनमें बिल्डिंग है पर अन्य इन्फ्रॉस्ट्रक्चर नगण्य़ है और फेकेल्टी को छ से दस हजार की मासिक सेलरी पर रखा जाता है - उनसे गुणवत्ता की क्या अपेक्षा की जा सकती है?

[caption id="attachment_6048" align="aligncenter" width="584"] डा. जाकिर हुसैन इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी एण्ड मैनेजमेण्ट का कैम्पस।[/caption]

टूण्डला के बाहर माननीय कांसीराम आवास योजना के अन्तर्गत बनते मकानों का परिसर भी नजर आया। शहर से पांच किलोमीटर दूर। यह परिसर दुकानों, स्कूल, डिस्पेंसरी आदि की सुविधाओं से लैस होगा। पर यहां रहने वाले लोगों को आजीविका के लिये अगर टूण्डला आना जाना हुआ तो उनका काफी पैसा और समय कम्यूटिंग में लग जायेगा। खैर, बनता हुआ परिसर अच्छा लग रहा था। पता नहीं, समाजवादी पार्टी की नयी सरकार परियोजना को धीमा न कर दे!

[caption id="attachment_6049" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला के बाहर माननीय कांसीराम आवास योजना के अन्तर्गत बनते मकान।[/caption]

पूरी पुश ट्रॉली यात्रा के अन्त में टूण्डला यार्ड में एक अठपहिया ब्रेकवान दिखा। यह ब्रेकवान निश्चय ही मालगाड़ी के गार्ड साहब की यात्रा पहले के चारपहिया ब्रेकवान की उछलती हिचकोले खाती और शरीर के पोर पोर को थकाती जिन्दगी से बेहतर बना देगी। उत्तरोत्तर ये ब्रेकवान बढ़ रहे हैं, पुराने चार पहिया वालों को रिप्लेस करते हुये।

[caption id="attachment_6050" align="aligncenter" width="584"] टूण्डला यार्ड में एक मालगाड़ी का आठपहिया ब्रेकवान।[/caption]


Wednesday, August 8, 2012

टूण्डला की पुरानी क्रेन

टूण्डला फिरोज़ाबाद जिले का पुराना रेलवे शहर है। रेलवे लाइन यहां १९वीं सदी के उत्तरार्ध में बनी होगी। तब की इमारतें, वस्तुयें यहां उपलब्ध हैं।

आज यार्ड में घूमते हुये मुझे यह सन् 1879 की हाथ से चलने वाली दस टन की क्रेन दिखी। बहुत सुन्दर। अब निश्चय ही काम में नहीं आती होगी - यद्यपि अभी भी रेल की पटरी पर खड़ी थी।

उसपर उपलब्ध प्लेक के अनुसार वह Cowans Sheldon & Co Ltd द्वारा Carlisle, England में 1879 की बनी है। उसका नम्बर 1001 है।

[caption id="attachment_6035" align="aligncenter" width="584"] 10 Tonne Hand Crane at Tundla[/caption]

[caption id="attachment_6036" align="aligncenter" width="584"] The plaque on Hand Crane[/caption]

सुन्दर लग रही है यह दस टन की हाथ से चलने वाली क्रेन, नहीं? कई महत्वपूर्ण इमारतों के सामने रेलवे वाले नैरो गेज के इंजन लगाते हैं। आर्मी वाले टैंक और एयर फोर्स वाले फाइटर प्लेन। उसी तरह किसी इमारत के सामने यह क्रेन रखी जा सकती है - उसके सामने का अच्छा व्यू देने के लिये!


Monday, August 6, 2012

डाटा

जब (सन् 1984) मैने रेलवे सर्विस ज्वाइन की थी, तब रेलवे के यार्ड और स्टेशनों से ट्रेन चलने का डाटा इकठ्ठा करने के लिये ट्रेन्स क्लर्क दिन रात लगे रहते थे। एक मालगाड़ी यार्ड में आती थी तो वैगनों का नम्बर टेकर पैदल चल कर उनके नम्बर उतारता था। यार्ड के दफ्तर में हर आने जाने वाली गाड़ी का रोजनामचा हाथ से भर जाता था। वैगनों का आदानप्रदान जोड़ा जाता था। हर आठ घण्टे की शिफ्ट में उसकी समरी बनती थी। इसी तरह ट्रेनों के आने जाने का हिसाब गाड़ी नियन्त्रक हाथ से जोड़ते थे।

मैने इलेक्ट्रानिक्स इन्जीनियरिंग पढ़ी थी अपने एकेडमिक लाइफ में। पर यहां मैने जल्दी जल्दी पूरा प्रयास कर वह दिमाग से इरेज़ कर आठवीं दर्जे का जोड़-बाकी-गुणा-भाग री-फ्रेश किया। उससे ज्यादा का ज्ञान ट्रेन चलाने में काउण्टर प्रोडक्टिव था।

हर रोज इतना अधिक डाटा (आंकड़े) से वास्ता पड़ता था (और अब भी पड़ता है) कि डाटा के प्रति सारी श्रद्धा वाष्पीकृत होने में ज्यादा समय नहीं लगा था मुझे।

 बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?



उस जमाने में डाटा को लेकर मन में विचार बनता था कि जितनी वर्जिनिटी की अपेक्षा एक प्रॉस्टीट्यूट से की जा सकती है, उतनी डाटा से करनी चाहिये। पर उस डाटा से भी जितने काम के मैनेजमेण्ट निर्णय हम ले पाते थे, वह अपने आप में अद्भुत था।

अब समय बदल गया है। ट्रेन रनिंग के सारे आंकड़े रीयल टाइम बनते हैं। उनमें हेर फेर करना बहुत कठिन काम है - और उसके लिये जिस स्तर के आर्ट की जरूरत होती है, वह आठवीं दर्जे के गणित की बदौलत नहीं आ सकता। उससे ज्यादा की अपनी केपेबिलिटी नहीं बची। :sad:

[caption id="attachment_6027" align="alignleft" width="800"] माल यातायात की सूचना प्रणाली का पोर्टल। यह इतना ज्यादा डाटा (सूचना के आंकड़े - कच्चे और परिष्कृत/प्रॉसेस्ड) देता है कि सिर भन्ना जाये! :-)[/caption]

बहुत सारा और बहुत एक्यूरेट डाटा हमसे बहुत कुछ चूस रहा है। यह बेहतर मैनेजर तो नहीं ही बना रहा। और नेतृत्व की भूत काल की ब्रिलियेंस भी अब नजर नहीं आती। शिट! आई एम मोर इनफॉर्म्ड, बट एम आई मोर अवेयर? एम आई मोर कॉन्फीडेण्ट ऑफ माईसेल्फ?

मुझे मालुम है रेलवे में लोग, सिर्फ तर्क देने की गरज से मेरी यह सोच डिनाउंस करेंगे। और मेरा कहना आउट राइट खारिज कर दिया जायेगा। पर बेहतर बात यह है कि रेलवे वाले मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ते@।

[@ - रेलवे में तो कोई यह मानता/जानता ही नहीं कि मैं हिन्दी में लिखता हूं! किसी हिन्दी के समारोह में मुझे नहीं बुलाया जाता। जब लोग हिन्दी के फंक्शन में समोसा-पेस्ट्री उडाते अपने ईनाम के लिफाफे जेब में ठूंस रहे होते हैं, मैं अपने आठवीं दर्जे के गणित से गाड़ियां गिन रहा होता हूं, अपने चैम्बर में! :lol: ]

मेरी सारी नौकरी डाटा से काम करते बीत गयी है - अब तक। पर डाटा के प्रति अश्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती गयी है!


Friday, August 3, 2012

ज़कात कैल्क्युलेटर

मेरे सहकर्मी श्री मंसूर अहमद आजकल रोज़ा रख रहे हैँ। इस रमज़ान के महीने में उपवास का प्रावधान है इस्लाम में - उपवास यानी रोज़ा। सुबह से शाम तक भोजन, जल/पेय और मैथुन से किनारा करने का व्रत।

श्री मंसूर अहमद मेरे डिप्युटी चीफ ऑपरेशंस मैनेजर हैं जो माल यातायात का परिचालन देखते हैं। अगर मैं ब्लॉग/ट्विटर/फेसबुक पर अपनी उपस्थिति बना सकता हूं, तो उसका कारण है कि ट्रेन परिचालन का बड़ा हिस्सा वे संभाल लेते हैं।

[caption id="attachment_5994" align="aligncenter" width="300"] श्री मंसूर अहमद, उप मुख्य परिचालन प्रबन्धक, उत्तर-मध्य रेलवे, इलाहाबाद।[/caption]

कल श्री मंसूर ने सवेरे की मण्डलों से की जाने वाली कॉंफ्रेंस के बाद यह बताया कि इस्लाम में ज़कात का नियम है।

ज़कात अर्थात जरूरतमन्दों को दान देने का इस्लाम का तीसरा महत्वपूर्ण खम्भा [1]। इसमें आत्मशुद्धि और आत्म-उन्नति दोनो निहित हैं। जैसे एक पौधे को अगर छांटा जाये तो वह स्वस्थ रहता है और जल्दी वृद्धि करता है, उसी प्रकार ज़कात (दान) दे कर व्यक्ति अपनी आत्मिक उन्नति करता है।

ज़कात में नियम है कि व्यक्ति अपनी सम्पदा (आय नहीं, सम्पदा) का 2.5% जरूरतमन्द लोगों को देता है। यह गणना करने के लिये रमज़ान का एक दिन वह नियत कर लेता है - मसलन रमज़ान का पहला या दसवां या बीसवां दिन। उस दिन के आधार पर ज़कात के लिये नियत राशि की गणना करने के लिये वैसे ही स्प्रेड-शीड वाला कैल्क्युलेटर उपलब्ध है, जैसा आयकर की गणना करने के लिये इनकम-टेक्स विभाग उपलब्ध कराता है! मसलन आप निम्न लिंक को क्लिक कर यह केल्क्युलेटर डाउनलोड कर देख सकते हैं। वहां ज़कात में गणना के लिये आने वाले मुद्दे आपको स्पष्ट हो जायेंगे। लिंक है -

 ज़कात कैल्क्युलेटर की नेट पर उपलब्ध स्प्रेड-शीट

मैने आपकी सुविधा के लिये यह पन्ना नीचे प्रस्तुत भी कर दिया है। आप देख सकते हैं कि इसमें व्यक्ति के पास उपलब्ध सोना, चान्दी, जवाहरात, नकद, बैंक बैलेंस, शेयर, व्यवसायिक जमीन आदि के मद हैं। इसमें रिहायश के लिये मकान (या अव्यवसायिक जमीन) नहीं आता।

श्री मंसूर ने मुझे बताया कि व्यक्ति, जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या 52 तोला चान्दी के बराबर या अधिक हैसियत है, उसे ज़कात देना चाहिये। लोग सामान्यत: अपने आकलन के अनुसार मोटे तौर पर ज़कात की रकम का आकलन कर दान देते हैं; पर यह सही सही भी आंका जा सकता है केल्क्युलेटर से।


ज़कात देने के बाद उसका दिखावा/आडम्बर की सख्त मनाही है - नेकी कर दरिया में डाल जैसी बात है। यह धारणा भी मुझे पसन्द आयी। [आपके पास अन्य प्रश्न हों तो मैं श्री मंसूर अहमद से पूछ कर जवाब देने का यत्न करूंगा।]

आप ज़कात कैल्क्युलेटर का पन्ना नीचे स्क्रॉल करें!

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[1] इस्लाम के पांच महत्वपूर्ण स्तम्भ - 

  1. श्रद्धा और खुदा के एक होने और पैगम्बर मुहम्मद के उनके अन्तिम पैगम्बर होने में विश्वास।

  2. नित्य नमाज़ की प्रणाली।

  3. गरीब और जरूरतमन्द लोगों को ज़कात या दान देने का नियम तथा उनके प्रति सहानुभूति।

  4. उपवास के माध्यम से आत्मशुद्धि।

  5. जो शरीर से सक्षम हैं, का मक्का की तीर्थ यात्रा।


[उक्त शब्द/अनुवाद मेरा है, अत: सम्भव है कि कहीं कहीं इस्लाम के मूल आशय के साथ पूरा मेल न खाता हो।]


Thursday, August 2, 2012

शिवकुटी का मेला

[caption id="attachment_5965" align="alignleft" width="300"] आलू-दम का खोमचा सवेरे सवेरे लग गया था।[/caption]

शिवकुटी का मेला श्रावण शुक्ला अष्टमी को होता है। इस साल यह २६ जुलाई को था।

श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरयो शरीर - अर्थात तुलसी जयन्ती के अगले दिन।  तुलसी जयन्ती से इस मेले का कोई लेना देना नहीं लगता। शायद कोटेश्वर महादेव मन्दिर मे शिवलिंग के पीछे विराजमान देवी जी से लेना देना हो, जिनके लिये अष्टमी को यह मेला बनाया गया हो। पर अष्टमी को सवेरे देखा तो मन्दिर पर अखण्ड रामचरितमानस पाठ चलरहा था, जो पिछले दिन प्रारम्भ हुआ था और जिसका समापन नजदीक था। एक ओर यह मानस पाठ चल रहा था, दूसरी ओर मेला पर दुकान लगाने वाले तैय्यारी कर रहे थे।

आलू दम का खोमचा लगाने वाला सवेरे ही तैनात हो गया था। आलू निश्चय ही कल उबाले रहे होंगे। बरसात के सेलन भरे मौसम में अगर गरमी और उमस बढ़ी तो देर शाम तक यह आलू दम खाने लायक नहीं बचेगा। पर यह भी तय है कि खोमचे वाला अपना समान जरूर से पूरा बेच पाने में सफल होगा। भीड़ मेले में इतनी होती है कि – रज होई जाई पसान पोआरे (पत्थर फेंको तो भीड़ में रेत बन जाये)। उस भीड़ में सब बिक जायेगा।

शिवकुटी का मेला - सन २००८ की पुरानी पोस्ट। 


एक दुकानदार जमीन पर किताबें और चित्र सजा रहा था। मेंहदी उकेरने की चित्र वाली किताबे भी थी उनमें। औरतें वह खरीदती हैं, जरूर पर मेंहदी लगवाती किसी अनुभवी उकेरने वाली से हैं। ये किताबें सिर्फ उनकी कल्पना को पोषित करते होंगे।

एक नानखटाई, मिठाई, अनरसा, सोनपापड़ी, घेवर वाले की दुकान – ठेला जम गया था सवेरे सवेरे। कड़ाही गरमाने की तैय्यारी हो रही थी। यह दुकान अच्छी बिक्री करने वाली है – शर्तिया!

[caption id="attachment_5971" align="aligncenter" width="800"] मिठाई, अनरसा, नानखटाई की दुकान।[/caption]

खिलौने, चश्मा, बांसुरी, गुब्बारा वाला अपना सामान एक डण्डे पर लटका चुका था। सस्ता सामान। वे माता पिता, जो पैसा कम खर्च कर काम चलाना चाहेंगे, बच्चों को इसी दुकान के सामान से बहलायेंगे। एक अन्य दुकानदार इसी तरह का सामान तिरपाल लगा कर उसके नीचे सजा रहा था।

नगरपालिका के कर्मचारी थे जो चूने की लकीर बिछा रहे थे। नगरपालिका, पुलीस, बिजली और पानी वाले अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करते हैं। एक बारगी तो लगता है कि वास्तव में बहुत कर्मठ लोग हैं ये जो मेला को सफल बनाने के लिये हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं। पर थोड़ा तह में जायें तो पायेंगे कि मेला भी उन्हे भरपूर देता है।

एक चाट बेचने वाली दुकान के आदमी और बिजली वाले के बीच यह संवाद सुनें:

केतना लाइट हईं (कितनी लाइट हैं?)


अब तीन लिख लें। (सात आठ सी.एफ.एल. आप गिन ही सकते हैं।)


(मन्द आवाज में) देख्यअ, पईसा और केहू के जिनि देह्यअ। (देखना पैसा किसी और को मत दे देना। अर्थात यह बिजली कर्मी पैसा खुद लेना चाहता है। ... हर आदमी मेला से कमाई झटकने को आतुर!)


सवेरे मैने मेले की तैय्यारी भर देखी। शाम ओ दफ्तर से आने में देर हो गयी (रास्ते में ट्रेफिक जाम लगा था)। अत: भीड़ भाड़ वाला मेला नहीं देख पाया। घर पर ही एक दुकान से मंगाई आलू टिक्की खाने को मिल गयी। अगले दिन सवेरे जब घूमने के लिये निकले तो दुकानें सिमट गयी थीं। दोना-पत्तल चाटने सूअर घूम रहे थे। एक बड़े स्टेज (जो एक ट्रक पर था) बहुत से लोग सो रहे थे।

पर साढ़े नौ बजे दफ्तर जाते समय पाया तो करीब पच्चीस तीस सफाई कर्मी (अधिकांश स्त्रियां) सड़क साफ करने में लगे थे। शाम तक सब कुछ साफ सुथरा (यथावत) दिखा।

मेला अच्छे से सम्पन्न हो गया था![slideshow]