Friday, August 31, 2012

विण्ढ़म प्रपात के आस पास

सुरेश विश्वकर्मा के मोबाइल पर फोन आते ही रिंगटोन में एक महिला अपने किसी फिल्मी पैरोडी के गायन में आश्वस्त करने लगती थी कि भोलेनाथ ने जैसे अनेकानेक लोगों का उद्धार किया है; उसी तरह तुम्हारा भी करेंगे। समस्या यह थी कि यह उद्धार उद्घोषणा बहुत जल्दी जल्दी होती थी। वह मेरे वाहन का ड्राइवर था और उसका मालिक उसके मूवमेण्ट के बारे में जब तब पूछता रहता था। इतनी बार फोन करने के स्थान पर अगर वाहन पर ट्रैकिंग डिवाइस लगा देता तो शायद कम खर्चा होता! शायद। मुझे उस डिवाइस के लगाने का अर्थशास्त्र नहीं मालुम! पर मुझे सुरेश विश्वकर्मा पसन्द आ रहा था बतौर वाहन चालक। और बार बार शंकर जी का उद्धार का आश्वासन घूमने में विघ्न ही डाल रहा था। ऑफ्टर ऑल, यह तो तय है ही कि भोलेनाथ उद्धार करेंगें ही - उसे बार बार री-इटरेट क्या करना।

खैर, सुरेश विश्वकर्मा के वाहन में हम विण्ढ़म फॉल्स देखने को निकले थे।

[caption id="attachment_6107" align="alignright" width="800"] विण्ढ़म फॉल्स का एक दृष्य[/caption]

विण्ढ़म फॉल में पर्याप्त पानी था। किशोर वय के आठ दस लड़के नहा रहे थे। उनके बीच एक जींस पहने लड़की पानी में इधर उधर चल रही थी। उन्ही के गोल की थी। पर इतने सारे लड़कों के बीच एक लड़की अटपटी लग रही थी। यूपोरियन वातावरण मेँ यह खतरनाक की श्रेणी में आ जाता है। पर वे किशोर प्रसन्न थे, लड़की प्रसन्न थी। हम काहे दुबरायें? उसके बारे में सोचना झटक दिया।

रमणीय स्थान है विण्ढ़म प्रपात। पानी बहुत ऊंचाई से नहीं गिरता। पर कई चरणों में उतरता है - मानो घुमावदार सीढ़ियां उतर रहा हो। नदी - या बरसाती नदी/नाला - स्वयं भी घुमावदार है। कहां से आती है और कहां जाती है? गंगा नदी में जाता है पानी उतरने के बाद या शोणभद्र में? मेरे मन के इन प्रश्नों का जवाब वहां के पिकनिकार्थी नहीं जानते थे। लोग रमणीय स्थान पर घूमने आते हैं तो इस तरह के प्रश्न उन्हें नहीं कोंचते। इस तरह के प्रश्न शायद सामान्यत: कोंचते ही नहीं। यह तो मुझे बाद में पता चला कि कोई अपर खजूरी डैम है, जिससे पानी निकल कर बरसाती नदी के रूप में विण्ढ़म फॉल में आता है और वहां से लोअर खजूरी में जाता है। लोअर खजूरी में आगे भी पिकनिक स्थल हैं। अंतत: जल गंगा नदी में मिल जाता है।

[caption id="attachment_6113" align="alignright" width="225"] "सरकारी नौकरी के लिये सम्पर्क करें - मोबाइल नम्बर 93---------। इस वातावरण में भी बेरोजगारी और सरकारी नौकरी की अहमियत का अहसास! हुंह![/caption]

रमणीय स्थल था, पिकनिकार्थी थे और बावजूद इसके कि पत्थरों पर पेण्ट किया गया था कि कृपया प्लास्टिक का कचरा न फैलायें, थर्मोकोल और प्लास्टिक की प्लेटें, ग्लास और पन्नियों का कचरा इधर उधर बिखरा था। किसी भी दर्शनीय स्थल का कचरा कैसे किया जाता है, उसमें आम भारतीय पिकनिकार्थी की पी.एच.डी. है।

इतने रमणीय स्थल पर धरती पर उतारती एक इबारत किसी ने पत्थर पर उकेर दी थी - "सरकारी नौकरी के लिये सम्पर्क करें - मोबाइल नम्बर 93---------। इस वातावरण में भी बेरोजगारी और सरकारी नौकरी की अहमियत का अहसास! हुंह!

एक सज्जन दिखे। नहाने के बाद टर्किश टॉवल बान्धे थे। गले में एक मोटी सोने की चेन। मुंह में पान या सुरती। उनकी पत्नी और दो परिचारिका जैसी महिलायें साथ थीं। वे उपले की गोहरी जला कर उसपर एक  स्टील की पतीली में अदहन चढ़ा रहे थे। मैने अनुरोध किया - एक फोटो ले लूं?

[caption id="attachment_6108" align="alignright" width="800"] पिकनिक मनाने आये बनारस/सारनाथ के दम्पति। भोजन का इंतजाम हो रहा है![/caption]

वे सहर्ष हामी भर गये। एक हल्के से प्रश्न के जवाब में शुरू हो गये - बनारस से आये हैं यहां सैर करने। इस पतीली में दाल बनेगी। प्रोग्राम है चावल, चोखा और बाटी बनाने का। अगले तीन घण्टे यहां बिताने हैं। भोजन की सब सामग्री तो यहीं स्थानीय खरीदी है, पर उपले अपने साथ बनारस/सारनाथ से ही ले कर आये हैं। यहां वालों को ढ़ंग की उपरी बनाना नहीं आता!

विशुद्ध रसिक जीव! सैर में पूरा रस लेते दिखे। इस किच किच के समय में जहां पूरा देश भ्रष्टाचार पर चर्चा में आकण्ठ डूबा है, वहां इनको यह तक सूझ रहा है कि सौ किलोमीटर दूर सारनाथ से पिकनिक मनाते जाते समय घर से उपले भी ले चलें! एक शुद्ध बनारसी जीव के दर्शन हुये! सिल लोढ़ा और भांग होती तो सीन पूरा हो गया होता!

विंढम फॉल्स के वापस लौटते समय पैदल की दूरी पर एक ग्रामीण पाठशाला से वापस लौटते बच्चे दिखे। सभी स्कूल की यूनीफार्म पहने थे। सभी के पास बस्ते थे। पथरीली जमीन पर गर्मी में वे चल रहे थे पर उनमें से दो तिहाई के पैर में चप्पल या जूते नहीं थे। सुरेश विश्वकर्मा ने बताया कि स्कूल में यूनीफार्म बस्ता और किताबें फ्री मिलती हैं। दोपहर का भोजन भी मिलता है। इसलिये सभी स्कूल आ रहे हैं, यूनीफार्म भी पहने हैं और बस्ता भी लिये हैं। फ्री में जूता नहीं मिलता, सो नंगे पांव आ रहे हैं।

कुलमिला कर गरीबी है और स्कूल उस गरीबी को कुछ मरहम लगाता है - अत: स्कूल आबाद है। यही सही। बस सरकार जूते या चप्पल भी देने लगे तो नंगे पांव पत्थर पर चलने की मजबूरी भी खत्म हो जाये।

ओह! मैने बहुत ज्यादा ही लिख दिया! इतनी बड़ी पोस्टें लिखने लगा तो कहीं लेखक न मान लिया जाऊं, ब्लॉगर के स्थान पर! :lol:

27 comments:

दीपक बाबा said...

@पिकनिकार्थी

शब्द जच्च गया, कॉपी राईट तो नहीं है :) श्याद कभी प्रयोग करू और आपका नाम देना भूल जाऊं. :)

@ चावल, चोखा और बाटी
थोड़ी देर और रुकते तो शायद चोखा और बाटी के लिए न्योता आ सकता था, :)

सतीश पंचम said...

बढ़िया रपट रही।

लंबी पोस्ट लिखने से लेखक मान लिये जायेंगे ?

वैसे ब्लॉगिंग में चवनीया छाप से लेकर अठनीया बालम टाईप लिखारे हैं लेकिन खुद को नोबलहे कम नहीं समझते :-)

इसलिये आशंकित होना स्वाभाविक है :)

अपन तो मानसिक हलचल को इसी रूप में पढ़कर मस्त हैं....चाहे लेखक लिखे या ब्लॉगर.

Dineshrai Dwivedi said...

दो बार से आप के ब्लाग पर टिप्पणी नहीं जा रही है। देखता हूँ यह जा रही है या नहीं।

Dineshrai Dwivedi said...

हम वहाँ विण्डम फाल पर होते तो सिल-लोढा की कमी पूरी कर देते। ये सब हर पिकनिक स्पाट पर मिल जाते हैं। बस पास में विजया होनी चाहिए। बाकी चीजें तो भोजन सामग्री से मारी जा सकती हैं।
हाँ, लेखक कहलाने का खतरा तो सर पर आ ही गया है। कुछ कीजिए। वर्ना मुफ्त में शहीद हो लेंगे। फिर कोई आप को मेल करेगा। आप की पुस्तकें कहाँ से मिलेंगी? दो-चार खरीदना चाहता हूँ। जवाब तैयार कर लीजिएगा।

neeraj1950 said...

आपकी पोस्ट की भाषा और कथ्य का जवाब नहीं...काफी अच्छा लग रहा है ये फाल...आप नहाये या यूँ ही सूखे निकल आये वहां से...हमारी माध्यम वर्गीय शिक्षा प्रणाली और उस से विकसित सोच हमें ऐसी जगहों पर नहाने से मना करती है...आप ब्लोगर कम लेखक ज्यादा हैं...क्या ये बात आपको नहीं मालूम...

नीरज

प्रवीण पाण्डेय said...

देश में दाँय मची है, हमें भी वहाँ होना था।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

बड़ी खूबसूरत जगह मालूम पड़ रही है। अगर सरकार (या तथाकथित राष्ट्रवादियों को) को नौनिहालों के नंगे पाँव के लिये जूता मिल जायेगा तो धरती पर स्वर्ग ही उतर आयेगा।

sanjay @ mo sam kaun.....? said...

अरे सरकार, हम तो सुने हैं की ब्लॉगर लम्पट होता है और आप हैं कि लेखक के स्थान पर ब्लॉगर कहलाने को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं:)
गुलाब जामुन भी आसपास के ही हैं न मशहूर, ताजे ताजे ट्राई किये क्या?

Vivek Rastogi (@vivekrastogi) said...

झरने का अपना ही अलग आनंद है, और आपकी रपट ने तो संपूर्ण झांकी सामने रख दी, वैसे ऐसे रसिक लोग हमारे उज्जैन में भी पाये जाते हैं, जो दाल बाफ़ले और चूरमा का आनंद लेते हैं वो भी ध्रर्मराज के मंदिर में (यह एक प्रसिद्ध पुरातनकालीन मंदिर उज्जैन में है )

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

जब-जब इलाहाबाद में रहना हुआ विंढम फाल घूम आने की योजना बनाता रहा लेकिन सफलता नहीं मिली।
आपकी रपट ने उत्सुकता और बढ़ा दी।

अरविन्द मिश्र said...

@इतनी बड़ी पोस्टें लिखने लगा तो कहीं लेखक न मान लिया जाऊं, ब्लॉगर के स्थान पर!
चलिए कुछ तो सद्य संपन्न ब्लॉगर मेनिफेस्टो का पालन किया आपने :-)
और विल्ड्हम का पानी पिया आपने अमृत है अमृत.....मैंने उसके बाटलिंग की सोच रखी है ..
दाब के बाटी चोखा खाईये और यहाँ का ऊपरी चट्टानों से रिसता पानी पीजिये -हाजमा दुरुस्त ..लोग बोतलों में भर भर के ले जाते हैं !

Gyandutt Pandey said...

Blogger is a fiercely independent personality. He is a blogger for he is not in ghetto!

Gyandutt Pandey said...

मुझे भी लगा कि मिल सकता था न्योता। मेरे पास अगर समय होता तो शायद प्रयास भी करता आगे मैत्री का! :)

Gyandutt Pandey said...

ब्लॉगर और लेखक में मूलभूत अन्तर है। विधा का है ही, व्यक्ति की मानसिकता का भी है। बहुत से लोग इस अन्तर को नहीं जानते अथवा ब्लॉगिंग को एक लेखकीय प्लेटफॉर्म मानते हैं! वे या तो नहीं समझते, या फिर न ब्लॉगर हैं, न लेखक; बस छपास के मरीज हैं! :-)

Gyandutt Pandey said...

हा हा! वैसे मेरे ब्लॉग पर जितनी सामग्री है, उसमें दो-चार किताब कटपेस्टिया तरीके से ठेली जा सकती हैं! उन पर अपना नाम नहीं देना चाहूंगा मैं!

असल में लेखक होने में जितनी प्रतिबद्धता और मेहनत चाहिये, उतनी करने का न समय है, न मन! :-)

Gyandutt Pandey said...

धन्यवाद! लेखक नहीं हूं, पर बतौर ब्लॉगर कभी कभी अपने पर आत्म-मुग्ध होने की गलती करता हूं (झूठ काहे कहूं!)।

Gyandutt Pandey said...

आओ! आओ!

Gyandutt Pandey said...

हां, जब इतना दे रही है सरकार तो जूता दे ही सकती है।

Gyandutt Pandey said...

लेखक होने में ज्यादा कमिटमेण्ट चाहिये। :-(
कई ब्लॉगर लम्पट हैं। पर यह वैसे ही है जैसे कई लेखक/आदमी/बाभन/बनिया/कोई समूह लम्पट हैं। लम्पटई पर किसी का वर्चस्व नहीं! :-)
बरकछा के गुलाब जामुन वास्तव में अच्छे हैं। मैने अपने मधुमेह को ध्यान में रख कर उस तरफ अपने को जाने से रोका।

Gyandutt Pandey said...

अच्छा? उज्जैन काफी घूमा हूं, पर धर्मराज मन्दिर नहीं गया! :-(

Gyandutt Pandey said...

जरूर चक्कर लगाइये!

रवि शंकर प्रसाद said...

इबादत (प्रार्थना) से बदलकर इबारत (लिखावट) कर लें। धन्यवाद!

Gyandutt Pandey said...

बदल दिया है, जी! धन्यवाद।

खजूरी, खड़ंजा, झिंगुरा और दद्दू | मानसिक हलचल – halchal.org said...

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nivedita srivastava said...

विंढम फॉल्स.... बचपन की याद आ गयी . हम अक्सर वहां जाते थे ..-:)

Asha Joglekar said...

आपकी बदौलत विंढम फॉल्स के दर्शन हो गये ।दाल बाटी तो पता है पर ये चोखा क्या होता है । वैसे हमारे देश में विविध चरित्र मिल जाते हैं । लेखक बनिये पर ब्लॉगर बने रहिये ।

समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार" said...

जब ससुराल जाओ...तो ससुरा बस, उनका इन्तजाम...बिन्ढम चलो पिकनिक...और वहाँ जगह जगह मल विसर्जन को लाँधते ....पैर बचाते...नाक दबाते किसी तरह चार घंटे बिता...घर आकर ही पिकनिक पर गया खाना खाते...कनाडा आने का सबसे बड़ा फायदा...फॉल पर जाने से बचे हैं...बाकी माई के दर्शन...मन से कर ही लेते हैं...मैहर भी मौके बेमौके हो लेते हैं...