Monday, September 3, 2012

खजूरी, खड़ंजा, झिंगुरा और दद्दू

शुरू से शुरू करता हूं। मिर्जापुर रेस्ट हाउस से जाना था मुझे झिंगुरा स्टेशन। मिर्जापुर से सीधे रास्ता है नेशनल हाई-वे के माध्यम से – ऐसा मुझे बताया गया। पर यह भी बताया गया कि वह रास्ता बन्द है। अत: डी-टूर हो कर जाना होगा वाया बरकछा। सवेरे मैने विण्ढ़म फॉल देखा था। यह नहीं मालुम था कि दोपहर में भी विध्य की पहाड़ियों के ऊपर नीचे घूमते हुये उसी जल स्त्रोत से गुजरूंगा, जो विण्ढ़म फॉल से सम्बन्धित है।
अपर खजूरी डैम से जो पानी छोड़ा जाता है, वह विण्ढ़म फॉल से होता हुआ लोअर खजूरी डैम मे‍ जाता है। खजूरी नदी अन्तत: गंगा नदी में जा कर मिलती है। सिंचाई विभाग ने ये दोनो डैम बनाये हैं।

[caption id="attachment_6124" align="aligncenter" width="800"] खजूरी डैम और नदी का अंदाज से बनाया मानचित्र।[/caption]

अपर खजूरी डैम मिर्जापुर से २० किलोमीटर दक्षिण में कोटवां के पास पाथेरा गांव में है। इसमें ६०० क्यूबिक मीटर जल स्टोर किया जा सकता है। अस्सी वर्ग किलोमीटर का इसका कैचमेण्ट एरिया है।

लोअर खजूरी डैम का कैचमेण्ट एरिया लगभग ४४ वर्ग किलोमीटर का है। यह मिर्जापुर से १० किलोमीटर दक्षिण में है।

मैने विकीमैपिया पर अपर खजूरी, विण्ढ़म फॉल, लोअर खजूरी से बहती खजूरी नदी के सर्पिल मार्ग को ट्रेस किया। अन्तत: यह धारा मिर्जापुर के १५-२० किलोमीटर पूर्व में गंगा नदी में जा कर मिलती है। कोई स्थान है छतहवन – वहां पर।

झिंगुरा जाने के लिये बरकछा पुलीस चौकी से रॉबर्ट्सगंज जाने वाले रास्ते को छोड़ कर एक दूसरा मार्ग पकड़ा जो लोअर खजूरी डैम के बगल से गुजरता है। यह रास्ता ऊंचाई-नीचाई से सर्पिलाकार घूमता जाता है। बायीं ओर लोअर खजूरी जलाशय था और आगे जहां जलाशय खत्म होता है, वहां नदी को पार करने के लिये एक पत्थर के खड़ंजे का पुल बना था। उस जगह पर कई टोलियों में लोग बिखरे आमोद-प्रमोद में व्यस्त थे। एक पेड़ के नीचे दस पन्द्रह स्त्री-पुरुषों की टोली भोजन बनाने करने में लगी थी। उनके हंसी मजाक के बीच हम लोगों ने अपना वाहन रोक कर पूछा – ए भाई साहब, इस जगह को क्या कहते हैं? उत्तर मिला – खड़ंजा। हमें लगा कि शायद आमोद-प्रमोद रत उस सज्जन ने सड़क की दशा के आधार पर शायद मजाक में कहा है यह; पर एक साइकल पर आते ग्रामीण से क्रॉस चेक करने पर पता चला कि सही में जगह का नाम खड़ंजा ही है।

[caption id="attachment_6123" align="aligncenter" width="800"] लोअर खजूरी डैम का जलाशय।[/caption]

खड़ंजा वैसी ही रमणीय जगह है पिकनिकार्थी के लिये, जैसे विण्ढ़म प्रपात। इस जगह पर भीड़ न होने से विण्ढ़म फॉल जैसी गन्दगी भी न थी। बाद में मुझे पता चला कि अक्तूबर-नवम्बर के मौसम में इस स्थान पर समय बिताना ज्यादा आनन्ददायक हो सकता है, जब यहां पानी भी पर्याप्त होता है और गर्मी/उमस भी नहीं होती।

[caption id="attachment_6119" align="aligncenter" width="800"] खड़ंजा का रमणीय दृष्य[/caption]

लगता है, मिर्जापुर के पास विंध्य की उपत्यकाओं में कई रमणीय स्थल हैं, जिनमें वर्षा और उसके बाद भ्रमण किया जा सकता है। पर जिन्दगी में कितनी चीजें आनन्द को केन्द्रित कर प्लान की जा सकती हैं? जो जैसा सामने आये, वैसा ले कर चला जाये, बस! :sad:

[caption id="attachment_6120" align="aligncenter" width="800"] झिंगुरा स्टेशन पर हैंडपम्प पर पानी पीते बच्चे।[/caption]

झिंगुरा स्टेशन मिर्जापुर से अगला रेलवे स्टेशन है मुगलसराय की ओर। मुझे याद आता है सन १९६८ की वह यात्रा जब मैं जोधपुर में आठवीं-नवीं का छात्र था। जोधपुर से बनारस और बनारस से झिंगुरा की यात्रा की थी मैने। झिंगुरा में मेरे बाबा श्री सतीश चन्द्र पाण्डेय स्टेशन मास्टर थे। चव्वालीस साल बाद उसी स्टेशन पर रेलवे के एक अफसर के रूप में आना एक अतीत में उतरने जैसा था। स्टेशन लगभग वैसा ही था, जैसा सन अढ़सठ में। सिगनलिंग व्यवस्था बदल गयी है – पर चव्वालीस साल पहले मैने सिगनलिंग व्यवस्था तो देखी न थी। उस समय तो मकान, सड़क और इन्दारा (कुंआ) देखे थे। इन्दारा अभी भी था, पर परित्यक्त। घरों में कोई रहता नहीं। स्टेशन मास्टर लोग मिर्जापुर से आते जाते हैं। कह रहे थे कि रेलगाड़ी से नहीं, मोटरसाइकल से आते जाते हैं। अगर वैसा करते हैं तो पहले की अपेक्षा काफी सम्पन्न हो गये हैं वे लोग!

वापसी मे ध्यान से देखा सड़क के किनारे बने मकानों को। लगभग पचास प्रतिशत मकान, गांव में भी पक्के थे – पक्की दीवारों वाले। कुछ में पटिया की छत थी और कुछ में खपरैल की। बाकी मड़ईयां थीं। सरपत का बहुतायत से उपयोग हुआ था उन्हे बनाने में। एक जगह एक मचान के पास वाहन रोक कर उसके चित्र लेने लगा। पास में हैण्डपम्प पर बच्चे पानी पी रहे थे। उनसे पूछा – क्या उपयोग है मचान का?

[caption id="attachment_6122" align="aligncenter" width="800"] दद्दू का सड़क के किनारे मचान। दद्दू गोरू चराने गये हैं।[/caption]

हम नाहीं जानित। (मुझे नहीं मालुम) एक लड़की ने कहा। फिर शायद उसने सोचा कि उत्तर सटीक नहीं था तो बोली – ई दद्दू क अहई (यह दद्दू का है)।

अच्छा, तब दद्दू बतायेंगे। कहां हैं दद्दू?

दद्दू नाहीं हयेन। गोरू चरावई ग होईहीं। (दद्दू नहीं हैं। पशु चराने गये होंगे)।

वाहन के ड्राइवर सुरेश विश्वकर्मा ने बताया कि मचान का प्रयोग लोग जंगली जानवरों से बचाव के लिये नहीं करते। यहां जंगली जानवर अब नहीं हैं। पहले शायद बिगवा (लकडबग्घा) आते थे। अब तो मचान का प्रयोग कोग रात में बरसात के समय सांप बिच्छू से बचाव के लिये करते हैं। दद्दू नहीं मिले तो सुरेश का यह कहना ही मेरी प्रश्नावली का समाधान कर गया। आगे रास्ते में एक अधेड़ व्यक्ति भेड़ें चराते नजर आया। शायद दद्दू रहे हों! :lol:

देहात हरा भरा था। लोग बहुत गरीब नहीं लग रहे थे। यद्यपि बहुत सम्पन्न भी नहीं थे। लोगों को मैने खेतों पर नहीं पाया। अधिकतर लोग ईंधन के प्रबन्धन में व्यस्त दिखे – या तो उपलों के निर्माण/भण्डारण में या साइकल पर लकड़ी के गठ्ठर लाते ले जाते। …. देहात में अनाज इंधन और जल का प्रबंधन अधिकाधिक समय ले लेता है आदमी का।

[caption id="attachment_6121" align="aligncenter" width="800"] क्षेत्र में ईंधन का प्रबन्धन एक मुख्य कार्य है।[/caption]

शाम के समय मैं काम और घूमने के समांग मिश्रण वाला दिन बीतने पर बहुत प्रसन्न था। ऐसी प्रसन्नता यदा कदा ही होती है!

19 comments:

दीपक बाबा said...

मचान पर एक रात के लिए रुका जा सकता है.... रोमांचक.

Kajal Kumar said...

शहरों से दूर भागमभाग से अलग, शांत वातावरण में वास्‍तव में ही अच्‍छा लगता है

सतीश चंद्र सत्यार्थी said...

आप फोटू जोरदार खेंचते हैं... ;)

सतीश पंचम said...

माहौल को देखते-पढ़ते हुए बहुत नीमन लगा ।

indowaves said...

चलिए ज्ञानदत्त जी आप लगभग मेरे गाँव तक हो आये..झिन्गुरा के आगे पहाडा स्टेशन पड़ता है. .वही पे मेरा गाँव है..सो आप समझ सकते है कि आपके हिंचे फोटू मेरे अपने से लगे..वैसे आपने कुआं के लिए इन्दारा शब्द का प्रयोग किया है..इस बेल्ट में लोग इसे "इनारा" कहते है.चाहे तो क्रास चेक कर लीजियेगा :-) ..वैसे डैम के आसपास मै भी नहीं कभी घूमने गया पर फोटू देखकर मन हो उठा है..ये अलग बात है कि विन्ध्य क्षेत्र काफी रमणीय है..ये बात पता है मुझे है पर सिर्फ आनंद की खोज में ही हर बार ऐसे क्षेत्रो में नहीं पंहुचा जा सकता आपका ये मानना लगभग सही है..वैसे जब पैसेंजर/या मेल ट्रेन को रोक कर झिन्गुरा/डगमगपुर पे मालगाड़ी पास कराते है तब यात्री इसी हैण्ड पम्प पर पानी पी कर कर ट्रेन के संचालन को कोसते है :-)

-Arvind K.Pandey

http://indowaves.wordpress.com/

सतीश सक्सेना said...

झिन्गुरा पंहुच कर यकीनन आपको अच्छा लगा होगा !
ग्रामीण और दद्दू प्रकरण अच्छे लगे ...आपका आभार भाई जी !

Gyanendra said...

मैं भी बहुत खुश हूँ, आज बहुत दिनों बाद वो पढ़ने को मिला जिसका आनंद आपके ब्लॉग पर ही मिलता है.

Dineshrai Dwivedi said...

भारत में कोई जगह नहीं जिस के आसपास प्राकृतिक दर्शनीय स्थल न हो।

प्रवीण पाण्डेय said...

अभी तो ईँधन प्रबन्धन में ही आग लगी है...

Abhishek Ojha said...

बढ़िया :)

Vivek Rastogi (@vivekrastogi) said...

ऐसा वाला माहौल हम पहले गजरौला और गोहावर में महसूस करते थे, पर अब मामा लोग बड़ी जगह आ गये तो जाना बंद हो गया ।

dhirusingh said...

ओह परिवारवाद सिर्फ राजनीति में ही नहीं रेलवे में भी है .

Gyandutt Pandey said...

नहीं, परिवार ने मुझे कोई मदद नहीं की रेलवे में आने में!

Asha Joglekar said...

इंदारा या इनारा कुए के लिये नया शब्द पता चला । आपके लेक में हमेशा कुछ नयापन रहता है ।

समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार" said...

थोड़ा और नियमित लिखिये...अब तो सब धाम का जाम चल्ह चुके हैं...नशा कितना कहाँ है ..जान भी चुके हैं ...आ जाईये फिर २० ईयर ओल्ड बलेन्डेड पर.. डशक सम्मान भी निपट चुका ही है...तो १० ईयर ओल्ड रम से तो कम ...कम से कम हम न मानेंगे....

हम कोशिश में हैं नियमित होने की तमाम साजिशों के बाद भी वक्त की... :)

Vipul Sinha said...

पिकनिकार्थी :-)

सादगी को सलाम

Ranjana said...

हमारा भी आनंददायक सैर हो गया...

एक बार राबर्ट्सगंज से मिर्जापुर वाले रास्ते में बाढ़ के कारण बहुत बुरे फंसे थे हम...पर उस संकट के क्षणों में भी प्राकृतिक सुन्दरता ने ऐसा मुग्ध किया था कि संकट या दूसरी बातों को श्रम कर स्मरण करना पड़ रहा था...

sanjay aneja said...

विन्ध्य क्षेत्र अभी देखा नहीं है, लेकिन उन चुनिन्दा जगहों में से है जहाँ जाने की इच्छा है|
स्टेशन पर किसी पुराने स्टाफ ने पहचाना?

Gyandutt Pandey said...

पुराने थे ही नहीं! उस समय के लोग तो सब रिटायर हो गये होंगे।