Tuesday, September 18, 2012

ठहरी हुई नाव और सतरंगा मोरपाखी

यह एक उपन्यास है। औपन्यासिक कृति का पढ़ना सामान्यत: मेरे लिये श्रमसाध्य काम है। पर लगभग पौने दो साल पहले मैने श्रीमती निशि श्रीवास्तव का लिखा एक उपन्यास पढ़ा था - "कैसा था वह मन"। उस पुस्तक पर मैने एक पोस्ट भी लिखी थी - कैसा था वह मन - आप पढ़ कर देखें! अब उनका दूसरा उपन्यास पढ़ने को मिला तो यह जानने के लिये पढ़ गया कि उनके लेखन में कितनी एकरूपता है और कितनी विविधता।

एकरूपता और विविधता, दोनो मिले मुझे!
अब, ब्लॉग मेरा है तो पहले मैँ अपनी कह लूं। हम जैसे की मध्यवर्गीय मानसिकता में परिवार यह जोर देते हैं कि लड़का पढ़े-लिखे। पुस्तकों मेँ डूबा रहे। वह मुझे भी सिखाया गया। और मेरा व्यवहारिक पक्ष कमजोर रहा। रीति-रिवाज, लोक व्यवहार, कजरी, चैता, हरसू बरम की पूजा, मैय्या को रोट चढ़ाना, बुढ़वा मंगर का मेला, पापड़-वड़ी बनाना, मंगलगीत... ये सब मेरे लिये अबूझे लोक रहे - अबूझमाड़!

जब मैने सयास ब्लॉग लिखना प्रारम्भ किया और अपने आसपास घटित होने को अभिव्यक्त करने का विषय बनाया, तब इन सबकी ओर ध्यान गया। और बड़ी मेहनत से मैने चिंदी चिन्दी भर जानकारी जुटाई।

और निशि श्रीवास्तव जी का यह एक उपन्यास - "ठहरी हुई नाव और सतरंगा मोरपांखी" मेरी इस पक्ष की जानकारी को कई आयामों मेँ बढ़ाता है।

उपन्यास मेँ एक मध्यवित्त परिवार की सुन्दर सी लड़की की विश्वविद्यालय के एक रिसर्च स्कॉलर/प्रवक्ता से शादी होती है। लड़की अपने संस्कार और सुगढ़ता ले कर नये परिवार मेँ आती है। दहेज में और कुछ नहीं - एक स्मृति चिन्ह - लकड़ी की नाव है; जो वह आंगन में रख देती है। कभी समय मिलने पर उस पर एक मोर का चित्र उकेरती है। मोर को सतरंगा बनाना है - रंग भरना है उसको। यह काम हो नहीं पाता - टलता रहता है।

उपन्यास अंश:


1. मन्नो, ढोलकिया तो ले आओ। ...  आजी ने कहा, "पहिले पांच देवी के गीत गा लो।" (विवाह के पहले का रतजगा)
2. नव विवाहित युगल के बीच एक संवादहीन गठबन्धन का साक्षी थी आंगन में रत्ना के हाथों टिकाई गयी नये रंगों में सजी एक नाव तथा एक आम का पेड़ और इन दोनो के साथ पूरा दिन बिता कर शाम को विदा मांगते सूरज दादा।
3. ... अम्मा उडद की दाल फेंट चुकीं तो उसमें कद्दूकस किया हुआ सफेद कुम्हड़ा मिलाकर फेंटने लगीं। चारपाई पर बिछी धोती पर अम्मा की सधी हुई उंगली और अंगूठे के बीच से निकलती बड़ियां कतार में सजने लगीं...
4. आंगन के कोने में छोटी सी चादर ओढ़े खड़ी नाव पर बैठा मोर अपने आधे रंगे पैर लिये उस दिन भी खड़ा था। रंग का डिब्बा चुके अर्सा बीत गया था और रत्ना ने उसके बारे में सोचना भी बन्द कर दिया था।
5. घंटे की आवाज को सुनते ही सागर को अपने बचपन की कविता के बोल याद आये, 'घण्टा बोला चलो मदरसे, निकलो-निकलो-निकलो घर से'।

लेखिका (श्रीमती निशि श्रीवास्तव) के बारे में:


वे न तो कस्बाई जीवन में पलीं थीं, और न ही अवधी/भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी। जो लिखा है वह अपने गहन ऑब्जर्वेशन के आधार पर ही। मिर्जापुर-इलाहाबाद में उनका कुछ समय गुजरा था। उसी दौरान उन्होने यहां के लोक जीवन को देखा-समझा होगा।
उनके पास हिन्दी/हिन्दी साहित्य की कोई फॉर्मल सनद नहीं थी। वे जीव-रसायन में स्नातकोत्तर और सूक्ष्म जैविकी में पी.एच.डी./वैज्ञानिक थीं। वे अब नहीं हैं। उनका जन्म सन 1953 और निधन सन 2004 में हुआ।


पुस्तक प्रभात पेपरबैक्स (prabhatbooks.com), 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली ने छापी है।


उस लड़की (रत्ना) और उसका परिवार जब तब उपन्यास के दौरान उस नाव और मोरपांखी से बोलते बतियाते हैं। उस निर्जीव के साथ सख्य भाव है। हर होने वाली घटना पर उस मोर से वार्तालाप, उस मोर को रंगने की इच्छा का प्रकटन, मोर, नाव, आम का पेड़ (जिसके नीचे वह नाव रखी है) और उससे छन कर दिखते सूरज के माध्यम से अपना सुख दुख प्रकृति से कहना यह बारम्बार होता है उपन्यास में।

मुझे बताया गया कि उपन्यास का इतना बड़ा नाम - ठहरी हुई नाव और सतरंगा मोरपांखी - लेखिका ने बदलने से जोर दे कर मना किया था। पूरा उपन्यास पढ़ने पर ही लग पाता है कि उपन्यास का यह शीर्षक कितना सटीक है।

उपन्यास के कथानक में मध्यवित्त परिवारों का जीवन, जद्दोजहद और आकांक्षायें हैं - बहुत कुछ वही जो हमारे जीवन में होती हैं। शादीव्याह, घर बसाना, बच्चे पालना, उनकी शिक्षा दीक्षा, खुशी और समय असमय होने वाले दुख कष्ट - सभी हैं इस उपन्यास में। पात्रों में अपना जीवन बिना दाव-पेंच के - सरलता से जीने की ईमानदारी है। उस सरलता के कारण समाज और लोगों के वक्र और कुटिल प्रहार से अवसाद रूपी विचलन और फिर सयास उससे उबरने का उपक्रम भी सतत दिखता है।

बहुत कुछ है उपन्यास में। और मुझे लगता है उपन्यास को 180 पेज में सीमित करने की जल्दी न होती लेखिका को और कुछ घटनाओं, विवरण का और विस्तार होता तो और अच्छा होता।

लेखिका ने मध्यवित्त परिवार-समाज के जीवन और उत्सवों को बहुत बारीकी से देखा होगा। वह सूक्ष्म ऑब्जर्वेशन एक एक पंक्ति में, एक एक संवाद में नजर आता है। असल में उपन्यास की कथावस्तु की बजाय यह ऑब्जर्वेशन मुझे ज्यादा रुचा उपन्यास में। ... काश समय के साथ साथ निशि जी जैसा बारीकी से देखना, उसे संग्रहित करना और फिर एक कृति के रूप में प्रस्तुत करना हमें आ पाये।

मेरे विचार से लेखक जो सतही तौर पर देखता है और अपनी मात्र विद्वता (पढ़ें बुकिश नॉलेज) से अपनी कृति का निर्माण कर गुजरता है; व्यर्थ लिखता है। उस कसौटी पर कसें तो निशि जी का उपन्यास इस (पूर्वी उत्तरप्रदेश ?) के मध्यवित्त छोटे शहर के समाज के बारे में जो गहनता से बयान करता है वह अपने आप में अनूठा है। सामान्यत: आपको यह गहराई नहीं मिलती कृतियों में। ... लेखिका अगर असमय नहीं चली गयी होतीं और लेखन को पूर्णकालिक कृत्य बनाये रखा होता तो बहुत कुछ और उत्कृष्ट सामने आता। मुझे बताया गया है कि उनका बहुत कुछ लिखा पाण्डुलिपि के रूप में ही है। ... पता नहीं वह कैसे और किस रूप में छपेगा (या नेट पर आयेगा)।

आप यह पुस्तक पढ़ें। फ्लिपकार्ट पर यह उपलब्ध है। [नीचे टिप्पणी में अंकुर जी और सुशील कुमार जी ने होमशाप18 का लिंक दिया है जहां यह पुस्तक कम दाम पर उपलब्ध है। होमशॉप पर पेपरबैक संस्करण की भी जानकारी है, जो लगभग आधे दाम पर है। आप उसे देख सकते हैं।]




मैने निशि श्रीवास्तव जी की पहले वाली पुस्तक पर अपनी पोस्ट में एक फुटनोट लिखा था। उसे दोहराना चाहूंगा:
साहित्य और पुस्तकों की दुनियां में जबरदस्त लॉबीइंग है। भयंकर गुटवाद। प्रतिष्ठित होने में केवल आपका अच्छा लेखन भर पर्याप्त नहीं है। वह होता तो यह पुस्तक शायद बेहतर जानी जाती। यह तो मेरा अपना, किनारे खड़े व्यक्ति का, देखना है।



17 comments:

ankur said...

लगभग आधे दाम पर उपलब्ध है ये किताब...http://bit.ly/QiZxCo

मनोज कुमार said...

आपका कुछ भी लिखा पढ़ने में काफ़ी अच्छा लगता है। इस बार एक पुस्तक से परिचय आपने कराया। पूरी पोस्ट पढ़कर इसे पढ़ने का मन तो बन ही गया है, पढ़ पाऊंगा या नहीं समय ही बताएगा।
लेकिन जिस नज़रिए से आपने इस पूरे उपन्यास और साहित्य जगत से जुड़ी बातें देखीं हैं, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है और सच के बहुत क़रीब खास कर फुट नोट।
(ब्लॉग जगत में क्या यह रोग नहीं है?)

Sushil Kumar said...

निशि जी के दोनों उपन्यास - ठहरी हुई नाव और सतरंगा मोरपाखी और कैसा था मन, homseshop18 पर तीस प्रतिशत डिस्काउंट पर उपलब्ध हैं, एक तो flipkart उचित डिस्काउंट नहीं देता ऊपर से 300 रु. मूल्य से कम के ऑर्डर पर तीस रु. अतिरिक्त शुल्क लेता है, मैंने homeshop18 से दोनों उपन्यास बुक कर लिए हैं, जानकारी देने और ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए धन्यवाद्।
http://bit.ly/QiZjv0

प्रवीण पाण्डेय said...

मध्यवर्गीय कहानियों का आयाम अधिक होता है, उच्चवर्ग के सपने होते और निम्नवर्ग का संघर्ष भी, निशिजी के उपन्यास इस आयाम को व्यक्त करते हुये दीखते हैं। आपको अच्छा लगा तो निश्चय ही पठनीय होगा।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मध्यमवर्गीय परिवार के बारे में जितना लिखा जाना चाहिए उतना नहीं लिखा गया अभी तक। पुस्तक के बारे में पढ़कर खुशी हुई। आपने सुंदर ढंग से इससे परिचय कराया। ..आभार।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मध्यमवर्गीय वरिवार के बारे में जितना लिखा जाना चाहिए उतना अभी तक नहीं लिखा गया। आपने सुंदर ढंग से परिचय कराया है। पुस्तक पढ़ पाया तो और खुशी होगी।

Sidharth Joshi (सिद्धार्थ जोशी) said...

अभी एक साथ कई पुस्‍तकों का बोझ चल रहा है, शीघ्र ही यह पुस्‍तक मंगवाकर पढ़ने का प्रयास करूंगा। एक कीमती पोस्‍ट के लिए हृदय से आभार।

सलिल वर्मा said...

आपका यह लेखन हम जैसे लोगों को कितनी सीख और प्रेरणा देता है, वह बस महसूस करने वाली बात है.. जिस प्रकार आपने इस पुस्तक का परिचय दिया है उसे देखकर लगता है कि सही अर्थों में पुस्तकों का रिव्यू ऐसा होना चाहिए.. ज्ञानी जन पता नहीं क्यों अपनी बातों को इतना भारी-भरकम बना देते हैं कि बस किताब तो किताब उसकी बात भी दब जाती है.. आपका प्राक्कथन और फुटनोट बस चुरा लेने को जी चाहता है!!
प्रणाम करता हूँ आपको!
लेखिका का परिचय पढते-पढते जैसे ही पढ़ा कि सितम्बर २००४ में स्वर्गवास.. मन कचोट गया... फ्लिप्कार्ट से मंगवाता हूँ यह पुस्तक और अगली फुर्सत में पढ़ ही डालता हूँ!!

Gyandutt Pandey said...

अंकुर जी टिप्पणी में कहते हैं कि यह लगभग आधे दाम में उपलब्ध है यह पुस्तक। आप उस पर ध्यान दें!

Gyandutt Pandey said...

अरे, यह आश्चर्य है कि आपका कमेण्ट स्पैम में चला गया था। लगता है पहली बार टिप्पणी करने और कोई लिंक देने पर यह स्पैम का रास्ता दिखाता है! :-)
[आपका लिंक टिप्पणी बक्से के बाहर भाग रहा था, सो मैने उसे छोटा कर दिया है bit.ly से। वह लिंक पोस्ट में भी डाल दिया है!]

Gyandutt Pandey said...

अरे, यह आश्चर्य है कि आपका कमेण्ट स्पैम में चला गया था। पहली बार टिप्पणी करने और कोई लिंक देने पर यह स्पैम का रास्ता दिखाता है, यह मेरी समझ में आया! :-)
[आपका लिंक टिप्पणी बक्से के बाहर भाग रहा था, सो मैने उसे छोटा कर दिया है bit.ly से। वह लिंक पोस्ट में भी डाल दिया है!]

Sushil Kumar said...

ऐसे आधे दाम का क्या लाभ जो आउट ऑफ़ स्टॉक हो, फर्क पेपर बैक और हार्ड बाउंड का होता है

Gyandutt Pandey said...

खैर, आपने और अंकुर जी ने होमशॉप18 का पता मुझे बताया उसके लिये धन्यवाद। उसपर हार्डबाउण्ड भी तीस परसेण्ट सस्ता है फ्लिपकार्ट से। :-)
मैने साइट बुकमार्क कर ली है।

ankur said...

अभी देख रहे हैं की गलती से आउट ऑफ़ स्टॉक संस्करण का लिंक पोस्ट हो गया था...

Sushil Kumar said...

'कैसा था वह मन' अच्छी पुस्तक है, आत्म-संस्मरण सरीखा उपन्यास है... लेखिका अच्छा लिखती थीं, असमय मृत्यु से हिन्दी साहित्य जगत का नुक्सान हो गया। 'ठहरी हुयी नाव और सतरंगा मोर' पढ़ना बाकी है, उपलब्ध होते ही ज़रूर पढ़ा जायेगा। लेखिका और उनके उपन्यास से परिचय कराने का बहुत-बहुत धन्यवाद्।

Gyandutt Pandey said...

उपन्यास पढ़ने और टिप्पणी के लिये धन्यवाद सुशील जी।

Asha Joglekar said...

आपकी समीक्षा से तो किताब अचछी ही लग रही है पढना चाहूंगी वापसी पर ।