Sunday, September 30, 2012

शहरी भैंसें

[caption id="attachment_6188" align="alignright" width="300"] इलाहाबाद के एक व्यस्त चौराहे पर टहलते पशु।[/caption]

मेरी ट्रेन कानपुर से छूटी है। पूर्वांचल की बोली में कहे तो कानपुर से खुली है। खिड़की के बाहर झांकता हूं तो एक चौड़ी गली में भैसों का झुण्ड बसेरा किये नजर आता है।

कानपुर ही नहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश के सभी शहरों या यूं कहें कि भारत के सभी (?) शहरों में गायें-भैंसें निवसते हैं। शहर लोगों के निवास के लिये होते हैं, नगरपालिकायें लोगों पर कृपा कर वहां भैंसों और गायों को भी बसाती हैं। ऑपरेशन फ्लड में वे अपना जितना भी बन सकता है, योगदान करती है। वर्गीज़ कुरियन नहीं रहे; उनकी आत्मा को पता नहीं इससे आनन्द होता होगा या कष्ट?!

शहरों को दूध सप्लाई का इससे रद्दी कोई मॉडल नहीं हो सकता। यह उन दूधियों से हजार दर्जा अश्लील है – जो बालटा ट्रेनों के बाहर लटका कर शहरों को सवेरे एक दो घण्टा यात्रा कर आते हैं और दोपहर-शाम को अपने कस्बे-गांव लौटते हैं। वे दूधिये तो गांव के किसानों गाय भैंस पालने वालों से अच्छा-बुरा हर तरह का दूघ खरीदते हैं। ट्रेनों में कम्यूटर्स और लम्बी दूरी के यात्रियों के लिये न्यूसेंस होते हैं। पर फिर भी वे शहर की सिविक एमेनिटीज़ पर गाय-गोरू पाल कर पहले से ही चरमराती व्यवस्था पर बोझ नहीं करते।

[caption id="attachment_6186" align="aligncenter" width="584"] गली सड़कों पर पलती गायें-भैसें - यह दशा भारत के हर शहर में है।[/caption]

मैं अपने शहर इलाहाबाद को देखता हूं – लगभग हर सड़क-गली में भैंसें-गायें पली नजर आती हैं। उनको पालने वाले सड़क पर ही उन्हे रखते हैं। देखने में कम से कम भैंसें अच्छी नस्ल की लगती हैं। हरा चारा तो उन्हे नसीब नहीं होता, पर जब तक वे दूध देती हैं, उन्हे खाने को ठीक मिलता है। जब वे दूध देने वाली नहीं होती, तब वे छुट्टा छोड़ दी जाती हैं और जर्जर यातायात व्यवस्था के लिये और भी खतरनाक हो जाती हैं।

शहर में पशुपालन - एक लाख से ज्यादा की आबादी वाले शहर में व्यवसायिक रूप से ५ से अधिक  पशुपालने के लिये वेटनरी विभाग/नगरपालिका से पंजीकरण आवश्यक है। उसके लिये व्यक्ति के पास पर्याप्त जमीन और सुविधायें (भोजन, पानी, जल-मल निकासी, पशु डाक्टर इत्यादि) होनी चाहियें। यह पंजीकरण ३ वर्ष के लिये होता है और इसकी जांच के लिये जन स्वास्थ्य विभाग तथा नगरपालिका के अधिकारी समय समय पर आने चाहियें। ... ये नियम किसी पश्चिमी देश के नहीं, भारत के हैं! :lol:


आधा इलाहाबाद इस समय खुदा हुआ है सीवेज लाइन बिछाने के चक्कर में। आसन्न कुम्भ मेले के कारण सड़क निर्माण के काम चल रहे हैं, उनसे भी यातायात बाधित है। रही सही कसर ये महिषियां पूरी कर देती हैं। लगता है डेयरी को-ऑपरेटिव इतने सक्षम नहीं हैं कि शहरी दूध की जरूरतों को पूरा कर सकें। इसके अलावा लोगों में एक भ्रम है कि सामने दुहाया दूध मिलावट वाला नहीं होता। इस लिये (मेरा अपना अनुमान है कि) समय के साथ शहर में भैंसे-गायों की संख्या भी बढ़ी है और सड़कों पर उनके लिये अतिक्रमण भी।

मैं जितना वर्गीज़ कुरियन को पढ़ता हूं, उतना स्वीकारता जाता हूं कि दूध का उत्पादन और आपूर्ति गांवों के को-ऑपरेटिव्स का काम है। शहरी भैंसों का उसमें योगदान न केवल अकुशल व्यवस्था है, वरन् स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी।

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24 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

छुट्टे पशुओं का आतंक जितना बनारस में है उतना तो कहीं नहीं होगा। इस पर मैने बहुत लिखा है।

सतीश चंद्र सत्यार्थी said...

विदेशों में भारत की एक इमेज ये भी है.. कि यहाँ गाय-भैंसे-कुत्ते सड़क पर घूमते रहते हैं...

shobha gupta said...

ये पशु माफिया का काम है जिसके आगे नगर पालिका की नहीं चलती या नहीं चलाना चाहते .

Gyandutt Pandey said...

इनका अपना वोट बैंक है। राजनैतिक दखल है। साथ ही अकुशल नगरपालिका, पब्लिक हेल्थ और एनीमल हसबेण्ड्री विभाग और पुलीस हैं जो थोड़ी सी घूस पर आंख मूंदते हैं।

संजीत त्रिपाठी said...

वाकई यह समस्या तकरीबन हर शहर में है, दक्षिण का पता नहीं लेकिन उत्तर व मध्य भारत में तो यह बड़ी समस्या है। दिक्कत यह है कि हर जगह तथाकथित 'गौसेवा आयोग' भी मौजूद है लेकिन इसके 'गौसेवकों' को कार्यशाला, एसी दफ्तरों से ही फुरसत नहीं मिलती कि वे 'गौ' की सुधर ले सके। इधर हमारे यहां साल-दो साल से नगर निगम में कुछ साहसी कमिश्नर आए हैं जो डेयरियों को शहर से बाहर करने के अभियान में लगे हुए हैं और सफल होते नजर आ रहे हैं, राजनीतिक दबाव के बाद भी।

सलिल वर्मा said...

अभी जिस शहर में मैं रह रहा हूँ, गुजरात के इस शहर के विषय में एक कहावत बड़ी प्रचलित है.. कहते हैं कि भावनगर की तीन विशेषताएं हैं - गाय, गांठिया और गांडा (गुजराती भाषा में पागलों के लिए प्रयुक्त शब्द).. गायें यहाँ भी सडकों पर घूमती दिखती हैं..लेकिन मेरे घर के सामने खुले मैदान में सुबह सारी गायें एकत्र होती हैं और दूर दूर से लोग हरी घास लेकर आते हैं और उन्हें खिलाते हैं..
गायें, विश्वास नहीं होगा, मगर आपके फाटक का दरवाजा खटखटाकर रोटी पाने की गुहार लगाती हैं और आपके हाथों से ही रोटियां स्वीकार करती हैं.. आपकी पोस्ट पर तस्वीरों का महत्व देखते हुए जी चाहता है कि उन गायों की इलाहाबाद, कानपुर और बनारस से अलग तस्वीर दिखाऊँ..
और हाँ.. ट्रेन 'छूटने' को 'खुलने' ही रहने दीजिए... अपनापन लगता है!!

Gyandutt Pandey said...

वाह! आप तो बिहार से ’खुले’ और खम्बात की खाड़ी के छोर पर डेरा जमाये हैं।
भावनगर के - गायों के भी और अन्य भी - चित्र पोस्ट कीजियेगा!

अनूप शुक्ल said...

गाय-भैंस भी अपने ब्लॉग जगत में कहती होंगी- शहर में आबादी की बढ़त के चलते सड़क पर टहलना दूभर हो गया है ससुर!

प्रवीण पाण्डेय said...

जानवरों को नगरनिकाला दे रखा है विकास के उपासकों ने।

Gyandutt Pandey said...

जानवरों से वोटिंग कराई जाये कि शहर में रहना चाहेंगे या गांव में; तो बहुमत (या सर्वसम्मति) गांव या जंगल के पक्ष में आये।

Gyandutt Pandey said...

हां, यह भी कहती होंगी कि रामभरोसे ने दूध तो सारा निकाल लिया और सड़क पर टहलने के लिये कह दिया। सबेरे से चाय तक नसीब न हुई! या फिर पर साल बछड़ा हुआ था, पर जालिम रामभरोसे ने उसे न चारा दिया न मुझे दूध पिलाने दिया! :-(

Gyandutt Pandey said...

बधाई! आपको साहसी कमिश्नर मुबारक! इलाहाबाद में ये लिविंग मेमोरी में नहीं आये/पाये गये!

विष्णु बैरागी said...

बाकी तो सब ठीक है किन्‍तु लगता है चित्र तो आपने रतलाम में ही ले लिए थे - अपनी गत रतलाम यात्रा में।

Sushil Kumar said...

इलाहाबाद की याद ताज़ा हो गई।

Sushil Kumar said...

इलाहाबाद की याद ताज़ा हो गई। शहरी गाये, भैंस शहर की शोभा ट्यूशन और कोचिंग की होर्डिंगों से ज़्यादा आँखों को सुकून पहुँचाती हैं, और भैंस का ताज़ा दूध अपने सामने निकलवाने का जो इलाहाबादी आनंद है वो दिल्ली में रह कर मिस करते हैं, जिस तरह से इलाहाबाद में पराग का दूध मजबूरी में पीना पड़ता है वैसे ही दिल्ली में मदर डेयरी का दूध बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतरता है।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

चंडीगढ से आये एक सहकर्मी की आँखें आश्चर्य से खुली रह गयी थीं जब उसे पता लगा कि देश के लगभग सभी अन्य नगरों में मवेशीपालन (खासकर भैंस) के लिये नियमों का खुला उल्लंघन होता है। कितने ही कानून ऐसे हैं जिनकी या तो जानकारी ही नहीं है या अपना काम चल रहा हो तो "सब चलता है" के सिद्धांत के तहत सब स्वीकार्य हो जाता है।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

पशु-पक्षी प्रेम के मामले में गुजरात की बात ही और है। घुघूती जी ने एक बार ज़िक्र किया था कि लोग पेड़ पर लगे फल पक्षियों के लिये छोड़ देते हैं।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

:(

akaltara said...

सवार हुए या सवार कराने वाले के लिए ट्रेन का ''छूटना'' अलग और सवारी की चाहत के बावजूद सवार न हो पाए के लिए ट्रेन का ''छूटना'' अलग अर्थ देता है.

समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार" said...

क्या कहें...कानपुर का नाम सुनता हूँ तो गुरुदेव अनूप जी याद आ जाते हैं..उन्हें ही खोजता रहा तस्वीर में...लगभग और डिट्टो में चक्कर खा गया!!

neeraj1950 said...

कितनी सटीक बात कही है आपने....देश का शायद ही कोई शहर हो जिस की सड़कों पर गाय भैंसों ने कब्ज़ा न जामा रखा हो...लोग सुबह उन गाय भिन्सों को घास रोटी डाल कर स्वर में अपनी सीट पक्की करने के लिए मानो इस तरह टिकट खरीदते हैं...भारत पालतू जानवरों का अभ्यारण है...दुनिया में आप को और कहीं कुत्ते, बिल्लियाँ, बन्दर, सूअर, गाय, भैंसे, बकरियां यूँ सरे आम हर जगह विचरते नहीं मिलेंगे...इन के खिलाफ आवाज़ उठाना नास्तिकता का प्रमाण है...

नीरज

अजय कुमार झा said...

आपकी नायाब पोस्ट और लेखनी ने हिंदी अंतर्जाल को समृद्ध किया और हमने उसे सहेज़ कर , अपने बुलेटिन के पन्ने का मान बढाया उद्देश्य सिर्फ़ इतना कि पाठक मित्रों तक ज्यादा से ज्यादा पोस्टों का विस्तार हो सके और एक पोस्ट दूसरी पोस्ट से हाथ मिला सके । । टिप्पणी को क्लिक करके आप सीधे बुलेटिन तक पहुंच सकते हैं और अन्य सभी खूबसूरत पोस्टों के सूत्रों तक भी । बहुत बहुत शुभकामनाएं और आभार । शुक्रिया

sanjay @ mo sam kaun.....? said...

हमारे यहाँ तो अब दुधारू पशुओं का खुले घूमते दिखाना काफी कम हो गया है| अब से पांच साल पहले तक तो हम भी गाय रखते थे लेकिन मजाल है कभी खुला छोड़ा हो| बहुत जरूरी होने पर 'हंसली बांक की उपकथा' के मास्टरजी की तरह एकाध बार सड़क पर गाय को साथ लेकर निकलते थे, वो भी क्या सीन होता था:) तब झल्लाहट होती थी और गुस्सा आता था, अभी हँसते हँसते पैकेट वाला दूध जिंदाबाद कर रहे हैं| एक दिन बैंक से लौटा तो पिताजी ने यह कहते हुए कि 'बेटा, गुस्सा मत करना| दूध जैसी चीज संभालने में जिन्हें दिक्कत आ रही हो, उनपर गुस्सा भी क्या करना?' वो कपिला गाय बिना मोलभाव किये एक डेयरी वाले को दे दी| थैंक्स टू महिला सशक्तीकरण:) after all charity begins at home. उस दिन के बाद हमने भी गुस्सा करना लगभग छोड़ दिया|
शायद पोस्ट के विषय से काफी हट गया, लेकिन चलता है :)

पा.ना. सुब्रमणियन said...

दक्षिण में ही पिछले ३ माह से भ्रमण कर रहा हूँ. यहाँ स्थिति अलग है. लोगों को डर रहता है कि उनके पशुओं को कोई अपना बता कर कसाईखाने न पहुंचा दे. तीन दिनों से कोयम्बतूर में हूँ. यहाँ खुले आम गोमांस उपलब्ध है. कई बीफ शोप्स हैं.