Monday, August 13, 2012

पी.जी. तेनसिंग की किताब से

पी.जी. तेनसिंग भारतीय प्रशासनिक सेवा के केरल काडर के अधिकारी थे। तिरालीस साल की उम्र में सन् २००६ में कीड़ा काटा तो सरकारी सेवा से एच्छिक सेवानिवृति ले ली। उसके बाद एक मोटर साइकल पर देश भ्रमण किया। फ्रीक मनई! उनके सहकर्मी उनके बारे में कहते थे - दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी, पार्टी जाने वाले "पशु", चुपचाप काम में घिसने वाले, विजटिंग प्रोफेसर, अनैक्षुक अफसर, सफल होटल चलानेवाला और सबसे ऊपर - एक ग्रेट दोस्त!

देश भ्रमण में तीन साल लगे। एक किताब लिखी - डोण्ट आस्क एनी ओल्ड ब्लोक फॉर डेरेक्शन्स (Don't ask any old bloke for DIRECTIONS)। और फिर इस दुनियां से चले गये सन् २०१० में! :sad:

आप उनकी किताब बतैर ट्रेवलॉग पढ़ सकते हैं। यहां मैं एक छोटा अंश सिविल सेवा की दशा के बारे में प्रस्तुत कर रहा हूं, जो उन्होने रांची प्रवास के दौरान के वर्णन में लिखा है। (कहना न होगा कि मेरा हिन्दी अनुवाद घटिया होगा, आखिर आजकल लिखने की प्रेक्टिस छूट गयी है! :-) ):

मुझे मालुम है कि हर राज्य में ईमानदार और बेईमान अफसरों के बीच खाई बन गयी है। ईमानदार नित्यप्रति के आधार पर लड़ाई हारते जा रहे हैं। कुछ सामाना कर रहे हैं रोज दर रोज। बाकी दूसरी दिशा में देखते हुये अपनी नाक साफ रखने की जद्दोजहद में लगे हैं। कई इस सिस्टम से येन केन प्रकरेण निकल जाने की जुगत में लगे हैं। झारखण्ड में मृदुला (पुरानी सहकर्मी मित्र/मेजबान) के कारण मैने कई नौकरशाहों से मुलाकात की। अन्य राज्यों में मैं (एक व्यक्तिगत नियम के तहद) उनसे मिलता ही नहीं। 


एक सीनियर अफसर ने भड़ास निकाली कि समाजवादी व्यवस्था का शासन नौकरशाही की वर्तमान बुराइयों के लिये जिम्मेदार है। पॉलिसी बनाने वालों ने शासन चलाने का दिन प्रति दिन का काम संभाल लिया है। और जिनका काम पॉलिसी के कार्यान्वयन का था, वे राजनेताओं के समक्ष अपनी सारी ताकत दण्डवत कर चुके हैं। 


इस देश में पॉलिसी-मेकर्स की जबरदस्त कमी हो गयी है - वे लोग जो लम्बी दूरी की सोचें और गवर्नेंस के थिंक टैंक हों। मसलन, आप ट्रान्सपोर्ट विभाग को लें। मन्त्री और सचिव को अपना दिमाग एक साथ मिला कर राज्य की लम्बे समय की यातायात समस्याओं को हल करने के लिये लगाना चाहिये। उसकी बजाय मन्त्री बहुत रुचि लेता है कर्मचारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर में। और सचिव इसमें उसके साथ मिली भगत रखता है। यह काम ट्रांसपोर्ट कमिश्नर के दफ्तर को करना चाहिये। इससे ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की स्थिति कमजोर होती है। उसका अपने कर्मचारियों पर प्रभाव क्षरित होता है। बस ऐसे ही चलता रहता है और देश लटपटाता चलता जाता है। 


मुझे अपनी तरफ से कुछ जोड़ना चाहिये?! नो चांस। अभी कुछ साल नौकरी करनी है मुझे - मोटर साइकल चलाना नहीं आता मुझे, और मैं तेनसिंग की तरह "दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी" आदि नहीं हूं। :lol:


18 comments:

Dineshrai Dwivedi said...

आप के कहने के लिए बचा क्या है। सब कुछ तो तेनजिंग कह गए हैं। बस जिसे वे समाजवादी कहते हैं वह पूंजीवाद और सामंतवाद का घालमेल है, समाजवाद का दूर दूर तक नामोनिशाँ नहीं। हाँ समाजवाद के नाम पर खूब गड़बड़झाला भारत और पूरी दुनिया में चला है, हिटलर ने समाजवाद के नाम पर दुनिया में जो किया वह सब जानते हैं।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

@मुझे अपनी तरफ से कुछ जोड़ना चाहिये?! नो चांस। अभी कुछ साल नौकरी करनी है मुझे – मोटर साइकल चलाना नहीं आता मुझे, और मैं तेनसिंग की तरह “दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी” आदि नहीं हूं।

- सफलता का सूत्र या "तुम कौन मैं खामख्वाह" का बैल, मत आ और मुझे मत मार ...
दुर्भाग्य से एक ईमानदार अधिकारी की कहानी इतने तक ही सीमित होती जा रही है। सौभाग्य से, पेंच के ढीले और दिल से मजबूत वाली ईमानदार प्रजाति कभी मिटने वाली नहीं। देवता अमर हैं, अमर रहेंगे, भले ही अस्थाई रूप से कोई युद्ध दानव जीत भी लें ...

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखा है तेनसिंग ने। यात्राओं के लिये जुनूनी होना सबसे जरूरी होता है। बाकी तो सब अपने आप हो जाता है। :)

Gyandutt Pandey said...

हां, यह "समाजवाद" आउट एण्ड आउट बेईमान है!

anupkidak said...

अनुराग शर्मा का लिखा पढकर मजा आ गया- "पेंच के ढीले और दिल से मजबूत वाली ईमानदार प्रजाति कभी मिटने वाली नहीं। देवता अमर हैं, अमर रहेंगे, भले ही अस्थाई रूप से कोई युद्ध दानव जीत भी लें …"

जय हो!

Gyandutt Pandey said...

आपके आशावाद से प्रभावित ही हुआ जा सकता है। अन्यथा लगता है दानव अमृत पा गये हैं! :-)

Gyandutt Pandey said...

चला जाये कहीं!

anupkidak said...

हां बस निकल लिया जाये। :)

Nishant Mishra said...

आपने भी 'पार्टी एनिमल' का बढ़िया अनुवाद कर दिया! हमारे यहाँ एक सहकर्मी ने कुछ दिन पहले 'सिविल सोसायटी' का अनुवाद किया 'नागरिक समाज' :)

तेनजिंग साहब की किताब पढ़ने में रोचक होगी. कैरियर के शिखर पर नौकरी को ठोकर मारने के कई उदहारण हैं. अधिकांश मामलों में अफसर वाकई व्यवस्था से त्रस्त और खिन्न होकर यह कदम उठाते हैं. लेकिन एक अन्दर की बात यह भी है कि कुछ अफसर जब देखते हैं कि फंदा गले में कसने वाला है तब जनहित, सोशल कॉज और व्यक्तिगत कारणों का हवा हवाला देकर बाइज्ज़त बाहर निकल आते हैं. इससे इमेज मेकिंग भी खूब होती है.

अफसर प्रोटोकॉल भारत में बहुत बड़ा पचड़ा है. कई बार सरकारी डायरेक्टरियों में बड़े अफसर का नाम त्रुटिवश उसके जूनियर के साथ या उससे नीचे आ जाता है तो बाकायदा नोटिफिकेशन जारी करके संशोधन के लिए पर्चियां भारत भर में भेजी जाती हैं.

भास्कर घोष की पुस्तक के बारे में चर्चा करते समय आपने कॉडर प्रतिबद्धताओं के बारे में लिखा था. सिविल सर्विस बड़ी विकट चीज़ है.

बाइक से देश भ्रमण करने में जिगरा चाहिए... अब तो हर काम सही तरह से और धारा के विपरीत करने के लिए भी जिगरा चाहिए.

Nishant Mishra said...

'हवाला' की जगह गलती से 'हवा' लिख गया.

हरयाणा में बहुतों के नाम 'हवा सिंह' पढ़ने को मिलते हैं :)

अरविन्द मिश्र said...

खरा सोना ढूंढ लाये हैं आज तो ...आभार !
उस कीड़े का नाम तो बताईये जिसने उन्हें काटा था ? :-)

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ा गंभीर विषय है, कहाँ खड़े हैं और क्या अपेक्षायें हैं, कहना कठिन है। खटकता बहुत कुछ है और स्पष्ट दिखता भी है..

indowaves said...

कलेक्टर बनने का ख्वाब पाले भाई बंधू पढ़े इसे :-)

अपने नए लेख का लिंक ..एक नज़र इस पर भी डाल ले..

London Olympics 2012: Marred By Serious Controversies

http://wp.me/pTpgO-ss

-Arvind K.Pandey

वाणी गीत said...

दार्शनिक, ढीला पेंच, दारू पीने के लिये साथी, फिटनेस के जुनूनी, पार्टी जाने वाले “पशु”, चुपचाप काम में घिसने वाले, विजटिंग प्रोफेसर, अनैक्षुक अफसर, सफल होटल चलानेवाला और सबसे ऊपर – एक ग्रेट दोस्त!
एक सरकारी अफसर क्या कर्मचारी में भी ये गुण कहा होते हैं :)..मगर ये जाएँ तो कहाँ जाएँ !

राहुल सिंह said...

फिटनेस? मिसफिट.

Abhishek Ojha said...

हम बाहर से समर्थन दे रहे हैं,. बहुमत हुआ. अब निकला जाय :)

Sidharth Joshi (सिद्धार्थ जोशी) said...

राजनेताओं और अफसरों की लड़ाई-मेलजोल पुराना सिस्‍टम है

इस सिस्‍टम में कई बार ऐसे लोग घुस आते हैं, जो मस्‍त मलंग होने के बजाय सिस्‍टम के अंदर रहते हुए सावधानी के साथ सटीक और सफल क्रेक कर देते हैं। ठीक उसी समय तो पता भी नहीं चलता कि अमुक अफसर ने "लाभ के किसी नए नियम" की धज्जियां उड़ा दी हैं।
आमतौर पर निदेशक, सचिव या इससे ऊपर के स्‍तर के प्रशासनिक अधिकारी ऐसा काम करते दिखाई दिए हैं। मैंने देखा है कि राज्‍य की प्रशासनिक सेवाओं से सिविल सेवाओं में आए अधिकारी ऐसे पेचों के बारे में अधिक जानते हैं।

Asha Joglekar (आशा जोगळेकर) said...

इस देश में पॉलिसी-मेकर्स की जबरदस्त कमी हो गयी है – वे लोग जो लम्बी दूरी की सोचें और गवर्नेंस के थिंक टैंक हों।
तेनजिंग जी की किताब काफी रोचक औऱ आँखे खुलवाने वाली होगी ।