Monday, April 8, 2013

मन्दिर पर छोटी छोटी चीजें गुम जाने का समाजशास्त्र

[caption id="attachment_6806" align="alignright" width="584"]कोटेश्वर महादेव पर फूल-माला-पूजा सामग्री देने वाली महिला। कोटेश्वर महादेव पर फूल-माला-पूजा सामग्री देने वाली महिला।[/caption]

मालिन बैठती है कोटेश्वर महादेव मन्दिर के प्रांगण में। घिसा चन्दन, बिल्वपत्र, फूल, मालायें और शंकरजी को चढ़ाने के लिये जल देती है भक्तजनों को। एक तश्तरी में बिल्वपत्र-माला-फूल और साथ में एक तांबे की लुटिया में जल। भक्तों को पूजा के उपरांत तश्तरी और लुटिया वापस करनी होती है।

मैने उससे पूछा - लुटिया और तश्तरी वापस आ जाती है?

आ जाती है। साल भर में तीन चार लुटियाँ और आधादर्जन तश्तरियाँ लोग ले कर चल देते हैं। वापस नहीं आतीं। ज्यादातर भीड़भाड़ वाले दिनों में होता है।

मैं मालिन का चित्र लेता हूं। उसे कौतूहल होता है - फोटो कैसी आयी। अपनी फोटो मोबाइल में देख कर संतुष्ट हो जाती है वह!

[caption id="attachment_6808" align="alignright" width="300"]कोटेश्वर महादेव मन्दिर। कोटेश्वर महादेव मन्दिर।[/caption]

उधर सीढ़ियों के नीचे पण्डाजी की चौकी है। गंगा स्नान के बाद भक्तगण पहले उनकी चौकी पर आ कर शीशे-कंघी से अपनी सद्य-स्नात शक्ल संवारते हैं। फिर हाथ में कुशा ले कर संकल्प करते हैं। पण्डाजी करीब 20 सेकेण्ड का मंत्र पढ़ते हैं संकल्प के दौरान। उसके पश्चात संकल्प की राशि और/या सामग्री सहेजते हैं। भक्त वहां संकल्प से निवृत्त हो कर कोटेश्वर महादेव मन्दिर में शिवलिंग को जल चढ़ाले के लिये अग्रसर हो जाते हैं।

पण्डाजी से मैं पूछता हूं - साल भर में कितनी कंघियां शीशे गायब होते हैं?

यही कोई दस-पन्द्रह। नया शीशा ज्यादा गायब होता है। नयी कन्घी भी। लोग बालों में  कंघी फेरते फेरते चल देते हैं। ज्यादातर मुख्य स्नान के दिनों में।

मजे की बात है, शीशा कंघी गायब होते हैं। संकल्प करने की कुशा नहीं गायब होती। कुश की दूब में किसको क्या आसक्ति! :lol:

[caption id="attachment_6807" align="aligncenter" width="584"]पण्डाजी की चौकी पर सजी कंघियां और शीशे! पण्डाजी की चौकी पर सजी कंघियां और शीशे![/caption]

गायब होने की मुख्य चीज है - मन्दिर पर उतारे चप्पल-जूते! या तो गायब होते हैं या नये चले जाते हैं, पुराने वहीं रह जाते हैं! वासांसि जीर्णानि यथा विहाय की तर्ज पर... भक्तों की आत्मायें पुरानी-जीर्ण चप्पलें त्याग कर नई चप्पलें ग्रहण करते हैं भगवान शिव के दरबार में। कुछ लोग इस प्रॉसेस में मुक्ति पा जाते हैं और बिना चप्पल जूते के अपने धाम लौटते हैं धर्म का "यशोगान" करते हुये।

जूते चप्पल गुमने के आंकड़े देने वाला मुझे कोई नजर नहीं आया। वैसे वहां इसकी चर्चा छेड़ी जाये तो पण्डाजी की चौकी के पास जुटने वाली सवेरे की गोष्ठीमण्डली रोचक कथायें बता सकती है चप्पल चौर-पुराण से!

उसके लिये; आप समझ सकते हैं; मेरे पास इत्मीनान से व्यतीत करने वाला समय होना चाहिये। जो अभी तो नहीं है मेरे पास। पर आशा है, भविष्य में कभी न कभी मिलेगा जरूर!

22 comments:

दीपक डुडेजा said...

बाबे दी फुल कृपा

अनूप शुक्ल said...

जूते चप्पल चोरी जाने की बात सुनकर याद आया श्रीलाल शुक्लजी ने एक संस्मरण में लिखा था। मंदिर में चप्पल चोरी जाने के डर से उन्होंने चप्पलें अपनी कार में धर दीं। लेकिन उनकी श्रीमतीजी मंदिर के पास तक चप्पल पहनकर गयीं। उनकी चप्पल चोरी चली गयीं। उसके बाद शुक्लजी ने लिखा- मेरे विश्वास की रक्षा हुई। :)

संतोष कुमार सिंह said...

प्रणाम
आख़िर आप धर्म के मर्म तक पँहुच गये , भक्त मंदिर जाता है ख़ाली होने कुछ दुख , कुछ तकलीफ़ और कुछ ,,,
हमारे शास्त्रों में लिखा है - कुछ दोगे तब कुछ पाओगे ।
भकतगण सर झुका कर प्रसाद का हक़दार तो है , क़िस्मत की बात है किसी की नज़र लगी तो वो सर पर बरसती है नही तो पैर पे जँचती है ।
ॐ चोरँ नमो नम:

सतीश सक्सेना said...

यहाँ भी करप्शन वह भी आम आदमी द्वारा ... :)
लो लेवल करप्शन शायद नीड बेस्ड .. या शौकिया !
आप का क्या ख़याल है !

Gyandutt Pandey said...

दोनो!

Gyandutt Pandey said...

भक्त को अगर इंस्टेण्ट प्रसाद की दरकार है तो चप्पल जाने की रिस्क लेनी होगी। शीशा-कंघी/लोटा-तश्तरी के जाने पर पण्डा या मालिन ज्यादा कष्ट में नजर नहीं आये।

Gyandutt Pandey said...

मैं पांड़े भले हूं, विश्वास मेरा भी सुकुलों जैसा ही है!

Gyandutt Pandey said...

जी हां। सब पर।

Nishant Mishra said...

पहले कमेन्ट नहीं हो पाया सो अब फेसबुक से खींच लाते हैं:

मैं मंदिर में अपने जूते एक साथ नहीं उतारता. दोनों में काफी दूरी रखता हूँ. जूते चोर बहुधा जल्दी में होते हैं और दूसरा जूता खोजने के झंझट में नहीं पड़ना चाहते.

मंदिर जाना पड़ता है. नहीं जाऊं और कुछ गलत-सलत होए तो उसका ठीकरा फिर मेरी नास्तिकता के सर फोड़े जाने से बेहतर है मंदिर ही घूम आयें.

Gyandutt Pandey said...

हिन्दू धर्म में कितनी तानाशाही है! नास्तिक को भी बाध्य होना पड़ता है मन्दिर जाने के लिये! :lol:

Neeraj Rohilla said...

जहाँ गाये थे खुशियों के तराने, मुकद्दर देखिये रोये वहीँ पर,
हुए मंदिर से जूते गुम हमारे, जहाँ पाए थे खोये वहीँ पर । ;)

भारतीय नागरिक said...

देखिये, अपना अपना विश्वास. चप्पल ले जाने वाले का अधिक है.

Gyandutt Pandey said...

आपके विश्वास की रक्षा हो! :-)

Gyandutt Pandey said...

वाह! कालजयी रचना!

पा.ना. सुब्रमणियन said...

कहीं चप्पलों की चोरी और लुटिया, कंघी,आयिना के बीच कोई समीकरण तो नहीं है.

Gyandutt Pandey said...

अब जिसे चप्पल चाहिये, उसके बाल तो होन्गे ही। वह पानी भी पीता होगा! :-)

प्रवीण पाण्डेय said...

भक्त भाव में इतने लीन हो जाते हैं कि उन्हें छोटी चीज़ें याद ही नहीं रहती हैं।

Asha joglekar said...

Mandir aur chappal chori inka ek achcha sameekaran hai. par dono joote door door park karne wali tarkeeb pasand aayee.

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

गनीमत है कार चोरी नहीं हुई।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

जिस भक्त को मात्र एक कंघे की ज़रूरत हो, उसे वह प्रसाद तो मिलना ही चाहिए। चोरी जाने वाले सामान के प्रति पंडा जी और पूजा सामग्री वाली महिला की सहजता प्रशंसनीय है। सामाजिक व्यावसायिक परिपक्वता का अनुकरणीय उदाहरण हैं ये लोग।

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

गजब! :) गॉड गिवथ गॉड टेकथ ...

Gyandutt Pandey said...

हा हा! आधुनिक भारत में वह सम्भव है! :-)