Sunday, February 3, 2013

सफर रात में सैराता है - चंद्रशेखर यादव उवाच

[caption id="attachment_6594" align="alignright" width="225"]चंद्रशेखर यादव। उन्होने जब मुझे मेरे घर वापस उतारा तो मैने स्ट्रीट लाइट में उनका एक फोटो लिया ब्लॉग के लिये। चंद्रशेखर यादव। उन्होने जब मुझे मेरे घर वापस उतारा तो मैने स्ट्रीट लाइट में उनका एक फोटो लिया ब्लॉग के लिये।[/caption]

यह मेरी प्रकृति के विपरीत था कि मैने मिर्जापुर के पास एक गांव में शादी के समारोह में जाने की सोच ली। सामान्यत: ऐसी जगह मैं जाने में आना कानी करता हूं और हल्के से बहाने से वहां जाना टाल देता हूं। यहां मुझे मालुम भी न था कि वह गांव सही सही किस जगह पर है, किसके यहां जाना है और जाने आने में कितना समय लगेगा। फिर भी मैं इलाहाबाद में अपने दफ्तर से निकल ही लिया मिर्जापुर जाने को। ट्रेन से वहां जाने के बाद सड़क मार्ग से गांव जाना तय किया और देर रात वापस इलाहाबाद लौटना नियत किया।

मैं नीलकण्ठ एक्स्प्रेस के इंजन पर "फुटप्लेट इंस्पेक्शन" करते हुये इलाहाबाद से चला। घण्टे भर बाद सांझ ढ़लने लगी। खेत दिखे - जिनमें सरसों, अरहर, गेंहूं और कहीं कहीं गेंदे के पौधे थे। गेंदा शायद इस साल हो रहे महाकुम्भ में होने वाली फूलों की खपत को ध्यान में रख कर किसान लगा रहे थे। सांझ के समय किसान घरों को लौट रहे थे और चार-छ के झुण्ड में स्त्रियां संझा के निपटान के लिये खेतों की ओर जाती दिख रही थीं - यह स्पष्ट करते हुये कि गांवों में अभी भी घरों में शौचालय नहीं बने हैं।

मैं मिर्जापुर पंहुचा तो धुंधलका हो चुका था, फिर भी सब दिख रहा था। पर चाय पी कर जब हम गांव जाने के लिये रवाना हुये तो रात ढल गई थी। रवाना होने के कुछ देर बाद ही स्पष्ट हो गया कि जिस गांव हम लोग जाना चाहते थे, वहां का रास्ता ठीक ठीक मालुम नहीं है। हम लोग वह जगह बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर समझते थे, वह शायद पैंतीस-चालीस किलोमीटर दूर है। एक बारगी मैने कहा कि छोड़ो, वापस चला जाये। पर वाहन के ड्राइवर महोदय ने कहा कि आप फिक्र न करें, हम बहुत खोजू जीव हैं। खोज खोज कर पंहुच ही जायेंगे वहां! 

और जैसा ड्राइवर साहब ने कहा, वैसा ही पाया उन्हे मैने। उन्होने अपना नाम बताया चंद्रशेखर यादव। इलाहाबाद में ही रहते हैं। बात करने में झिझकने वाले नहीं। वाहन चलाने में भी दक्ष।

एक महीना में कितना चलते होगे?

यही कोई छ सात हजार किलोमीटर। 

अच्छा!? यहीं यूपी में ज्यादातर?

नहीं! दूर दूर तक! ऊड़ीसा, बदरीनाथ, गुजरात, रोहतांग तक हो आया हूं! सन् बानवे से गाड़ी चला रहा हूं। बहुत से लोग मुझे ही ड्राइवर के रूप में पसन्द करते हैं और मेरे न होने पर अपना यात्रा कार्यक्रम मुल्तवी कर देते हैं। 

अच्छा? ऐसा क्यों होता है?

कोई ड्राइवर जब लम्बी यात्रा पर निकलता है तो उसका मन अपने घर में लगा रहता है। इसके उलट घूमने जाने वाला पूरा मजा लेना चाहता है अपने टूर प्रोग्राम का। मैने यह जान लिया है कि उनसे जल्दी करने, वापस समय पर चलने की रट लगाना बेकार है। अत: मैं उनके साथ खुद सैलानी बन कर यात्रा का आनन्द लेना सीख गया हूं। लोग यह काफी पसंद करते हैं। 

चंद्रशेखर जाने अनजाने यह सीख गये हैं कि दक्ष होने के लिये यह जरूरी शर्त है कि व्यक्ति अपने काम में रस ले। ...

कभी काम में खतरा लगा?

पूरे समय में केवल एक बार! सन् १९९६ की बात है। मैं गाड़ी में काम खतम होने पर अकेले लौट रहा था; गया के पास शेरघाटी से गुजरते हुये। मन में लालच आ गया कि कोई सवारी बिठा लूं तो एक्स्ट्रा कमाई हो जायेगी। वे चार लोग थे - दो औरतें और दो आदमी। परिवार समझ कर मुझे कोई खतरा भी नहीं लगा। पर उनमें से तीन पीछे बैठे, एक आदमी आगे। कुछ दूर चल कर आगे बैठे आदमी ने कट्टा मेरी कनपटी से सटा दिया। मैने गाड़ी रोकी नहीं। चलते चलते यही बोलता रहा कि मुझे मारो मत। यह गाड़ी भले ले लो। वह मान गया। फिर जाने किस बात से वह नीचे उतरा। उसके नीचे उतरते ही मैने गीयर दबाया और गाड़ी तेज रफ्तार में करली। बाजी पलट गयी थी। पीछे बैठी सवारियों को मैने कहा कि अगर जान प्यारी हो तो चलती गाड़ी में दरवाजा खोल कर एक एक कर कूद जाओ। औरतें हाथ जोड़ने लगी थीं। वे एक एक कर कूदे। चोट जरूर लगी होगी। उनके कूदने के लिये मैने गाड़ी कुछ धीमे जरूर की थी, पर रोकी नहीं। बहुत दूर आगे निकल आने पर खैर मनाते हुये देखा तो पाया कि वे अपने थैले वहीं छोड़ कर कूदे थे। उसमें कपड़े थे और सोने के कुछ गहने। शायद पहले किसी को लूट कर पाये होंगे। मैं सीधे बनारस आया और कपड़े लत्ते पोटली बना कर गंगाजी को समर्पित कर दिये! 

और गहने?

चन्द्रशेखर ने एक मुस्कराहट भर दी। इतने बड़े एडवेंचर का कुछ पारितोषिक तो होना ही चाहिये। ... बस, इसके अलावा आज तक वैसी कोई घटना नहीं हुई मेरे साथ। 

चन्द्रशेखर यादव हमें उस गांव तक सकुशल ले गये। उनके कारण काफी रस मिला यात्रा में। वापसी में यद्यपि रात पौने नौ बज रहे थे जब हम रवाना हुये गांव से; पर चंद्रशेखर की दक्ष ड्राइविंग से सवा इग्यारह बजे मैं अपने घर वापस आ गया था। वापसी में चन्द्रशेखर ने एक पते की बात कही - साहेब, रात में चलना बहुत अच्छा रहता है। सड़क पर दूर दूर तक साफ दिखता है। सफर रात में ही सैराता है। 

(गांव की यात्रा का विवरण एक ठीक ठाक पोस्ट होती; पर मेरे ख्याल से चंद्रशेखर के बारे में यह पोस्ट कम महत्व की नहीं!)

12 comments:

indian citizen said...

आपके साथ हम भी एडवेंचर में सैरा लिये...

ललित शर्मा said...

सही है, अपने काम में ही रस लेना चाहिए।

अनूप शुक्ल said...

अच्छा सफ़र कराया।

राहुल सिंह said...

ऐसा भी होता है सफर, सफरी.

Kajal Kumar said...

आह. आप अच्छे से बतिया लेते हैं. :)

प्रवीण पाण्डेय said...

चंद्रशेखरजी की यह बात अच्छी लगी, निरीक्षणों को समय हम भी सैलानी होने लगे हैं।

Gyandutt Pandey said...

अच्छे से सुन लेता हूं!

सतीश सक्सेना said...

काश हम भी एक बार आपके ड्राईवर बन सकें ...फोटो छप जायेगी मानसिक हलचल पर !

Manoj Sharma said...

पाण्डे जी , को प्रणाम , कभी एक चक्कर महाकुंभ घाट की और भी लगा दीजिये , आपके तो नज़दीक है इसलिए कहा ....हमारा तो इस साल नहीं बन पायेगा इसलिए सोचा आपके साथ [Blogtrain] द्वारा ही हाजरी भर ले , धन्यवाद ,

Shrish said...

वाह क्या सजीव चित्रण किया है आपने। घटना के बारे में पढ़ते हुये दृश्य कल्पना में तैर रहे थे।

विष्‍णु बैरागी said...

विवरण पढने के बाद कोई कारण नहीं कि सफर रात में ही सैाराने की बात न मानी जाए। यदि चन्‍द्रशेखर जैसा ड्रायवर हो तो और जोरदार सैराता है।

पा.ना. सुब्रमणियन said...

सफर का आनांद तो सही में ड्राइवर डिपेंडेंट है.