Tuesday, July 17, 2012

कारू मामा की कचौरी

कल सवेरे मंसूर अली हाशमी जी रतलाम स्टेशन पर मिलने आये थे, तो स्नेह के साथ लाये थे मिठाई, नमकीन और रतलाम की कचौरियां। मैं अपनी दवाइयों के प्रभाव के कारण उदर की समस्या से पीड़ित था, अत: वह सब खोल कर न देखा। शाम के समय जब विष्णु बैरागी जी मिले तो उन्होने अपने “बतरस” में मुझे स्पष्ट किया कि हाशमी जी कारू राम जी की कचौरियां दे गये हैं और जानना चाहते हैं कि मुझे कैसी लगीं?

[caption id="attachment_5863" align="alignleft" width="584"] मंसूरअली हाशमी जी मुझसे मिलने आये। उनके मोबाइल से लिया चित्र जो मैने फेसबुक से डाउनलोड कर टच-अप किया है।[/caption]

कारूराम जी की कचौरियों के बारे में उन्होने बताया कि रतलाम में कसारा बाजार में कारू राम जी की साधारण सी दुकान है। कारूराम जी (कारूमामा या कारू राम दवे) समाजवादी प्राणी थे। उन्हे लोगों को बना कर खिलाने में आनन्द आता था। सत्तर के दशक की घटना बैरागी जी बता रहे थे कि २५ कचौरियां-समोसे मांगने पर कारूमामा ने तेज स्वरों में उनको झिड़क दिया था – “देख, ये जो कचोरियां रखी हैं न, वे एक दो कचौरी लेने वाले ग्राहकों के लिये हैं, पच्चीस एक साथ ले जाने वाले ग्राहक के लिये नहीं। तू भाग जा!”

[caption id="attachment_5862" align="alignleft" width="584"] हाशमी जी की लाई कारू मामा की कचौरी और समोसा।[/caption]

अनुमान लगाया जा सकता है कि कारू मामा कैसे दुकानदार रहे होंगे। बैरागी जी ने बताया कि अब कारू मामा की अगली पीढ़ी के लोग उन्ही उसूलों पर अपनी दुकान चला रहे हैं। उनकी दुकान पर जा कर लगता है कि पच्चीस पचास साल पीछे चले गये हैं काल-खण्ड में।

कैसे रहे होंगे कारू मामा? बैरागी जी की मानें तो अक्खड़ थे, कड़वा भी बोलते थे, पर लोग उस कड़वाहट के पीछे सिद्धान्तों पर समर्पण और स्नेह समझते थे। पैसा कमाना उनका ध्येय नहीं था – वे आटे में नमक बराबर कमाई के लिये दुकान खोले थे – दुकान से घाटा भी नहीं खाना था, पर दुकान से लखपति (आज की गणना में करोड़पति) भी नहीं बनना था।

अच्छा हुआ, मंसूर अली हाशमी जी कारू मामा की कचौरी (और समोसे) ले कर आये। अन्यथा इतने वर्षों रतलाम में रहने पर भी उन जैसी विभूति के बारे में पता नहीं चला था और अब भी न चलता…

कचौरी कैसी थीं? मेरी पत्नीजी का कहना है कि रतलाम में बहुत दुकानों की कचौरियां खाई हैं। यह तो उन सबसे अलग, सब से बढ़िया थीं। भरे गये मसाले-पीठी में कुछ बहुत खास था…

[caption id="attachment_5861" align="alignleft" width="584"] मुझसे शाम के समय मिलने आये श्री विष्णु बैरागी जी।[/caption]

16 comments:

piyush said...

आजकल के चालुमामा रुपये ५० की २ खोखली कचोरियाँ देते हैं,ऐसा प्रतीत होता हैं अपनी कमाऊ दूकान के वातानुकूलन का चार्ज हमसे ही ले रहे हैं !!

सतीश सक्सेना said...

आपके वर्णन ने मुंह में पानी ला दिया ...
आपकी जगह मैं होता तो डॉ से छिपा कर खाता जरूर , और होमियोपैथिक दवा से उदर समस्या ठीक कर लेता !
राम राम भाई जी ..

पा.ना. सुब्रमणियन said...

आखिर मसाला ही तो है जो किसी भी चीज को ख़ास बनाता है.

संजीत त्रिपाठी said...

क्या बात है! थोड़ा बहुत खाया जा सकता था, दवाइयों के बाद भी ;) । मैं इस बात के इंतजार में हूं कि आपकी ट्रेन का रुख छत्तीसगढ़ की तरफ कब होगा।

प्रतिभा सक्सेना said...

खाने-पीने की चीज़ों का स्वादिष्ट फ़ोटो ! पाठक को अपने साथ भटका ले जाये तो हो गया पढने का सारा स्वाद फीका !

sabhajeet sharma said...

भारत में कुछ स्थान अपने खाद्य पदार्थों के नाम से ही विख्यात होते हैं ..!! सबकुछ नस्ट होने पर भी पदार्थ जीवित रहता है ...यह भौतिकी का सिद्धांत है !! ,

मनोज कुमार said...

इसमें एक अपनापन है।

विष्‍णु बैरागी said...

'कालू मामा' नहीं ज्ञानजी! 'कारू मामा'। 'कालू मामा' में परिष्‍कार का ग्‍लेमर है जबकि 'कारू मामा' में गमठैलपने की गन्‍ध और अनगढ सुन्‍दरता है।

बहरहाल, मुण्‍े इस तरह से प्रस्‍तुत कर मेरा मान बढाने केलिए आभार।

सतीश पंचम said...

आनंदम् आनंदम्

प्रवीण पाण्डेय said...

स्नेह से खिलाते हैं तभी स्वाद बना हुआ है...

Gyandutt Pandey said...

मैं नाम में परिवर्तन कर देता हूं, बैरागी जी। सुनने में या याद रखने में चूक हुई।

वाणी गीत said...

जिस स्नेह से कचौरियां लाई गयी , उनका स्वाद बढ़िया होना ही था ...कई चीजें साधारण होकर भी ब्रांड बन जाती है ! जैसे जयपुर में मानप्रकाश टॉकीज के सामने मटके की कुल्फी , संपत की नमकीन !

ghughutibasuti said...

रोचक किस्सा और कारु मामा भी अपनी तरह के एक ही व्यक्ति रहे होंगे।
घुघूती बासूती

Sidharth Joshi (सिद्धार्थ जोशी) said...

उदर रोग ???

आपको कारूं मामा की कचौरी खानी चाहिए थी, उदर रोग ठीक हो जाता :)

कचौरी अगर सही बनी हो तो उसमें इतने मसाले होते हैं कि कई रोग तो अपने आप ठीक हो जाते हैं। :)

राहुल सिंह said...

पोस्‍ट के माध्‍यम से ही चख लिया हमने.

Vivek Rastogi said...

वाह मजा आ गया, कचोरी देखते ही मन तृप्त हो गया वो भी रतलाम की :)
जब भी रतलाम जाते थे तो वहाँ कचोरी, पोहे और दाल बाटी का आनंद लेना कभी नहीं भूले, मैं कुछ वर्षों पहले लगभग ७-८ दिन रतलाम था तो रोज दोपहर के भोजन में दाल बाटी सूती जाती थी ।

और रतलाम के पास ही बदनावर है जहाँ की कचोरियाँ भी बहुत प्रसिद्ध हैं, उसमें कच्चा तेल और मूँगफ़लियाँ डालकर देते थे, उसका स्वाद तो आज भी जबान पर है।

कारू मामा जैसे दुकानदार बहुत कम हैं ।