Wednesday, November 28, 2012

फुटप्लेट

[caption id="attachment_6464" align="alignright" width="225"] लॉंग हुड में डीज़ल रेल इंजन से दिखता आगे का सीन।[/caption]

रेलवे इंजन पर चढ़ कर चलते हुये निरीक्षण का नाम है फुट प्लेट निरीक्षण। शब्द शायद स्टीम इंजन के जमाने का है, जिसमें फुटप्लेट पर खड़े हो कर निरीक्षण किया जाता था। अब तो डीजल और इलेक्ट्रिक इंजनों में बैठने के लिये सुविधाजनक सीटें होती हैं और खड़े हो कर भी निरीक्षण करना हो तो धूल-धुआं-कोयला परेशान नहीं करता।

इंजन की लगभग लगातार बजने वाली सीटी और तेज गति से स्टेशनों को पार करते समय कांटों पर से गुजरते हुये खटर खटर की आवाज जरूर किसी भी बात करने की कोशिश को चिल्लाहट बनाये बिना सम्पन्न नहीं की जा सकती। इसके अलावा अगर पास की पटरी पर ट्रेन खड़ी हो, या विपरीत दिशा में गुजर रही हो तो तेज सांय सांय की आवाज अप्रिय लग सकती है। फुटप्लेट करते समय अधिकांशत: मौन रह कर देखना ज्यादा कामगर करता है। वही मैने किया।

[caption id="attachment_6465" align="aligncenter" width="584"] खलिहान में पुआल इकठ्ठा हो गया था।[/caption]

मैने ट्रेन इंजन में इलाहाबाद से खागा तक की यात्रा की।

रेलवे के निरीक्षण के अलावा देखा -  धान खेतों से जा चुका था। कुछ में सरसों के पीले फूल भी आ गये थे। कई खेतों में गन्ना दिखा। कुछ में मक्का और जोन्हरी के भुट्टे लगे थे। पुआल के गठ्ठर जरूर खलिहान में पड़े दिखे। कहीं कहीं गाय गोरू और धूप में सूखते उपले थे। एक दो जगह ट्रैक के किनारे सूअर चराते पासी दिखे। सूअर पालना/चराना एक व्यवसाय की तरह पनप रहा है। पासी आधुनिक युग के गड़रिये हैं। कानपुर से पार्सल वान लद कर गुवाहाटी के लिये जाते हैं सूअरों के। पूर्वोत्तर में काफी मांग है सूअरों की। लगता है वहां सूअरों को पालने के लिये पर्याप्त गंदगी नहीं है। या जो भी कारण हो।

[caption id="attachment_6466" align="aligncenter" width="584"] सरसों में फूल आ गये हैं।[/caption]

सवेरे छोटे स्टेशनों पर बहुत से यात्री दिखे जो आस पास के कस्बे-शहरों में काम करने के लिये आने जाने वाले थे। इसके अलावा साधू-सन्यासी-बहुरूपिये जो जाने क्यों इतनी यात्रा करते हैं रेल से – भी थे। वे शायद स्टेशनों पर रहते हैं और फ्री-फण्ड में यात्रा करते हैं। पूरा रेलवे उनके लिये एक विहार की तरह है जो किसी मठ की बन्दिशें भी नहीं लगाता। बस, शायद भोजन के लिये उन्हे कुछ उपक्रम करना होता होगा। अन्यथा सब सुविधायें स्टेशनों पर निशुल्क हैं।

[caption id="attachment_6468" align="aligncenter" width="584"] खागा स्टेशन पर घुमन्तू साधू लोग।[/caption]

लगभग डेढ़ घण्टा मैने इंजन पर यात्रा की। असिस्टेण्ट पाइलट साहब की कुर्सी पर बैठ कर। बेचारे असिस्टेण्ट साहब मेरे पीछे खड़े हो कर अपना काम कर रहे थे। जब भी किसी स्टेशन पर उतर कर उन्हे इंजन चेक करना होता था तो मैं खड़ा हो कर उन्हे निकलने का रास्ता देता था। एक स्टेशन पर जब यह प्रस्ताव हुआ कि मैसेज दे कर आने वाले बड़े स्टेशन पर चाय मंगवा ली जाये तो मैने अपना निरीक्षण समाप्त करने का निर्णय किया। सार्वजनिक रूप से खड़े चम्मच की चाय (वह चाय जिसमें भरपूर चीनी पड़ी होती है, बिसाइड्स अदरक के) पीने का मन नहीं था।

इंजन से उतरते समय लोको पाइलट साहब ने एक अनूठा अनुरोध किया – वे मालगाड़ी के चालक हैं जो लम्बे अर्से से पैसेंजर गाड़ी पर ऑफीशियेट कर रहे हैं। इस खण्ड पर ले दे कर एक ही सवारी गाड़ी चलती है। अत: प्रोमोशन होने पर उनका ट्रांसफर हो जायेगा। तब बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को ध्यान में रख कर उन्हे प्रोमोशन रिफ्यूज करना पड़ेगा। अगर मैं एक अतिरिक्त सवारी गाड़ी इस खण्ड में चलवा दूं तो उनका और उनके जैसे अनेक लोको पाइलट का भला हो जायेगा।

सवारी गाड़ियां चलाने के लिये जनता, एमपी, एमएलए, बिजनेस एसोशियेशन्स आदि से अनुरोध आते रहते हैं। कभी कभी रेलवे स्टाफ भी छोटे स्टेशनों पर आने जाने के लिये मांग करता है। पर प्रोमोशन एक ही जगह पर मिल जाये – इस ध्येय के लिये मांग पहली बार सुनी मैने। यह लगा कि नयी जेनरेशन के कर्मियों के आने पर इस तरह की मांग शायद भविष्य में उठा करेगी।

अच्छा लगा फुटप्लेट निरीक्षण? शायद हां। शायद एक रुटीन था। जो पूरा कर लिया।

[caption id="attachment_6467" align="aligncenter" width="584"] खागा स्टेशन पर भजिया बेचता एक हॉकर।[/caption]

20 comments:

Sabhajeet Sharma said...

निश्चित ही बहुत बढ़िया आलेख ..!!
" द्रष्टि " ...जब चाहरदीवारियों से बाहर आकर , उन्मुक्त रूप से अपने चारों और घटित होते द्रश्य देखे , तो ऐसा लगता है की हम " आत्मा " के मूल स्वरुप में समां कर , निरपेक्ष भाव से , बिना किसी बंधन के , प्रकृति की हलचलों का आनंद ले रहे हैं ! ..और यह अगर द्रश्य , प्रकृति के ' पट परिवर्तन ' यानि सुबह -शाम के समय हो , तो आनंद ही कुछ और है ! ....बधाई ..!!

Kajal Kumar said...

1. मुझे लगा था कि‍ इंजन के भीतर की फ़ोटो देखने को मि‍लेंगी :)
2. ऑटोमोबाइल क्षेत्र ने बहुत तरक्की की है. वि‍देशों में ट्रक ड्राइवर वाले हि‍स्‍सों को देखकर कि‍सी भी लग्‍ज़री कार वाले तक को ईर्ष्‍या हो सकती है कि‍ क्‍या ग़ज़ब के आरामदेह और सुवि‍धासंपन्‍न होते हैं. क्‍यों नहीं भारत में भी लोकोमोटि‍व के ड्राइवर वाले हि‍स्‍सों को भी एकदम नए सि‍रे से डि‍ज़ाइन कि‍या जाता जि‍समें लग्‍ज़री भले न हो पर एक एअरकंडीश्‍ंड कार जैसे सुवि‍धाएं तो हो ही सकती हैं क्‍योंकि‍ इनके ड्राइवर लंबे समय तक वि‍भि‍न्‍न परि‍स्‍थि‍ति‍यों में इन्हें चलाते हैं. यही बात एक बार मैंने ABB के भारत -प्रमुख से भी की थी (उन दिनों सी.के. ज़ाफ़र शरीफ़ रेल मंत्री थे) जो लोकोमोटि‍व बेचने का प्रस्‍ताव लेकर भारत में थे. उनका कहना था कि‍ इस तरह की मांग वि‍कासशील देशों से नहीं आती है. आज तो हम स्‍वयं अपनी ज़रूरत लायक इंजन बना रहे हैं. हम ये चाहें तो कर सकते हैं.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बच्चों की पढ़ाई के लिए सभी परेशान रहता है।

sanjay @ mo sam kaun.....? said...

अच्छा लगा फ़ुटप्लेट निरीक्षण।

Shailesh Pandey (@shaileshkpandey) said...

:) ... भजिये वाला चित्र हमें स्मरण करा देता है के हम "बाभन पाठक" हैं .. वृत्तान्त पढकर मानस की बुभुक्षा का शमन हुआ तो वहीँ भजिये देखकर अब बाहर जाकर इनपर चढ़ाई करने की इच्छा बलवती हो गयी है :)

Gyandutt Pandey said...

एक सोच यह भी है कि अगर वातानुकूलित इंजन कैब हुआ तो चालक को नींद लेने की न सूझने लगे।
पर वास्तव में उसका फेटीग लेवल कम होगा और वह ज्यादा चुस्ती से काम कर पायेगा, अगर वातानुकूलन हुआ तो!

गिरीश said...

ज्ञान भैया आप का ब्लाग पढ़ कर हमेशा यही लगता हैं की आप अपने पाठको
को साथ ले लेते हो, ज्ञान वर्धक और रोचक पोस्ट ...और हां तस्वीरे हमेशा की
तरह " जीवंत " ..प्रणाम : गिरीश

प्रवीण पाण्डेय said...

हमारे यहाँ सब ड्राइवर पदोन्नत होकर बंगलोर ही आते हैं, बहुत अधिक पैसेन्जर ट्रेन हैं यहाँ, आप कहें तो एक भेज दें, ड्राइवर साहब का भला ही हो जाये।

Gyandutt Pandey said...

माल यातायात वाले को सवारी गाड़ी उपहार में देना मानो मधुमेह के मरीज को गरिष्ठ मिठाई देना। :lol:

ManojK said...

इंजन के अंदर की फ़ोटोज़ भी डालनी चाहिए थी !
'भजिया' टर्म यूपोरियन नहीं है(?), सही टर्म शायद 'पकोड़े' हो, जैसे 'कचोरी 'को 'खस्ता' भी कहा जाता है.

अगली फुटप्लेट यात्रा-विवरण का इंतज़ार रहेगा !

Gyandutt Pandey said...

हां, शायद मुझ पर मालवा का असर है, भजिया बोलने में!

dhirusingh said...

ABB engine layak patriya bhi to nahi hai bharat mein .

सलिल वर्मा said...

आपके लिए इस तरह के कार्यालयीन निरीक्षण आम और गुठली दोनों की तरह हैं जिनके दाम आप बखूबी वसूल कर लेते हैं.. निरीक्षण का निरीक्षण और पोस्ट की पोस्ट!! और हमारे लिए रेल से परे की कार्यप्रणाली साधारण ढंग से समझने का मौक़ा और आपके कैमरे के साथ यात्रा का का आनन्द लेना.. बस सबके लिए आम के आम और गुठलियों के दाम!! बहुत रोचक!!

Gyandutt Pandey said...

हमारे सारे ट्रंक रूट पर बिजली वाले एबीबी लोको (WAG9) चलते हैं।

Gyandutt Pandey said...

हां, मुझे सधे हुये सम्पादक का काम करना होता है कि रेलवे की वह जानकारी जो बाहर जाना ठीक न होगा, न जाये! :lol:

विष्णु बैरागी said...

आप कहाँ घर-गिरस्‍ती के झंझट में पड गए? आपकी तमाम पोस्‍टें तो यही बताती हैं कि आपको तो यायावर होना था। अभी यह हाल है तो तब क्‍या होता? कितना नुकसान हो चुका अब तक आपके पाठकों का? हर बार लगता है, आपका लिखा पढते रहाजाए - लगातार।

anupkidak said...

यात्रा विवरण चकाचक रहा। न हो तो ट्रेन चलवा ही दी जाये।नाम धरा जाये- हलचल एक्सप्रेस।

Vinod Shukla said...

ज्ञान वर्धक, रोचक और हमेशा की
तरह जीवंत। आपको तो पढने का आनंद ही कुछ और है !

Abhishek Arjav said...

@लगता है वहां सूअरों को पालने के लिये पर्याप्त गंदगी नहीं है। या जो भी कारण हो।......वहां के सूअर गन्दगी नहीं खाते ! ....वहां वे “सूअर” होते ही नहीं ....”गवरी” कहा जाता है ...उन्हें बहुत अच्छे से रखा जाता है ....और आलू के स्थान पर इस्तेमाल किया जाता है 

Gyandutt Pandey said...

जानकारी के लिये धन्यवाद!