Thursday, October 4, 2012

माधव सदाशिव गोलवलकर और वर्गीज़ कुरियन

[caption id="attachment_6221" align="alignright" width="195"] 'I Too Had a Dream' by Verghese Kurien[/caption]

वर्गीज़ कुरियन की पुस्तक – ’आई टू हैड अ ड्रीम’ में एक प्रसंग माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी” के बारे में है। ये दोनों उस समिति में थे जो सरकार ने गौ वध निषेध के बारे में सन् १९६७ में बनाई थी। इस समिति ने बारह साल व्यतीत किये। अन्त में मोरारजी देसाई के प्रधानमन्त्रित्व के दौरान यह बिना किसी रिपोर्ट बनाये/पेश किये भंग भी हो गयी।

मैं श्री कुरियन के शब्द उठाता हूं उनकी किताब से -

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पर एक आकस्मिक और विचित्र सी बात हुई हमारी नियमित बैठकों में। गोलवलकर और मैं बड़े गहरे मित्र बन गये। लोगों को यह देख कर घोर आश्चर्य होता था कि जब भी गोलवलकर कमरे में मुझे आते देखते थे, वे तेजी से उठ कर मुझे बाहों में भर लेते थे। …


गोलवलकर छोटे कद के थे। बमुश्किल पांच फीट। पर जब वे गुस्सा हो जाते थे तो उनकी आंखें आग बरसाती थीं। जिस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया वह थी उनका अत्यन्त देशभक्त भारतीय होना। आप यह कह सकते हैं कि वे अपनी ब्राण्ड का राष्ट्रवाद फैला रहे थे और वह  भी गलत तरीके से, पर आप उनकी निष्ठा पर कभी शक नहीं कर सकते थे। एक दिन जब उन्होने पूरे जोश और भावना के साथ बैठक में गौ वध का विरोध किया था, वे मेरे पास आये और बोले – कुरियन, मैं तुम्हें बताऊं कि मैं गौ वध को इतना बड़ा मुद्दा क्यों बना रहा हूं?


मैने कहा, हां आप कृपया बतायें। क्यों कि, अन्यथा आप बहुत बुद्धिमान व्यक्ति हैं। आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?




[caption id="attachment_6220" align="alignleft" width="258"] माधव सदाशिवराव गोलवलकर ’गुरुजी’[/caption]

"मैने गौ वध निषेध पर अपना आवेदन असल में सरकार को परेशानी में डालने के लिये किया था।’ उन्होने मुझे अकेले में बताना शुरू किया। "मैने निश्चय किया कि मैं दस लाख लोगों के हस्ताक्षर एकत्रित कर राष्ट्रपति जी को ज्ञापन दूंगा। इस सन्दर्भ में मैने देश भर में यात्रायें की; यह जानने के लिये कि हस्ताक्षर इकठ्ठे करने का काम कैसे चल रहा है। इस काम में मैं उत्तर प्रदेश के एक गांव में गया। वहां मैने देखा कि एक महिला ने अपने पति को भोजन करा कर काम पर जाने के लिये विदा किया और अपने दो बच्चों को स्कूल के लिये भेज कर तपती दुपहरी में घर घर हस्ताक्षर इकठ्ठा करने चल दी। मुझे जिज्ञासा हुई कि यह महिला इस काम में इतना श्रम क्यों कर रही है? वह बहुत जुनूनी महिला नहीं थी। मैने सोचा तब भान हुआ कि यह वह अपनी गाय के लिये कर रही थी – जो उसकी रोजी-रोटी थी। तब मुझे समझ आया कि गाय में लोगों को संगठित करने की कितनी शक्ति है।"


"देखो, हमारे देश का क्या हाल हो गया है। जो विदेशी है, वह अच्छा है। जो देशी है वह बुरा। कौन अच्छा भारतीय है? वह जो कोट-पतलून पहनता है और हैट लगाता है। कौन बेकार भारतीय है? वह जो धोती पहनता है। वह देश जो अपने होने में गर्व नहीं महसूस करता और दूसरों की नकल करता है, वह कैसे कुछ बन सकता है? तब मुझे लगा कि गाय में देश को एक सूत्र में बांधने की ताकत है। वह भारत की संस्कृति का प्रतीक है। इस लिये कुरियन इस समिति में तुम मेरी गौ वध विरोध की बात का समर्थन करो तो भारत पांच साल में संगठित हो सकता है। … मैं जो कहना चाहता हूं, वह यह है कि गौ वध निषेध की बात कर मैं मूर्ख नहीं हूं, और न ही मैं धर्मोन्मादी हूं। मै  ठण्डे मन से यह कह रहा हूं – मैं गाय का उपयोग अपने लोगों की भारतीयता जगाने में करना चाहता हूं। इस लिये इस काम में मेरी सहायता करो।"


खैर, मैने गोलवलकर की इस बात से न तो सहमति जताई और न उस समिति में उनका समर्थन किया। पर मुझे यह पक्का यकीन हो गया कि वे अपने तरीके से लोगों में भारतीयता और भारत के प्रति गर्व जगाना चाह रहे थे। उनके व्यक्तित्व के इस पक्ष ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ये वह गोलवलकर थे, जिन्हे मैने जाना। लोगों ने उन्हे महात्मा गांधी की हत्या का षडयंत्र रचने वाला कहा, पर मैं इस में कभी यकीन नहीं कर पाया। मुझे वे हमेशा एक ईमानदार और स्पष्टवक्ता लगे और मुझे यह हमेशा लगता रहा कि अगर वे एक कट्टरवादी हिन्दू धर्मोन्मादी होते तो वे कभी मेरे मित्र नहीं बन सकते थे।


अपनी जिन्दगी के अन्तिम दिनों में, जब वे बीमार थे और पूना में थे, तो उन्होने देश भर से राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के राज्य प्रमुखों को पूना बुलाया। वे जानते थे कि वे जाने वाले हैं। जब उनका देहावसान हो गया तब कुछ दिनों बाद मेरे दफ्तर में उनमें से एक सज्जन मुझसे मिलने आये। "श्रीमान् मैं गुजरात का आरएसएस प्रमुख हूं", उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा – "आप जानते होंगे कि गुरुजी अब नहीं रहे। उन्होने हम सब को पूना बुलाया था। जब मैने बताया कि मैं गुजरात से हूं तो उन्होने मुझसे कहा कि “वापस जा कर आणद जाना और मेरी ओर से कुरियन को विशेष रूप से मेरा आशीर्वाद कहना।” मैं आपको गुरुजी का संदेश देने आया हूं।"


मैं पूरी तरह अभिभूत हो गया। उन्हे धन्यवाद दिया और सोच रहा था कि वे सज्जन चले जायेंगे। पर वे रुके और कहने लगे – "सर, आप ईसाई हैं। पर गुजरात में सभी लोगों में से केवल आपको ही अपना आशीर्वाद क्यों भेजा होगा गुरुजी ने?"


मैने उनसे कहा कि आपने यह गुरुजी से क्यों नहीं पूछा? मैं उन्हे कोई उत्तर न दे सका, क्यों कि मेरे पास कोई उत्तर था ही नहीं!







श्री कुरियन की पुस्तक का यह अंश मुझे बाध्य कर गया कि मैं अपनी (जैसी तैसी) हिन्दी में उसका अनुवाद प्रस्तुत करूं। यह अंश गोलवलकर जी के बारे में जो नेगेटिव नजरिया कथित सेकुलर लोग प्रचारित करते हैं, उसकी असलियत दिखलाता है।

उस पुस्तक में अनेक अंश हैं, जिनके बारे में मैंने पुस्तक पढ़ने के दौरान लिखना या अनुवाद करना चाहा। पर वह करने की ऊर्जा नहीं है मुझमें। शायद हिन्दी ब्लॉगिंग का प्रारम्भिक दौर होता और मैं पर्याप्त सक्रिय होता तो एक दो पोस्टें और लिखता। फिलहाल यही अनुंशंसा करूंगा कि आप यह पुस्तक पढें।

मेरा अपना मत है कि साठ-सत्तर के दशक में भारतीय समाज को गाय के मुद्दे पर एक सूत्र में बांधा जा सकता था। अब वह स्थिति नहीं है। अब गाय या गंगा लोगों को उद्वेलित नहीं करते।

[कुरियन गौ वध निषेध के पक्षधर नहीं थे। वे यह मानते थे कि अक्षम गायों को हटाना जरूरी है, जिससे (पहले से ही कम) संसाधनों का उपयोग स्वस्थ और उत्पादक पशुओं के लिये हो सके; जो डेयरी उद्योग की सफलता के लिये अनिवार्य है। हां, वे उत्पादक गायों के वध निषेध के पक्ष में स्टेण्ड लेने को तैयार थे।]

14 comments:

शिवेंद्र मोहन सिंह said...

मैंने भी गोलवलकर जी के व्यक्तित्व पर एक किताब पढ़ी है, उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था की जो भी उनके संपर्क में आ जाता था वो उनका कायल हो जाता था. नई जानकारी देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया.

prashant said...

वैसे ही जैसे कि माँ-बाप के बूढ़े होने पर उन्हें भी जिबह होने भेज दिया जाये, इन्हीं निरीह पशुओं की तरह| मनुष्य कभी भी इन्सान नहीं बन सकेगा|

dhirusingh said...

यदि एक गुरु जी और होते संघ के पास तो तस्वीर ही दूसरी होती . खैर ..................

दीपक बाबा said...

@ यह अंश गोलवलकर जी के बारे में जो नेगेटिव नजरिया कथित सेकुलर लोग प्रचारित करते हैं, उसकी असलियत दिखलाता है

लेकिन आज इन सेकुलर लोगों की लोबी जबरदस्त बन चुकी है.... किसी भी राष्ट्रवादी व्यक्ति के उजले पक्ष पर कीचड़ पोंछना ही इनका एकमात्र धेय्य है.

गुरूजी के व्यक्तित्व के बारे में आपने ब्लॉग पर लिख कर सहरानीय काम किया है. साधुवाद.

Sushil Kumar said...

मेरे पास वर्गीज़ कुरियन की पुस्तक – 'आई टू हैड अ ड्रीम' है तो सही लेकिन पढ़ने का वक़्त नहीं मिल पाया था, किताब याद दिलाने के लिए शुक्रिया।

indowaves said...

सेकुलर आत्माओ कों पढवाएं ..बहुत भौंकतें है..जितना कूड़ा करकट मिलता है उन सब को पढ़कर उससें बड़ा कूड़ा करकट पब्लिश करते है..अंत में अनुवाद अच्छा है...

http://indowaves.wordpress.com/

Kajal Kumar said...

आज सुबह कि‍सी चैनल पर मोरारी बापू का प्रवचन था कि दि‍न में तारे इसलि‍ए दि‍खाई नहीं देते क्‍योंकि सूर्य का प्रकाश तारों के प्रकाश से तेज़ होता है... सभी में कुछ बुराइयां / कुछ अच्‍छाइयां होती हैं. बस कि‍सी एक धारणा वि‍शेष के चलते, हम दूसरा पहलू नहीं देखते/देख पाते.

प्रवीण पाण्डेय said...

गाय हमारी संस्कृति को वह ईकाई है जिस पर हमारा रहन सहन निर्भर रहा है। गायों को पाला है और पाया है कि गायें ही देश पाल सकती हैं। बंगलोर में गायों का सानिध्य नहीं मिल पा रहा है।

Himanshu Gupta said...

बिना जाने समझे निंदा करने का प्रचलन आदि काल से है शायद, और अनंत काल तक रहेगा. ये तो गोलवलकर जी थे, लोग तो सनातन धर्म की निंदा बड़े प्रेम से करते हैं जो सनातन के स का भी मर्म नहीं समझते.

Prof. Ravi Shankar Prasad said...

सार तत्व एक ही बात है, गाय हमारी माता है...
और मनुष्य नामक प्राणी अपनी माता से कैसा सलूक करता है?

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

इस प्रस्तुति के लिये आपका आभार! बड़े लोग क्या सोचते हैं क्या करते हैं, यह समझ पाना आसान नहीं है मगर इतना तय है कि अच्छे लोग सबका भला चाहते हैं और इसी कारण वैचारिक और सैद्धांतिक भिन्नता होते हुए भी एक दूसरे के प्रति सच्चा प्रेम और श्रद्धा रख सकते हैं और उसे निडरता से अभिव्यक्त भी कर सकते हैं। बड़ों का स्नेह कोई भी पा सकता है लेकिन उनका आदर पाना सबके बस की बात नहीं ...

विष्णु बैरागी said...

कोई भी न तो पूरी तरह बुरा होता है और न ही पूरी तरह अच्‍छा। जो किसी के लिए बुरा है, वह अन्‍य किसी के लिए अच्‍छा हो सकता है और जो किसी के लिए अच्‍छा है वह अन्‍य किसी के लिए बुरा हो सकता है। अपने आचरण, आग्रहों, और असहमतों के प्रति व्‍यवहार से व्‍यक्ति की सार्वजनिक छवि बनती है।

offshore corporations said...

ये श्लोक महाभारत के वनपर्व के हैं तथा जिसमे एक वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा की गयी है | जिस खंड का उद्देश्य ही वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा हो उस के अन्दर चार हजार निर्दोष पशुओं की हत्या करके कीर्ति प्राप्त करने की बात लिखी होना हास्यास्पद है |इस प्रसंग में पुत्र वध से दुखी राजा युधिषठिरको समझाते हुए भगवन श्री कृष्ण कहानते हैं की पूर्व काल के कई यशस्वी राजा भी जीवित नहीं रहे | इसी क्रम में भगवन सही कृष्ण ने कई राजाओं जैसे शिबी आदि के नाम बताये जिन्होंने गौ दान के द्वारा यश अर्जित किया था |कहीं भी गौ हत्या जैसा कोई प्रसंग नहीं है |महाभारत में उसके ठीक पहले वाले अध्याय में "अहिंसा परमो धर्मः" का सन्देश दिया गया है | एक अध्याय में अहिंसा परमो धर्मः का उपदेश देकर अगले ही अध्याय में हिंसा करने वाले राजा की कीर्ति कैसे गायी जा सकती है ?

Ashok Upadhyay said...

दोस्त ,
जैसी तैसी हिंदी नहीं. दिल से किया गया बहुत सुंदर अनुवाद है .
शुभ कामनाओ सहित