Sunday, March 24, 2013

सन्तोष कुमार सिंह

[caption id="" align="alignnone" width="500"]image श्री संतोष कुमार सिंह (दायें) के साथ मैं।[/caption]

आज श्री सन्तोष कुमार सिंह मिलने आये। वे टोकियो, जापान से कल शाम नई दिल्ली पंहुचे और वहां से अपने घर वाराणसी जा रहे थे। रास्ते में यहां उतर कर मुझसे मिलने आये।

सन्तोष तेरह साल से जापान में हैं। वे जे.एन.यू. में थे और स्कॉलरशिप से जापान पंहुचे। वहां एम.बी.ए. की पढ़ाई कर वापास भारत लौटे तो परिथितियां कुछ ऐसी बनी कि पुन: जापान जाना पड़ा और अब वहां से आते जाते रहते हैं। अभी होली पर आये हैं। फिर शायद दीपावली पर आना हो। उनसे बातचीत में लगा कि उनतीस मार्च तक उनका व्यस्त कार्यक्रम है। यहां से अपने पिताजी के पास वारणसी जायेंगे। फिर शायद अपने पैत्रिक गांव भी जाना हो।

[caption id="attachment_6735" align="alignright" width="584"]श्री संतोष कुमार सिंह का फेसबुक प्रोफाइल श्री संतोष कुमार सिंह का फेसबुक प्रोफाइल[/caption]

एक गोल गले का टीशर्ट-ट्राउजर पहने यात्रा की थकान से उनींदे होने पर भी सन्तोष सिंह मुझे ऊर्जा से ओतप्रोत लगे। सवेरे पुरुषोत्तम एक्स्प्रेस से रेलवे स्टेशन उतर कर उन्होने अपना सामान क्लॉक रूम के हवाले किया और ढूंढ कर पता किया मेरा मोबाइल नम्बर, शिवकुटी की लोकेशन आदि। कोटेश्वर महादेव मन्दिर तक वे स्वयम् के पुरुषार्थ से पंहुचे।

ऐसी जद्दोजहद क्यों की उन्होने? स्वयम् ही बताया सन्तोष ने - जीवन में कुछ एक घटनायें हुई हैं, जिनमें मैं जिनसे मिलना चाहता था, मिल न पाया। अत: अब जिनसे मिलने का एक बार मन में आता है; उसे खोज-खोज कर मिल लेता हूं। यह मैं टालना नहीं चाहता।

क्या कहेंगे? खब्ती? असल में दुनियां का चरित्र इसी तरह के जुनूनी लोगों के बल पर कायम है। वो लोग जो एक चीज करना चाहते हैं, तो करने में जुट जाते हैं। कम ह्वाट मे!

संतोष मेरे पास लगभग पौना घण्टा रहे। मेरी पत्नीजी से पूरे आदर भाव (चरण स्पर्श करते हुये) से मिले। लम्बे अर्से से जापान में रहने के बावजूद भी इस तरह के संस्कार मिटे नहीं, इसमें संतोष की चारित्र्यिक दृढ़ता दीखती है मुझे।

संतोष मेरे लिये एक पुस्तक और एक जापानी मिठाई का पैकेट लाये थे। उनके साथ जापान के बारे में बातचीत हुई और जितना कुछ हुई, उससे उस देश के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा बलवती हो गयी है। अब नेट पर जापान विषयक सामग्री और पुस्तकें तलाशनी होंगी।

संतोष ने मुझे जापान आने के बारे में कहा और यह भी बताया कि जिन कारणों से मैं इलाहाबाद आ गया हूं (माता-पिता के वृद्धावस्था के कारण), लगभग उन्ही तरह के कारणों से अगले कुछ वर्षों में शायद उन्हे भी भारत वापस आना पड़े [आपके पिताजी आपके साथ जापान नहीं रह सकते? जवाब - "पिताजी को रोज सवेरे दैनिक जागरण का ताजा प्रिण्ट एडीशन चाहिये; वह जापान में कहां मिलेगा?"]। हम दोनो ने बातचीत में यह सहमति भी जताई की इसके बाद की पीढ़ियों से भारत वापस आने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। अभी कल ही गैलप पोल का एक विवरण पढ़ा है कि एक करोड़ भारतीय स्थाई रूप से अमेरिका बसने के इच्छुक हैं!

जापान में व्यवस्था, भारत की अव्यवस्था के ठीक उलट है। संतोष ने बताया कि उनके पिताजी बार बार कहते थे कि वहां काहे पड़े हो, भारत आ जाओ। पर साल वे पिताजी को जापान ले कर गये और वहां का माहौल देख कर वे प्रभावित हुये। अब वे मानते हैं कि जापान में रहने के भी ठोस तर्क हैं।

संतोष ने हमसे कुछ हिन्दी पुस्तकों के बारे में पूछा। मैने उन्हे श्री अमृतलाल वेगड़ जी की पुस्तक "तीरे तीरे नर्मदा" की एक प्रति दी, जो मेरे पास अतिरिक्त आ गयी थी और सुपात्र की प्रतीक्षा में थी। उन्हे विश्वनाथ मुखर्जी की "बना रहे बनारस" और बृजमोहन व्यास की "कच्चा चिठ्ठा" पढ़ने की अनुशंसा भी मेरी पत्नी जी ने की।

संतोष कुछ ही समय रहे हम लोगों के साथ। मिलना बहुत अच्छा लगा। और मुझे यह भी लगा कि इस नौजवान से मिलनसार बनने का गुरु-मन्त्र मुझे लेना चाहिये!

संतोष बोल कर गये हैं कि शायद दीपावली में पुन: मिलना हो। प्रतीक्षा रहेगी उनकी!

19 comments:

Desh Bharat said...

वाह! मुझ पर लिखा गया आपका ब्लॉग सोशल मीडिया पर मेरी सबसे कीमती धरोहर है

sanjay @ mo sam kaun.....? said...

हमारा एक पुराना सहकर्मी ’भोला’ ऐसे मौकों पर हिंदी+पंजाबी+डोगरी में कुछ कहता था जिसका सरलार्थ ये निकलता था कि ’आदमी ही आदमी से मिलता है, कुँआ कुँए से नहीं’
अच्छे लोग अच्छे लोगों से मिलते रहें।

Gyandutt Pandey said...

धन्यवाद! इससे यह विचार दृढ़ होता है कि हमें आपसी सम्पर्क के बारे में अधिकाधिक व्यक्त करना चाहिये!

vijay kumar tiwary said...

Your goodness forced him to meet you n family. I have no word how to express it. I liked this blog.

Gyandutt Pandey said...

क्या सुन्दर दार्शनिक कथन है। भोला जी को धन्यवाद! आपको भी!

Gyandutt Pandey said...

आप मुझे क्रेडिट दे रहे हैं। मैं सन्तोष को देता हूं। वास्तव में इनीशियेटिव सन्तोष जी का था - आश्चर्यजनक रूप से सुखद!

Shrish said...

रोचक मुलाकात

प्रवीण पाण्डेय said...

जिससे मिलना चाहते हैं, ढूढ़ लेते हैं। हम भी बहुत प्रभावित हुये..कल ही पास निकलवाते हैं..पता नहीं कहाँ हैं वे, पता भी तो नहीं है।

Gyandutt Pandey said...

मैने ज्यादा प्रोब नहीं किया, पर लगता है कई मार्मिक संस्मरण हैं इस सोच के पीछे। ... प्रिय व्यक्ति का अचानक चले जाना...

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

वाह, भोला की बातें (भोली बातें भी नहीं कह सकता, हिंदी+पंजाबी+डोगरी में लोग अर्थ का अनर्थ कर सकते हैं)

Smart Indian - अनुराग शर्मा said...

दो सरलमना व्यक्तियों की मुलाक़ात का विवरण पढ़कर अच्छा लगा। जापान संसार की सबसे विनम्र भूमि है। वहाँ रहकर तो मेरे जैसे लोग भी विनम्र हो जाते हैं,संतोष जी तो पहले से ही संस्कारी हैं।

Utkarsh Shukla (@anshu_utkarsh) said...

aapka vyaktitv hi aisa hai ki log aap ki taraf khiche chale aate hai, aisa hi kuch jaadoo santosh ji per bhi kiya hai aapne aur aapki kalam ne........................

पा.ना. सुब्रमणियन said...

सन्तोष कुमार सिंहनजी के बारे में पढ़कर अछा लगा. वैसे भी आपसे मुलाकात कौन नहीं करना चाहेगा.

Manoj K said...

अच्छी रही यह मुलाक़ात. अंतरजाल के अलावा भी लोग मिलें और मिलने पर वैसे ही भाव हों जैसा ई-मुलकात पर हो तो मुलाक़ात का मज़ा कई गुना हो जाये !

Girish Singh said...

आप से मुलाकात तो रोचक ही रही होगी ...मुलाकात का विवरण उससे भी अधिक रोचक लगा .
संतोष भाई को साधुवाद ...उनके विचारो एवं अपने देश से लगाव को शत: शत: नमन .. ट्विटर और
फसेबुक का ये उजला पक्ष हैं वरना हम लोग ज्ञान भैया से कहा मिल पाते ...गृहस्थ आश्रम के संत हैं ज्ञान भैया .
प्रणाम

Gyandutt Pandey said...

इस टिप्पणी से अभिभूत हुआ, गिरीश! जय हो!

sanjay @ mo sam kaun.....? said...

तभी तो निहितार्थ बता दिया था :)

संतोष कुमार सिंह said...

ज्ञानदत्त जी को सादर प्रणाम
आपसे मिलकर मेरी प्रसन्नता का अनुमान लगाना बहुत आसान है बशर्ते सोच भी आसान हो ।
मै जब तक बनारस अपने घर नही पँहुचता तब तक दिल्ली से घर तक का सफ़र एक उस दर्शक की तरह रहता है जो सर्कस के बाहर बैठ कर कभी ताली बजाता तो कभी अफ़सोस करता रहता है ।
इस बार एक उस इंसान से मिलने की आकांक्षा थी जो सरल दिखता है , सरल लिखता और सरलता से कैमरे का बटन दबाता है ।
इस बार सब वैसा ही निकला जैसा सोच कर चला था ।

मिलते है हम रोज़ सुबह शाम सबसे अजनबी की तरह
भागम भाग ज़िंदगी ये सुबह शाम अजनबी की तरह
काश इन्सान इन्सान बन जाये ,हुई अभी देर नही
मिलाजुला सफ़र है दोस्तों , सब जाने पहचाने है
किसी अजनबी की तरह ।

जापान में सिवाय समय के आपको सब कुछ उपलब्ध है ।
हाँ , इमीरती खाया सालों बाद , चाची जी जिस को स्पर्श कर दे मिठास दुगनी हो जाती है , प्रमाण के लिये ज्ञानदत्त जी तो है ही ।
प्रणाम
आशीर्वाद का आकांक्षी
संतोष

Gyandutt Pandey said...

ओह, क्या शानदार, जानदार और प्रिय टिप्पणी! जियो, बन्धु! जय हो!