Monday, August 12, 2013

कचरा उठता नहीं!

सन 1985 में जब मैने रेलवे की नौकरी में पहली पोस्टिंग रतलाम में ज्वाइन की थी तो वहां मण्डल रेल प्रबन्धक कार्यलय के पास दो-बत्ती इलके में सवेरे 25-30 सफाई कर्मी झाडू लगा कर पानी का छिडकाव किया करते थे। कालांतर में यह व्यवस्था बन्द हो गयी। लगभग 15 साल वहां (दो चरणों में) रहने के बाद जब 2003 में वहां से निकला तो सड़के पहले की अपेक्षा बहुत अधिक धूल भरी और कचरा युक्त हो चुकी थीं।

[caption id="attachment_7078" align="alignright" width="300"]सफाई कर्मी न होने पर सूअर हाथ बटाते हैं! सफाई कर्मी न होने पर सूअर हाथ बटाते हैं![/caption]

कमोबेश हर शहर का यह हाल है। सफाई कर्मियों की संख्या बढ़ी नहीं है। प्रति सफाई कर्मी जितनी सड़क साफ होनी चाहिये, वह नहीं होती और मशीनों का प्रयोग - मशीनों पर बहुत खर्चा करने के बावजूद - नहीं होता। कारण यह है कि हमारी सड़कें और फुटपाथ उन मशीनों के प्रयोग के लिये सही तरह डिजाइण्ड नहीं हैं।

कचरा पहले की अपेक्षा दुगना-तिगुना हो गया है और उसका उतना कलेक्शन ही नहीं होता। इसलिये काफी कचरा शहर की गलियों-सड़कों पर बिखरा दिखता है।

इलाहाबाद में कुम्भ मेले के समय सड़कें सुधरी थीं और साफ सफाई हुई थी। पर हालात बहुत तेजी से सामान्य होते गये हैं। मेन रोड ही टूटने लगी हैं वर्षा से और कचरा इधर उधर बिखरा नजर आता है।

[caption id="attachment_7079" align="aligncenter" width="584"]शिवकुटी मन्दिर की सड़क के किनारे का हाल। आज सावन के मेले का इंतजाम होने जा रहा है यहाँ! शिवकुटी मन्दिर की सड़क के किनारे का हाल। आज सावन के मेले का इंतजाम होने जा रहा है यहाँ![/caption]

द बक स्टॉप्स एट रिपन बिल्डिंग नामक शीर्षक से( सन 1913 में बनी रिपन बिल्डिंग में चेन्ने कार्पोरेशन का कार्यालय है)  आज द हिन्दू में एक लेख है, जिसमें चेन्ने की सफाई व्यवस्था के बारे में लिखा है। इस लेख में बताया गया है -

[caption id="attachment_7082" align="aligncenter" width="300"]द हिन्दू के ओरीजनल आर्टीकल में चित्र द हिन्दू के ओरीजनल आर्टीकल में चित्र[/caption]

  1. सन 1991 में चेन्ने में दो डम्प यार्ड थे। आज भी उतने ही हैं।

  2. 19300 सफाई कर्मी हैं। उनमें से 6900 रोज सड़कें साफ करते हैं। प्रति कर्मी 500 मीटर सड़क साफ होनी चाहिये। पर काम करने वालों में अधिकांश अधेड़ महिलायें हैं। उनसे उतना काम होता ही नहीं।

  3. प्रति कर्मी औसत 250 किलो कचरा उठना चाहिये पर कार्यकुशलता इस टार्गेट की आधी ही है।

  4. शहर में 12 मेकेनिकल सड़क सफाई करने वाले यंत्र हैं। ये चार किलोमीटर प्रतिघण्टा सड़क साफ कर सकते हैं। पर उनका प्रयोग सही नहीं हो पाता। सड़कें ठीक से डिजाइन नहीं हैं!

  5. करीब 5200 व्यक्ति ट्राईसाइकल से घर घर कचरा उठाते हैं। पर शहर के लोग कहते हैं कि यह व्यवस्था अपर्याप्त है।


मेरे ख्याल से चेन्ने की व्यवस्था कई उत्तरभारतीय शहरों से कहीं बेहतर होगी। पर जब वहां यह असंतोषजनक है तो अन्य जगहों की व्यवस्था तो भगवान भरोसे!

7 comments:

Pandey Satyanarayan said...

Dhanyavad Pandeyji / warm regards

mahendra mishra said...

हर तरफ यहीं हाल हैं जिम्मेदार सजगता के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहे हैं ...

अनूप शुक्ल said...

गन्दगी करना गन्दगी साफ़ करने के मुकाबले कम मेहनत का काम है। लोग "करेंट फ़ालोस द लीस्ट रेजिस्टेंट पाथ " के शाश्वत नियम का पालन करते हुये अपने काम में जुटे हैं! :)

पा.ना. सुब्रमणियन said...

कचरे की फोटो खींच कर ही हम संतुष्ट होने के लिए मजबूर हैं

Kajal Kumar said...

अभी देश की बहुत बड़ी बड़ी समस्‍याएं पर काम हो रहा है...

Gyandutt Pandey said...

श्री रवि रतलामी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी -
मैं भी रतलाम 1989 से 2008 तक रहा और उस चकाचक साफ सुथरे, मध्य प्रदेश के सर्वाधिक साक्षर, शानदार शहर को कचरा और गड्ढेदार सड़कों युक्त भीड़भाड़ वाले शहर में तब्दील होते देखा.
आमतौर पर यही हाल सब तरफ है. जब 1989 में राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) शहर छोड़ा था, तब वह बेहद प्यारा सा छोटा सा कस्बा-नुमा शहर था. अभी पिछली बार गया तो भीड़, वाहनों की रेलमपेल और धूल से लगा कि वो प्यारा शहर कहीं गुम हो चुका है.

जनसंख्या इतनी अधिक हो रही है कि चहुँओर अव्यवस्थाएं होना ही है.

प्रवीण पाण्डेय said...

बंगलोर की सफाई व्यवस्था पर गर्व करने वाले समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या हो गया?