शिवकुटी का मेला श्रावण शुक्ला अष्टमी को होता है। इस साल यह २६ जुलाई को था।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी धरयो शरीर - अर्थात तुलसी जयन्ती के अगले दिन। तुलसी जयन्ती से इस मेले का कोई लेना देना नहीं लगता। शायद कोटेश्वर महादेव मन्दिर मे शिवलिंग के पीछे विराजमान देवी जी से लेना देना हो, जिनके लिये अष्टमी को यह मेला बनाया गया हो। पर अष्टमी को सवेरे देखा तो मन्दिर पर अखण्ड रामचरितमानस पाठ चलरहा था, जो पिछले दिन प्रारम्भ हुआ था और जिसका समापन नजदीक था। एक ओर यह मानस पाठ चल रहा था, दूसरी ओर मेला पर दुकान लगाने वाले तैय्यारी कर रहे थे।
आलू दम का खोमचा लगाने वाला सवेरे ही तैनात हो गया था। आलू निश्चय ही कल उबाले रहे होंगे। बरसात के सेलन भरे मौसम में अगर गरमी और उमस बढ़ी तो देर शाम तक यह आलू दम खाने लायक नहीं बचेगा। पर यह भी तय है कि खोमचे वाला अपना समान जरूर से पूरा बेच पाने में सफल होगा। भीड़ मेले में इतनी होती है कि – रज होई जाई पसान पोआरे (पत्थर फेंको तो भीड़ में रेत बन जाये)। उस भीड़ में सब बिक जायेगा।
शिवकुटी का मेला - सन २००८ की पुरानी पोस्ट।
एक दुकानदार जमीन पर किताबें और चित्र सजा रहा था। मेंहदी उकेरने की चित्र वाली किताबे भी थी उनमें। औरतें वह खरीदती हैं, जरूर पर मेंहदी लगवाती किसी अनुभवी उकेरने वाली से हैं। ये किताबें सिर्फ उनकी कल्पना को पोषित करते होंगे।
एक नानखटाई, मिठाई, अनरसा, सोनपापड़ी, घेवर वाले की दुकान – ठेला जम गया था सवेरे सवेरे। कड़ाही गरमाने की तैय्यारी हो रही थी। यह दुकान अच्छी बिक्री करने वाली है – शर्तिया!
[caption id="attachment_5971" align="aligncenter" width="800"] मिठाई, अनरसा, नानखटाई की दुकान।[/caption]
खिलौने, चश्मा, बांसुरी, गुब्बारा वाला अपना सामान एक डण्डे पर लटका चुका था। सस्ता सामान। वे माता पिता, जो पैसा कम खर्च कर काम चलाना चाहेंगे, बच्चों को इसी दुकान के सामान से बहलायेंगे। एक अन्य दुकानदार इसी तरह का सामान तिरपाल लगा कर उसके नीचे सजा रहा था।
नगरपालिका के कर्मचारी थे जो चूने की लकीर बिछा रहे थे। नगरपालिका, पुलीस, बिजली और पानी वाले अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से करते हैं। एक बारगी तो लगता है कि वास्तव में बहुत कर्मठ लोग हैं ये जो मेला को सफल बनाने के लिये हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं। पर थोड़ा तह में जायें तो पायेंगे कि मेला भी उन्हे भरपूर देता है।
एक चाट बेचने वाली दुकान के आदमी और बिजली वाले के बीच यह संवाद सुनें:
केतना लाइट हईं (कितनी लाइट हैं?)
अब तीन लिख लें। (सात आठ सी.एफ.एल. आप गिन ही सकते हैं।)
(मन्द आवाज में) देख्यअ, पईसा और केहू के जिनि देह्यअ। (देखना पैसा किसी और को मत दे देना। अर्थात यह बिजली कर्मी पैसा खुद लेना चाहता है। ... हर आदमी मेला से कमाई झटकने को आतुर!)
सवेरे मैने मेले की तैय्यारी भर देखी। शाम ओ दफ्तर से आने में देर हो गयी (रास्ते में ट्रेफिक जाम लगा था)। अत: भीड़ भाड़ वाला मेला नहीं देख पाया। घर पर ही एक दुकान से मंगाई आलू टिक्की खाने को मिल गयी। अगले दिन सवेरे जब घूमने के लिये निकले तो दुकानें सिमट गयी थीं। दोना-पत्तल चाटने सूअर घूम रहे थे। एक बड़े स्टेज (जो एक ट्रक पर था) बहुत से लोग सो रहे थे।
पर साढ़े नौ बजे दफ्तर जाते समय पाया तो करीब पच्चीस तीस सफाई कर्मी (अधिकांश स्त्रियां) सड़क साफ करने में लगे थे। शाम तक सब कुछ साफ सुथरा (यथावत) दिखा।
मेला अच्छे से सम्पन्न हो गया था![slideshow]
11 comments:
शिव कुटी मेला दर्शन का नवीकरण कर दिया आपने।
मेहदी वाली बात से याद आया परसों शाम बाजार गया था तो पहली बार कुछ मेहंदी लगाने वाली लड़कियों को भी देखा वरना हमारे इधर तो इस फील्ड में लड़कों की ही मोनोपोली है| और अब भी ज्यादा भीड़ मेहंदी उकेरने वालों के पास थी, वालियों के पास नहीं|
बचपन से मेला अच्छा लगता है, एक ही स्थान पर कितना कुछ सीखने को मिलता है। हम लोग घंटों मटरगस्ती किया करते थे इसमें।
हम भी मेले घूम लिये, आपने एकदम जीवंत वर्णन कर दिया । हमें भी उज्जैन के कार्तिक मेले की याद आ गई ।
ये जिन्दगी के मेले.
अच्छा लगा. आजकल के बच्चे ब्रांडेड खिलौने मांगते हैं. हाँ मेले उनके लिए थोड़े ही हैं.
यह तो रग रन में दौड़ रहा है, खत्म न होगा.
पत्नी के नाम का पहला गोदना यहीं गोदवाये थे दाहिने हाथ पर ..आज भी यादों में तरोताजा है यह शिवकुटी का मेला !
जीवंत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कह सकता!!
एक साथ दो मेला घूम लिये! :)
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