Monday, January 2, 2012

नया साल और लदर फदर यात्री

निरंतरता में नये साल के क्या मायने हैं। शायद वही जो यात्रा में मील के पत्थर के होते हैं। हम शुरुआत भी शून्य से नहीं करते हैं और यह भी ज्ञात नहीं होता कि गंतव्य, वह जो भी कुछ हो, उसका मील का पत्थर कौन सा होगा। पर हर मील के पत्थर पर सुकून होता है कि एक निश्चित दूरी सकुशल पार कर आये हैं।

बहुत कुछ वैसी अनुभूति, या शायद वैसी नहीं भी। टाइम और स्पेस - समय और स्थान के दो मानकों को एक सा नहीं माना जा सकता। स्थान में आपके पास लौटानी की सम्भावना होती है। समय में वह नहीं होती। अगर आप वापस लौटते हैं तो यादों में ही लौटते हैं।

पर यात्रा है दोनो में - टाइम में भी और स्पेस में भी। बचपन और जवानी में समय की यात्रा बहुत कौतूहल और ग्लैमर भरी लगती है। मिड लाइफ में वह भयावह लगने लगती है। फिर कोर्स करेक्शन का समय आता है। अब तक यूं ही चलते चले हैं; पर अब लगता है कि एक कम्पास खरीद लिया जाये। उस दिशा-यंत्र के साथ यात्रा बेहतर लगने लगती है।  कुछ लोग और दूरदर्शी होते हैं। वे कम्पास के साथ साथ दूरबीन ले कर चलते हैं। आगे देखते हैं और रात में तारों को भी निहार लेते हैं।

मैं भी ये उपकरण साथ लेकर चला हूं। पर बड़ा लदर फदर यात्री हूं। पीठ पर लदे बोझे में ये उपकरण ठूंस देता हूं और बहुधा उनके बिना चलता हूं समय के सफर पर। जब साल का अंत आता है तो सुस्ताने के लिये बैठता हूं, और तब ये उपकरण बाहर निकलते हैं। और तब लगता है कि कितनी रेण्डम होती रही है यात्रा।

यह बहुत समय से रेण्डम होती रही है और आगे भी जाने कैसे हो! :sad:

(कल दोपहर में खुले आसमान तले लेटा था। अचानक बादल आ गये। उनका दृष्य है यह।)

[caption id="attachment_4970" align="aligncenter" width="584" caption="बादल। कुछ समय रहेंगे। कुछ कहेंगे। छंट जायेंगे।"][/caption]

33 comments:

Personal Concerns said...

The French phenomenologist Maurice Merleau Ponty in "Phenomenology and Perception" deals precisely with such conceptions of time and space. Another viewpoint treats of time to be much more significant -a fact which is proved by the fact that most of us insist on wearing a watch all the time while very few amongst us carry a measuring rod.
A compass definitely gives one a sense of direction but does not measure it.
Anyways....sorry for the loud thinking!
This post is so philosophical, creative and fictional- all at the same time!
Congratulations sir!

प्रवीण पाण्डेय said...

तात्कालिक दिशा और आगामी लक्ष्य, बारी बारी से देखे जायें, यही जीवन के पथ का साम्य है।

Gyandutt Pandey said...

@This post is so philosophical, creative and fictional- all at the same time!

Oh, is it? I had only put up random ramblings; just like that! It must be due to thoughts of the Great men at the back of the mind whom I would have read earlier!

Gyandutt Pandey said...

निश्चय ही! शायद!

दिनेशराय द्विवेदी said...

कल अचानक बादल आए थे। आज बरसात हो रही होगी। अचानक सर्दी भी बढ़ चली होगी। रात को यहाँ भी हुई है। दिन भर बादल छाए रहे। सर्दी कम महसूस हुई। लेकिन लगता है रात कल से अधिक ठण्डी होगी।
नववर्ष आप और आप के परिवार के लिए मंगलमय हो!!
नए वर्ष में आप के जीवन में नई खुशियाँ आएँ!!!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

हम किसी भी वस्तु को देश और काल (Space and Time ) से निरपेक्ष अवस्था में नहीं देख सकते। कांट ने इसकी विशद व्याख्या की थी।
http://plato.stanford.edu/entries/kant-spacetime/

अपने आसपास की दुनिया के बारे में सोचते हुए हम बहुत दूर तक निकल जाते हैं। बस एक तार्किक और जिज्ञासु मस्तिष्क चाहिए। आप इस मायने में बहुत धनवान हैं।

विवेक रस्तोगी said...

परंतु आजकल उपकरणों ने यात्रियों के मध्य दूरियों में कमी कर दी हैं ।

Gyandutt Pandey said...

धन्यवाद, लिंक के लिये!

Gyandutt Pandey said...

हां, दूरियां कम कर दी हैं - समय और स्पेस में, पर मनस के स्तर पर जोड़ने के उपकरण अभी बने नहीं! :-(

Gyandutt Pandey said...

आज तो बरसात और आंधी की युगलबन्दी थी। इसने पर्याप्त कोहरे का उत्पादन कर दिया होगा जो एक दो दिन में दीखने लगेगा गांगेय मैदान में!

अरविन्द मिश्र said...

दिक और कालयात्री का फर्क यह है कि कालयात्री समय में आगे पीछे भी जा सकता है जबकि दिक्यात्री केवल वर्तमान में ही हिल डुल सकता है!

vishvanaathjee said...

Today's youngsters carry neither a watch nor a measuring rod.
They carry cell phones.

Happy new year to Gyanji and all readers.
Regards
G Vishwanath

Gyandutt Pandey said...

कभी कभी लगता है भूत में निवसते हैं, भविष्य से आशंकित!

सतीश पंचम said...

अभी-अभी गद्यकोश में कमलेश्वर की कहानी 'चप्पल' पढ़ा..... अंश पढिये तो लगता है इधर गंगा घाट की ही बात हो रही है :)
............
मेरा वह मित्र जिसने मुझे संध्या को देख आने की फ़र्ज अदायगी के लिए भेजा था,वह भी इलाहाबाद का ही था वह भी उसी सदियों पुरानी सभ्यता का वारिस था ठेठ इलाहाबादी मौज में वह भी दार्शनिक की तरह बोला था-- अपना क्या है ? रिटायर हाने के बाद गंगा किनारे एक झोपड़ी डाल लेंगे आठ-दस ताड़ के पेड़ लगा लेंगे... मछली मारने की एक बंसी... दो चार मछलियां तो दोपहर तक हाथ आएंगी ही...

' और क्या... माडर्न साधू की तरह रहेंगे ! मछलियां तलेंगे , खाएंगे और ताड़ी पीएंगे... और क्या चाहिए... पेंशन मिलती रहेगी। और माया-मोह क्यों पालें? पालेंगे तो प्राण अटके रहेंगे...
...............

मछलियों के खाने न खाने की बात को नजरअंदाज किया जाय तो लगता है इलाहाबादी सोच एक ढर्रे को फालो करती है :)

गद्यकोश का लिंक यह है।

Gyandutt Pandey said...

बिल्कुल - गंगा-सेण्ट्रिक सोच है यह।
हरप्पा-मोहनजोदाड़ो में जब नदी सूख गयी तो यही सर्च/सोच उन बन्दों को इलाहाबाद - बनारस तक माइग्रेट करा लायी रही होगी।

भारतीय नागरिक said...

चलिए इस वर्ष कुछ और मील के पत्थर पीछे छोड़े जायें.

Sanjeet Tripathi said...

नव वर्ष की बधाई और शुभकामनाएं आपको

विष्‍णु बैरागी said...

मनुष्‍य मन की अन्‍तर्यात्रा इन दोनों से हटकर तीसरी यात्रा है या दोनों का सेतु?
आपने उलझा दिया। निश्‍चय ही यह दार्शनकि पोस्‍ट है।

Manish said...

:) शुक्रिया!! "चप्पल" मारने (पढ़वाने) के लिए.. वैसे इलाहाबादी सोच के हम भी कायल हैं. अर्थात मार्डन साधू की तरह रहेंगे.. :D

आशीष श्रीवास्तव said...

समय यात्रा होती ही कहाँ है जी, हम और आप तो हमेशा ही वर्त्तमान में जीते है! भूत और भविष्य तो किस्से कहानियों में ही होते है!

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ!

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...

आपको, गंगाजी को और वहाँ की बची हुई डॉल्फ़िनों को नव वर्ष पर हार्दिक शुभकामनायें!

deepak dudeja said...

kya kya sochte hain aap - bilkul agal tareeke se - par jeewan to samanay hai ... or logon kee tarah. - or log nahin sochte ... maatr daroor ki botle ke sath purana saal vida le leta hai or - subah hangover ke liye nai bottle mein se ek lovely peg bana kar gatak liye ... bole to naya saal... time - space kisko kya padhi hai..


sadhuwaad aapko..... aapke achchhe swasthay ke liye shubhkaamnaayein.

वाणी गीत said...

नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें !

PN Subramanian said...

एक महत्वपूर्ण बात आपने कह दी. हमारे पास उपकरणों के होते हुए भी झोले में हाथ नहीं डाल पाते. नव वर्ष आपके लिए मंगलमय हो.

Atul (@aptrivedi) said...

पिताजी कहते थे ज़वानी में व्यक्ति कम्युनिस्ट होता है और अधेड़ होते होते आस्तिक हो जाता है . इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़े थे . मालूम नहीं सब बात इलाहाबाद पर आकर क्योँ खतम होती है . संगम का कोई और अर्थ है क्या टाइम और स्पेस की रिक्तता में ?

Gyandutt Pandey said...

@मालूम नहीं सब बात इलाहाबाद पर आकर क्योँ खतम होती है!

मुझे भी नहीं मालुम, मैं तो अब आया हूं इलाहाबाद। पर जब गंगा किनारे सांस लेता हूं तो लगता है यही शुरू है और यही खत्म!

संगम शायद वह है जिसमें शून्य भी है और अनंत भी!

parganiha said...

नव वर्ष की बहुत शुभकामनायें !

अनूप शुक्ल said...

यहां तो बड़ी ऊंची बातें कह हो गयीं सिरीमानजी! :)
नया साल मुबारक हो! :)

Chandra Mouleshwer said...

हम तो उस मील के पत्त्थर को छू चुके हैं जहां टैम एण्ड स्पेस कोई मायने नहीं रखता :)

udantashtari said...

रेन्डमही रहे तो बेहतर...प्लान्ड को भी भटक कर होना तो रेन्डम ही है...फिर क्यूँ तकलीफ भोगना....

पिछले दिनों हम उम्र महात्वाकांक्षी मित्र चल बसा...और उसका जाना...न जाने क्या क्या सिखा गया-क्या न्यू ईयर रेजिलूशन बनायें और क्या निभायें...सब यूँ ही चलने देते हैं...

प्रियंकर said...

दिक्काल की यह कुछ दार्शनिक और कुछ लौकिक यात्रा रसपूर्ण रही. यात्रा तो वही जो लदर-फदर हो . जो पूरी तरह 'प्रिडिक्टेबल' हो वह यात्रा भी कोई यात्रा है.

कम्पास और दूरबीन (अगर वे मात्र मानसिक नहीं हैं तो) मनुष्य की यात्रा को थोड़ा सुरक्षित तो बनाते हैं पर मनुष्यता की यात्रा का तो प्रवाह ही मोड़ देते हैं. इसलिये 'बायोलॉजिकल क्लॉक' के अलावा सभी यंत्र सभ्यता का हिस्सा हैं संस्कृति का नहीं.

इसलिए संस्कृति तो लदर-फदर चलने और बीच-बीच में पानी और पेड़ से सामना होते ही सुस्ता लेने वाले कल्पनाविहारी ही गढते हैं.

आपने बिल्कुल ठीक लिखा है कि "स्थान में आपके पास लौटने की सम्भावना होती है। समय में वह नहीं होती। अगर आप वापस लौटते हैं तो यादों में ही लौटते हैं।" पर वह खास क्षण बीतने के बाद स्थान भी वही कहां रह जाता है. नदी में पानी और काल का प्रवाह बह चुकने के बाद वह कोई और ही स्थान हो जाता है.

कहीं पढ़ा था कि एक नदी में दो बार स्नान असंभव है. पहले यह बात कम समझ में आती थी. इधर कुछ-कुछ आने लगी है. आपको पढने का इतना लाभ तो हुआ है .

Gyandutt Pandey said...

वाह! एक नदी में दो बार स्नान करना असम्भव है! क्या बात है!

Asha Joglekar said...

मील के पत्थर और नये साल की तुलना खूब रही । गंतव्य तो नही है यह पर एक ओर पडाव पार जरूर कर लेते हैं हम । नव वर्ष की शुभ कामनाएं ।