Saturday, January 7, 2012

कथरी

बौद्ध विहार में दान के उपयोग के बारे में बहुत पहले पढ़ा था - दान में मिले कम्बल पहले ओढ़ने, फिर बिछाने, फिर वातायन पर परदे ... अंतत: फर्श पर पोछा लगाने के लिये काम आते थे। कोई भी कपड़ा अपनी अंतिम उपयोगिता तक उपयोग किया जाता था। मुझे लगा कि कितने मितव्ययी थे बौद्ध विहार।

पर जब मैने अपनी गांवों की जिन्दगी को देखा तो पाया कि इस स्तर की मितव्ययता आम जीवन का हिस्सा है।

पुरानी साड़ी या धोती का प्रयोग कथरी या दसनी बनाने में किया जाता है। यह मोटी गद्दे जैसी चीज बन जाती है। इसका प्रयोग बिछाने में होता है और सर्दियों में यदा कदा ओढ़ने में भी।

मेरे पास दफ्तर में एक दसनी है, जिसे छोटेलाल सोफे पर लंच के बाद बिछा देता है - आधा घण्टा आराम करने के लिये। घर में अनेक इस प्रकार की दसनियाँ हैं। जब यात्रा अधिक हुआ करती थी तो मैं एक रेलवे की बर्थ की आकार की कथरी ले कर चलता था और रेल डिब्बे में घुसने पर पहला काम होता था पैण्ट कमीज त्याग कर कुरता-पायजामा पहनना तथा दूसरा होता था बर्थ पर दसनी बिछा कर अपनी "जगह" पर कब्जा सुनिश्चित करना।

यहां गंगाजी के कछार में शराब बनाने वालों को कथरी का प्रयोग गंगा किनारे रात में सोने या फिर अपने सोमरस को रेत में दबा कर रखने में करते देखा है मैने।

[caption id="attachment_5015" align="alignright" width="178" caption="भजगोविन्दम।"][/caption]

कथरी शब्द संस्कृत के कंथ से बना है। भजगोविन्दम में आदिशंकर ने एक सुमधुर पद रचा है -

रथ्याचर्पट विरचित कंथ:
पुण्यापुण्य विवर्जित पंथ:
योगी योग नियोजित चित्तो
रमतेबालोन्मत्तवदेव।


स्वामी चिन्मयानन्द ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है और उस अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद है -

योगी, जो मात्र एक गोडाडी (गली में परित्यक्त कपड़ों की चिन्दियों को सी कर बनाया गया शॉल) पहनता है, जो अच्छे और बुरे की परिभाषाओं से निस्पृह रहते हुये अपने चित्त को योग में अवस्थित रखता है, वह ईश्वरीय गुणों में रमता है - एक बालक या एक विक्षिप्त की तरह! 


उस दिन श्री गिरीश सिंह ने ट्विटर पर लगदी का एक चित्र लगाया तो मन बन गया यह पोस्ट लिखने का। लगदी, गोडाडी, कथरी, दसनी आदि सब नाम उस भारतीय मितव्ययी परम्परा के प्रतीक हैं, जिनमें किसी भी सम्पदा का रीसाइकल उस सीमा तक होता है, जिससे आगे शायद सम्भव न हो।

और यह रीसाइकल वृत्ति हमारी योगवृत्ति से भी जुड़ी है। आधुनिकों के लिये योग चमकदार मर्केटेबल योगा होगा, पर हमारे लिये तो वह कथरी/लगदी/गोडाडी/दसनी में लिपटा बालोन्मत्त योग है। बस!

[slideshow]

33 comments:

Personal Concerns said...

I liked the way you have introduced and presented the object,Practices like the one you have illustrated as instances of a 'miserly' way of life to me seem to be equally a result of poverty and destitution. The slideshow may as well attest my view.
Another aspect missed in the post is that of the 'small scale industry'. Designing and finally stitching together of various 'waste' pieces of clothing is an intricate household and largely feminine exercise. I have not seen it in UP but in Delhi machine made 'darees' are sold in the market for all range of prices. These darees are all made of unusable saarees and bedsheets.

Gyandutt Pandey said...

यह तो मेरे लिये खबर है कि मशीन से दरियाँ बन रही हैं पुरानी चिन्दियों का प्रयोग कर!
उत्तरप्रदेश में तो केवल गांवों में दसनी सीने का काम करती हैं घर की स्त्रियां!

indowaves said...

Indian Yoga at its best :-)...It's often the case that we see greatness in people having certain stature but we rarely come to recognize the greatness found in ordinary souls.

Thanks for highlighting Indians close proximity with Yoga in a natural way !!!

In case you want to acknowledge the worth of youths then please have a look at my recent article:

http://indowaves.wordpress.com/2012/01/06/remembering-the-true-representatives-of-youths-swami-vivekananda-r-d-burman-and-neeraj/

-Arvind K. Pandey

http://indowaves.wordpress.com/

राहुल सिंह said...

कथरी का ही एक नाम गोदरी है शायद, जिससे गुदड़ी (के लाल) बनता है. नायक-बन्‍जारे, इस काम में सिद्धहस्‍त होते हैं.

Gyandutt Pandey said...

हाँ, यह सही लगता है।

स्वामी चिन्मयानन्द के शब्द को अनुवाद में मैने इस लिये नहीं बदला था कि शायद किसी दक्षिण भारतीय भाषा का शब्द हो गोडाडी।

सलिल वर्मा said...

आज पहली बार आया हूँ आपके द्वारे.. इलाहाबद, उत्तर रेलवे और माल गाड़ी से लेकर राजधानी तक का लगभग तीन दशकों का समबन्ध रहा इस नगरी से.. आज भी पटना जाते समय प्लेटफोर्म नंबर ५ और ७ की झलक, छिवकी यार्ड से लेकर यमुना पुल तक तीर्थ की तरह लगता है.. (माफी चाहता हूँ इन सब बातों के लिए जो शायद आपको विषयान्तर लगे).
हमारे नोएडा में एक औरत हफ्ते दस दिन में पुराने कपडे, साडियां, धोतियाँ वगैरह ले जाती थी और उनसे बहुत ही खूबसूरत रंग-बिरंगे गदेले बनाकर दे जाती थी.. बहुत मामूली से पैसे लेती थी वो हमसे.. लेकिन उसकी कला और उसके व्यक्तिगत शिल्प की ऊष्णता अनमोल थी!! आज भी बहुत से ऐसे गदेले घर पर हैं!!

प्रवीण पाण्डेय said...

आज माताजी का पैंट से झोला बनाना याद आ गया..

Chandra Mouleshwer said...

हाय! आपने उस समय की याद दिला दी जब हम छुट्टियों के दिनों में घर में बैठ कर कथरी सिया करते थे। छोटे छोटे टांके लगा कर जब पूरी हो जाती तो कितना सुख मिलता। अब तो शायद लोग कथरी को भूल गये... कंफ़र्टर का युग जो आ गया :)

भारतीय नागरिक said...

मितव्ययिता तो सनातनी संस्कृति का अंग रही है. बाकी हम लोग तो टूथपेस्ट के हैंडल से नारा डालने का यंत्र भी बना लेते हैं. अब जरूर चार्वाकों की संस्कृति छा रही है.

Gyandutt Pandey said...

अच्छा! आपको भी कथरी सीना आता है। यह तो बड़ी सुखद बात है जानना। बहुत कम लोग होंगे जो ब्लॉग पर सक्रिय हैं और कथरी बना सकते हैं!
या शायद कोई और न हो!

Gyandutt Pandey said...

हां, और काफी समय तक मैने रुमाल वो इस्तेमाल की जो पुरानी कमीज से बनती थी!

Gyandutt Pandey said...

सलिल जी, यह सारी शिल्प-उष्णता प्रोडक्शन और बाजार तले दब गयी है।

विष्‍णु बैरागी said...

मालवा में इसे 'गोदडी' कहते हैं।
'उपयोगितावाद' और 'उपभोक्‍तावाद' - यही अन्‍तर है हममें और उनमें।
मशीन से दरियॉं बनाने का चलन इधर भी आ गया है।
पुरानी पतलूनों के झोले तो बरसों से हमारे मददगार बने हुए हैं।

Gyandutt Pandey said...

हां टूथपेस्ट का हेण्डल तो यह काम करता ही है!

दिनेशराय द्विवेदी said...

मेरी दादी बहुत सुंदर और आरामदायक कथरियाँ बनाती थी। मेरी माँ ने भी बनाई हैं और पत्नी जी भी बना लेती हैं। गर्मी में सोने के लिए सब से आरामदायक होती हैं। किशोरावस्था में पिताजी के शिक्षा उपनिदेशक मित्र मेहमान हुए। गर्मी का मौसम था। छत पर सोने की फरमाइश। मैं ने छत को खूब छिड़काव कर ठंडा किया और गद्दे बिछा कर बिस्तर लगवा दिए। मेहमान रात को दस बजे सोने छत पर पहुँचे तो बिस्तर देख संकोच में पड़ गए। बहुत सोच समझ कर बोले - सरदारजी! कथल्यों होव'गो नँ, ऊ बछा दो। मईं तो गदेला प' नीन्द न आव'गी।
आखिर उपनिदेशक महोदय के लिए कथल्या बिछाया गया। वे लेटे तो बोले -सरदारजी! आणंद आग्यो।
आज कल बाजार में नयी कतरनों के कथरियाँ बनी हुई खूब मिलती हैं।
वस्तु का अंतिम दम तक उपयोग करना भारतीय आदत है। यही कारण है कि हम कबाड़ अधिक पैदा नहीं करते। यहाँ तक कि विदेशों से मंगवा कर उस का भी उपयोग कर लेते हैं।

Manoj K said...

इधर राजस्थान में इन्हें राली कहा जाता है और उसके छोटे स्वरुप को रळका (कुर्सी या स्टूल पर बिछाया जा सकता है .). मैंने इन्हें अक्सर जच्चा और नवजात के उपयोग में लाते देखा है. मशीन से बने डोरमेट का इस्तेमाल किये हैं जिन्हें साडी और कपड़े की कतरनों से बनाया जाता है !

इको फ्रेंडली होने का मतलब शायद बहुत लोग नहीं जानते हों पर प्रेक्टिस तो कर ही रहे हैं.

Neeraj said...

अभूतपूर्व जानकारी पूर्ण पोस्ट...आपकी शोध प्रवृति को सलाम...



नीरज

induravisinghj said...

अपनी बनाई कथरी आज भी सम्भाल कर रखी है,उसमें धागे भी डिजाइन से डाले हैं। आपकी पोस्ट ने उत्तर प्रदेश के गाँवों के घर-घर की याद दिला दी जहाँ आज भी आपको औरतें कथरी बनाती हुई दिख जाएंगी।

Gyandutt Pandey said...

ग्रेट! लगता है मुझे भी सीख लेना चाहिये कथरी बनाना!

Gyandutt Pandey said...

राजस्थानी नाम बताने के लिये शुक्रिया।

लगता है, कथरी पूरे भारत में बनती होगी - अलग अलग नामों से।

Gyandutt Pandey said...

अच्छा, बाजार में उपलब्ध है?! यहां इलाहाबाद में भी पता करूंगा मैं!

Gyandutt Pandey said...

‘उपयोगितावाद’ और ‘उपभोक्‍तावाद’ - ये शब्द पसन्द आये!
और इनका उपयोग भी होगा अब मेरे ब्लॉग पर! :-)

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...

कथरी का ज़िक्र, चित्र और प्राचीन सन्दर्भ पढकर आनन्द आ गया। मितव्ययिता और रिसाइक्लिंग हमारी प्राचीन परम्परा का अंग रही है।

rashmiravija said...

बड़े दिनों बाद ये शब्द सुना....यहाँ मुंबई में कामवाली बाइयां आज भी खाली समय में कथरी बनाती हैं.

Nishant Mishra said...

टूथपेस्ट का हेण्डल? :)

Nishant Mishra said...

ये हमने बिलासपुर में अपने ददिहाल में बहुत देखीं थीं. उन्हें कथड़ी कहते हैं. हर मौसम में काम आतीं हैं.
किफायत से चलने में तो मैं भी बहुत यकीन करता हूँ लेकिन साथवालों को परेशानी होती है.

Gyandutt Pandey said...

हां टूथपेस्टब्रश का हेण्डल तो यह काम करता ही है! :-)

Pratibha Saksena said...

कथरी बनाना हमें भी आता है ,कथरी को काँथा भी कहते हैं और इन्हीं टांकों(स्टिटेज़)का प्रयोग आज कल धड़ल्ले से साड़ियों कुर्तों बेड-कवर आदि में होने लगा है .बहुत आसान और बहत जल्दी होनेवाली कढ़ाई है यह और बहुत सुन्दर भी !

Blog Bulletin said...

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - सचिन का सेंचुरी नहीं - सलिल का हाफ-सेंचुरी : ब्लॉग बुलेटिन

विवेक रस्तोगी said...

ऐसे ही हम चादर और दरी भी ऐसी ही उपयोग करते हैं, पुरानी साड़ियों की बनी हुई, मेरठ में इसका बहुत काम होता है और हमें पुरानी साड़ियों के बदले में अच्छी और मजबूत साड़ियों की बनी हुई चादर और दरी मिल गईं, जो कि देखने में भी बहुत अच्छी लगती है और इसे ओढ़ भी सकते हैं, कम से कम थोड़ी कम ठंड में तो आराम से ओढ़ सकते हैं।

rakesh ravi said...

आपका ब्लॉग पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा , सदा की तरह. संस्कृत के कन्थ्ह शब्द से कत्री बनी है जान कारी बढ़ी.
बिहार के कुछ हिस्से मे इसे गेणरा कहते हैं. वैसे समय के साथ यह गायब सी हो रही है.

समीर लाल said...

इस तरह की री सायकलिंग हर घर में हुआ करती थी पहले.

Sushil Kumar said...

आपके पोस्ट से पीछे छूटा हुआ इलाहाबाद बरबस आँखों के सामने आ कर खड़ा हो जाता है, कथरी में भी बहुत सी यादें छिपी हुयी हैं। अमिताभ जी का जन्मदिन आने वाला है, वो स्वयं को गुदड़ी का लाल बोलते हैं, कटरा के नर्सिंग होम से कथरी में जो लपेट के लाया गया था उनको।