Sunday, January 15, 2012

हज़रत लाइन शाह बाबा का फकीर

यह शहर का अंत है। शहर का उत्तरी-पूर्वी किनारा। लाइन शाह बाबा की मजार इलाहाबाद के मध्य में है - इलाहाबाद स्टेशन पर। शिवकुटी वहां से लगभग 15-18 किलोमीटर दूर है। वैसे भी यह स्थान शैव मन्दिरों और गंगा के तट के कारण है। किसी इस्लामी या सूफी सम्प्रदाय के स्थान के कारण नहीं। पर लाइन शाह बाबा का यह फकीर यहां यदा कदा चला आता है। उसी ने बताया कि पन्द्रह बीस साल से आ रहा है और हमारे घर से उसे कुछ न कुछ मिलता रहा है।

[caption id="attachment_5035" align="aligncenter" width="584" caption="हजरत लाइन शाह बाबा की मजार का फकीर।"][/caption]

वह बात जिस जुबान में करता है, उसमें उर्दू का बाहुल्य है। कुछ कुछ कम समझ में आती है। पर मैं उसका पहनावा और मैनरिज्म देख रहा था। कुरता-पायजामा पहन रखा था उसने। सिर पर स्कल कैप से कुछ अलग टोपी। गले में लटकाया लाल दुपट्टा। बगल में एक भरा-पूरा झोला और पांव में कपड़े के जूते। एक कद्दू की सुखाई आधी तुमड़ी थी, जिसे एक पेटी से सामने पेट पर फकीर ने लटका रखा था और जिसमें भिक्षा में मिला आटा था। बोलने में और हाथ हिलाने में नाटकीय अन्दाज था उस बन्दे का।

घर के अन्दर चला आया वह। एक कप चाय की मांग करने लगा। उसमें कोई खास परेशानी न थी - मैने अपने लोगों से एक कप चाय बना कर देने को कह दिया। तुलसी के चौरे पर टेक ले कर बैठ गया वह। उसके बाद अपना वाग्जाल बिछाना प्रारम्भ किया उसने।

[caption id="attachment_5025" align="aligncenter" width="576" caption="लाइन शाह बाबा का फकीर। मुझसे यह अनुरोध करने लगा कि वह दो बात कहना चाहता है, क्या घर में आकर एक ईंट पर बैठ सकता है?"][/caption]

आपके लड़के की सारी तकलीफें  खत्म हो जायेंगी। बस एक काले घोड़े की नाल लगवा लें घर के द्वार पर। और फिर अपने पिटारे से एक नाल निकाल कर दे भी दी उसने। मेरी पत्नीजी ने पूछना प्रारम्भ किया - उनका भाई भदोही से विधान सभा चुनाव लड़ रहा है, उसका भला होगा न? फकीर को शायद ऐसी ही तलब की दरकार थी। अपनी प्रांजल उर्दू में शैलेन्द्र (मेरे साले जी) के चुनाव में विजयी होने और सभी विरोध के परास्त होने की भविष्यवाणी दे डाली उस दरवेश ने। उसने लगे हाथ अजमेर शरीफ के ख्वाजा गरीब नेवाज से भी अपना लिंक जोड़ा और पुख्ता किया कि जीत जरूर जरूर से होगी।

यह जीत की भविष्यवाणी और बेटे के भविष्य के प्रति आशावादी बातचीत अंतत: मेरी पत्नीजी को 250 रुपये का पड़ा।

[caption id="attachment_5026" align="aligncenter" width="576" caption="इजाजत पा कर वह फकीर तुलसी के चौरे की टेक लगा कर बैठ गया और फिर उसने वाग्जाल फैलाना प्रारम्भ किया।"][/caption]

हज़रत लाइन शाह बाबा के फकीर नें फकीरी चोले और लहजे को कैसे भुनाया जाता है - यह मुझे सिखा दिया। आज, रविवार, की यह रही उपलब्धि!

44 comments:

भारतीय नागरिक said...

अस्ल मैनेजमेंट गुरु तो यही हैं. इनसे सीखा जा सकता है प्रबंधन और विक्रय के गुर.

Kajal Kumar said...


एक बहुत बड़े अफ़सर कार की पिछली सीट पर बैठे थे. दिल्ली के जनपथ की रेड लाइट पर कार रूकी. इसी तरह का फ़क़ीरनुमा एक आदमी हाथ में सांप लिए आया- "आज शिवजी का दिन है. सर्प के दूध का दिन. बच्चा ज़ेब में से निकाल के सब से बड़ा नोट सांप को दिखा. सांप के मस्तिष्क से छुआ कर लौटा दूंगा. तेरे ख़ज़ाने में बहुत बरकत होगी." साहब ने 500 का नोट थमा दिया. नोट लेकर सरपट जाते-जाते सांप वाला बोलता गया -"जय भोले बाबा के सबसे बड़े भक्त की. लाला, बम बम भोले तेरा भला करेंगे. तूने सांपों की पूरी बस्ती को ही आज दूध का दान दिया है. जा तेरा उपकार होगा."

साहब ने लंबी सांस ली -"शुक्र है मैंने 1000 का नोट नहीं निकाला."

आपको तो इन साहब से केवल आधी ही चपत लगी ☺

पा.ना. सुब्रमणियन said...

हम सब कुछ जानकार भी ऐसे लोगों के माया जाल में फंसते रहते हैं.

Chandra Mouleshwer said...

बडे सस्ते छूटे गुरुजी। हमारे दोस्त संतोख को १५०० का चूना लगा था। आपने उस कहानी को अपने ब्लाग पर लगाने प्रेरणा दे दी। आभार :) और हां, साले साहब को तो जीतना ही ह वर्ना लखनऊ जाने वाली गाडियां रद्द न हो जाय़ं :)

सलिल वर्मा said...

शीर्षक से लगा कि आप इलाहाबाद जंक्शन पर बने लाइन बाबा के मज़ार की बात करने जा रहे हैं.. लेकिन जब उनकी तस्वीर दिख गयी तो लगा कि ये कोई अवतारी पुरुष हैं.. और जब उनकी महिमा सुनी तो धन्य हो गया..! ऐसे बाबाओं की महिमा अपरम्पार है.. लेकिन चुनाव तो अभी होने हैं?? फिर तो ढाई सौ रुपये का सिक्का अभी आसमान में उछला हुआ है, देखिये चित्त होता है (सिक्का - शैलेन्द्र जी नहीं) या पट!!

मेघराज रोहलण 'मुंशी' said...

चलो २५० रुपये की चपत खाकर भी अनुभव तो सुधार लिया! आगे से कभी भविष्यफल न बँचवाओगे ऐसे दरवेशों से!

प्रवीण पाण्डेय said...

लुट गये आज फकीरी में..

सतीश सक्सेना said...

दरगाह पर हाजिरी की बात नहीं हुई क्या ....??
सस्ते में छूटे..
शुभकामनायें आपको भाई जी !

Gyandutt Pandey said...

हां, बीमा पॉलिसी बेचने वाले, सेल्स वाले तो इनके सामने पानी भरें!

Gyandutt Pandey said...

आपको लगता है आप फंस रहे हैं, पर आप फंसते चले जाते हैं! :-)

Gyandutt Pandey said...

बिल्कुल यही होता है।

Gyandutt Pandey said...

लिख डालिये तुरत फुरत! :-)

Gyandutt Pandey said...

लाइन बाबा, सिक्का और चुनाव सभी प्रॉबिबिलिटी पर हैं।

आस्था इज़ मैटर ऑफ प्रॉबिबिलिटी! :-)

Gyandutt Pandey said...

ये गारण्टी किसने दी कि भविष्य में 250 रुपये लगा कर एक ब्लॉगपोस्ट नहीं खरीदेंगे! :-)

Gyandutt Pandey said...

:-)

Gyandutt Pandey said...

हां, वह भी कर सकता था यह दरवेश, अगर कुछ और देर बिठाये रखा जाता!

राहुल सिंह said...

जिंदगी की जद्दोजहद क्‍या नहीं सिखा देती, फिर कहा जाता है अपनी गद्दी पर व्‍यापारी और अपनी कुरसी पर रहे तो सरकारी मुलाजिम की बात का असर होता ही है. आपके ठिहें पर बात में असर पैदा कर ले, आसान नहीं यह.

Gyandutt Pandey said...

मैने समझा कि आप अगर आपके कहे के रिजेक्ट होने की बॉटमलाइन के लिये तैयार होते हैं तो आप अपनी बात में असर के लिये काम करने लगते हैं। "Fear of rejection" पूअर परफॉर्मेंस का सबसे बड़ा घटक होता है।

Nikhil Nikunj (@NikhilNikunj) said...

हम सब लकीर के फकीर हैं..... इसीलिए, शायद हम मोह-माया को जानते समझते हैं पर फिर भी उसमे उलझते चले जाते हैं |

Gyandutt Pandey said...

हम सभी कई स्तरों पर जीते हैं। एक साथ।

ANIL KUMAR (@AnilAarush) said...

एवोलुशन ने हम मानवों का मस्तिष्क का विकास ही ऐसे किया है | हम जिसे मूर्खतापूर्ण कदम मानते हैं वो यथार्थ में दिमाग की सोची समझी कास्ट/बेनेफिट विश्लेषण है|

माइकल शेर्मर फरमाते हैं अपनी पुस्तक "द बिलीविंग ब्रेन" में जब आदि मानव किसी जंगल से गुजरता था तो किसिस झाडी से सुरसुराहट की आवाज़ आने पर वो हमेसा वर्स्ट सोंचता था की शायद कोई खतरनाक जानवर छिपा है और उसी के अनुसार निर्णय लेता था बचने की | अगर ये अंदाज़ गलत हुआ फिर भी कुछ नहीं बिगड़ा उसका सिर्फ एक बेज़रूरत बचने की कोशिस में श्रम का व्यय हुआ | इस तरह का फाल्स-पोसिटिव निर्णय हमारा मस्तिष्क लेने में सदियों से दक्षता हासली कर चूका है|

बिलकुल उसी सिद्धांत में आपकी धर्मपत्नी जी ने निर्णय लिया २५० रस की क्या अहमियत है अगर बाबा के बात सच निकले | अगर नहीं भी निकालता है कम से कम मानसिक सुकून तो देगा थोड़ी देर के लिए। झूठा ही सही उसकी भी कीमत बहुत होती है | अगर और नहीं कुछ तो एक फकीर को दान ही समझ लीजिये| इस प्रवचन का सार ये है की मस्तिष्क मजबूर है इस तरह के निर्णय लेने के लिए और ये बिलकुल युक्तिसंगत है इसी निर्णय व्यवस्था ने मानव जाती को सदियों से संरक्षित कर रखा है |

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

यह मान लीजिए कि ढाई सौ के बदले उसने आपको और भाभी जी को एक आशाभरी मुस्कान दे दी और आपने आज मकर संक्रांति के दिन एक फकीर के हाथ में ढाई सौ का दान दे दिया जो कुछ न कुछ पुण्यलाभ देगा ही। कम से कम मन में यह संतोष तो होगा कि एक गरीब को आज भरपेट भोजन मिल जाएगा। ऐसा मानकर खुश हो लेने की आवश्यकता है। ब्लॉगपोस्ट का जुगाड़ हो गया तो इसे बोनस समझिए। :)

विवेक रस्तोगी said...

फ़ेसबुक से आये तो लगा कि फ्लिपकार्ट से कोई किताब खरीदी है और पसंद नहीं आई है और २५० की टोपी हो गई है। पर यहाँ आकर देखा तो माजरा ही कुछ और निकला। सब कुछ जानते हुए भी हम खुद ही फ़ँस जाते हैं, अगर फ़कीर को ही कुछ पता होता तो क्या वह अपना ही कुछ भला नहीं कर लेता। पर एक बात तो है कि वाकचातुर्य की इनकी गजब प्रतिभा होती है। और अपने कनेक्शन पता नहीं कहाँ कहाँ जोड़ते हैं। एक हमारा भी अनुभव ऐसा ही है, परंतु वह सर्वथा भिन्न था, इसलिये उस पर हम लिख भी नहीं सकते, ये कह सकते हैं आध्यात्मिक अनुभव।

Gyandutt Pandey said...

आपका कहा वजन रखता है। सो-कॉल्ड भ्रमित दशा में भी मस्तिष्क यह कॉस्ट-बेनिफिट एनॉलिसिस करता है। जरूर!

Gyandutt Pandey said...

हम तो बोनस में ही खुश हैं! :-)

सतीश पंचम said...

एक लेख लिख रहा था और उसी का अंश फेसबुक पर डाल दिया - "दस रूपये में तो आजकल अगरबत्ती भी नहीं मिलती महराज, फिर भगवान को क्या समझते हो सौ रूपये टिकाकर खरीद ल्यौगे" ?

और देखिये कि अभी इस पोस्ट को देख रहा हूं जिसमें कुछ कुछ उसी तरह की भाव भंगिमा दरवेश की बातों से प्रतीत हो रही है :)

ढ़ाई सौ रूपये सस्ते हैं। कहीं टिकने की फरमाईश करता तो तुलसी चौरा से उठाना मुश्किल हो जाता :)

दिनेशराय द्विवेदी said...

पाठ सुगम और अच्छा है।

Gyandutt Pandey said...

मैं तो 250रु का अनुभवजन्य इनवेस्टमेण्ट मान कर चलता हूं!

Neeraj said...

ये ठगी का सबसे कारगार तरीका है...भोले भाले धर्म भीरु लोग उनके वाग्जाल में फंस जाते हैं...आगे से चौकन्ने रहिये और ऐसे बहुरूपियों की अच्छी खासी खबर लीजिये...

नीरज

पुनश्च: आप इस तरह के ढोंगी बाबाओं को देने के बजाय मुझे रोज़ ढाई सौ रुपये भेज दिया करें मैं आपको रोज ब्लॉग पोस्ट का मसाला दे दिया करूँगा...वो भी पूरी इमानदारी से, बोलो मंज़ूर है? चलिए आप तो अपने हैं आप को इस आफर में बीस प्रतिशत छूट दे देते हैं...दो सौ रुपये में फायनल करते हैं...अब तो हाँ कहिये...भारतीय तो छूट के नाम पर कुछ भी जरूरी गैर ज़रूरी चीजें खरीद कर इतराने में विशवास रखते हैं...आप इतना क्या सोच रहे हैं? आप भारतीय नहीं हैं क्या? :-))



नीरज

Hindi SMS said...

विधान सभा की टिकट के लिये जितने टोटके करने पढ़ते हैं उनके आगे २५० रु तो कुछ भी नहीं।

Gyandutt Pandey said...

सोच कहां रहा हूं, नीरज जी। आप जैसा कहें वैसा करने को तैयार हूं। कहें तो यूजरनेम/पासवर्ड भेज दूं आपको! :lol:

Gyandutt Pandey said...

हां शैलेन्द्र ने बहुत शीर्षासन किया है, ऐसा मुझे लगता है। पर असल लड़ाई तो अब है - सप्पा, बसप्पा से पार पाना है उसे!

Manoj K said...

the best of the best negotiators !!

प्राइमरी के मास्साब said...

अब एस ढाई सौ रुपये का क्या शुभ/अशुभ फल निकलेगा ?
इस पर अगली पोस्ट का इन्तजार है !

Gyandutt Pandey said...

वह फल तो मार्च के प्रथम सप्ताह में पता चलेगा।

विष्‍णु बैरागी said...

ढाई सौ की चपत खाकर दुखी और परेशान न हों। खुश हो जाइए कि आप बहुमत के साथ हैं। अनतर केवल यही है कि आपने कह दिया। मेरे पास तो मेरे मित्रों के ऐसे संस्‍मरणों का खजाना है।

अनूप शुक्ल said...

सौदा बुरा नहीं है ढाई सौ रुपये में। :)

Personal Concerns said...

lovely photos!

Smart Indian - स्मार्ट इण्डियन said...

जय हो! सोच रहा हूँ कि ऐसे एक बाबाजी कृपालु हो जाएँ तो हम भी दो-चार इलेक्शन लड़ लूं.

sanjay said...

ढाई सौ रुपये में सौदा बुरा तो नहीं!!

Ankur Srivastava said...

फिलहाल क्या हुआ आपके साले की विधायिकी का??

Gyandutt Pandey said...

समाजवादी पार्टी के केण्डीडेट से वह हार गया!

Ankur Srivastava said...

मतलब साले साहब हारे तो हारे, ढाई सौ रुपैये का चूना अलग से लग गया...

Gyandutt Pandey said...

:-)
वैसे 250.- में अनुभव बुरा नहीं! वह घोड़े की नाल अभी भी दीवार पर लगी है! :-)